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- सर्वोच्च 'संसद' का...
आदित्य चोपड़ा: संसद का वर्षाकालीन सत्र शुरू हुए एक सप्ताह हो चुका है मगर इसमें कामकाज के नाम पर केवल लोकसभा में एक महत्वपूर्ण 'अंटार्कटिका' विधेयक ही पारित हुआ है। हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि संसद का काम केवल विधेयक पारित कर उनकी गिनती करना ही नहीं होता है बल्कि देश की ज्वलन्त समस्याओं के समाधान का रास्ता भी खोजना होता है। यह कार्य सत्ता पक्ष और विपक्ष मिल-जुल कर इस प्रकार करते हैं कि सारे पक्षों के विचारों को प्रकट करने के बाद समस्याओं के सर्वश्रेष्ठ सर्वमान्य हल की तरफ बढ़ा जाये। मगर अक्सर ऐसा संभव नहीं हो पाता। इसके बावजूद जो भी हल निकलता है उसे बहुमत का समर्थन प्राप्त होता है। स्वतन्त्रता के बाद हमारे पुरखों ने बहुत सोच-विचार कर संसदीय प्रणाली का लोकतन्त्र अंगीकार किया था। इसकी प्रमुख वजह भारत की विशालता और विविधता और बहुसांस्कृतिक चरित्र का होना था। इसी वजह से द्विसदनीय संसद का गठन भी किया गया था जिससे प्रत्येक राज्य का प्रतिनिधित्व राज्यों की परिषद उच्च सदन 'राज्यसभा' में हो सके। मगर वर्तमान समय में राजनीति ने जो रंग बदला है उसमें उच्च सदन राज्यसभा का कार्य चरित्र भी सीधे जनता द्वारा चुने गये सदन लोकसभा जैसा ही होता जा रहा है और बराबर के 'शोर-शराबा व नारेबाजी' के नजारे हमें देखने को मिलते रहते हैं। लोकतन्त्र में इसमें भी कोई बुराई नहीं है, यदि यह एक सीमा के भीतर गरिमापूर्ण तरीके से किया जाये। क्योंकि विपक्षी दलों को यह हक होता है कि वे अपनी समझ के अनुसार देश की सड़कों पर जनता के बीच व्याप्त बेचैनी को अपनी आवाज देकर उसे सरकार तक पहुंचायें। दूसरी तरफ सत्तापक्ष का भी यह कर्त्तव्य बनता है कि वह सरकार पर काबिज होने का भाव छोड़ कर संसद में विपक्ष द्वारा उठाये गये मुद्दों को गंभीरता से ले। लोकसभा और राज्यसभा दोनों को ही चलाने के विभिन्न नियम इसी लिए बनाये गये हैं जिससे सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच लगातार सन्तुलन बना रहे। दोनों ही सदनों को चलाने की पूर्ण जिम्मेदारी इनके अध्यक्षों की होती है। राज्यसभा के अध्यक्ष को सभापति कहा जाता है और वह देश के उप राष्ट्रपति होते हैं। मगर महत्वपूर्ण यह भी है कि लोकतन्त्र में संसद पर पहला अधिकार विपक्ष का ही होता है। इसका प्रमुख कारण यह माना जाता है कि विपक्षी सांसदों को भी आम जनता ही अपने वोट से चुनती है और उन्हें संसद के भीतर अपना प्रतिनिधि बनने का अधिकार देती है। यही वजह है कि संसद की नियमावली में सबसे ज्यादा अधिकार विपक्ष को ही मिले हुए हैं जिससे वह विभिन्न नियमों के तहत सरकारी कामकाज के चलने के बावजूद आम जनता के ज्वलन्त मुद्दों को उठा कर सरकार का ध्यान उनकी तरफ खींच सके। ऐसे नियमों मे ध्यानाकर्षण प्रस्ताव से लेकर काम रोको प्रस्ताव व विशेष चर्चा कराये जाने के प्रावधान समाहित होते हैं। इन नियमों के तहत जब भी विपक्ष कोई प्रस्ताव लाता है तो उसे स्वीकार करने या अस्वीकार करने का विशेषाधिकार सदनों के अध्यक्षों के पास होता है। यह उनके विवेक पर निर्भर करता है कि वह किस विषय को सदन में खुल कर लम्बी बहस कराने योग्य समझते हैं और किस विषय को सदन मे मात्र उल्लेख किये जाने योग्य मानते हैं। इस मामले में संसद पुरनी परंपराओं का अनुसरण भी करती है और उन्हें नियम मान कर भी चलती है परन्तु बदलते समय के अनुसार यह जरूरी भी नहीं होता। वर्षाकालीन सत्र के पहले दिन से ही विपक्ष मांग कर रहा है कि महंगाई के मुद्दे पर बहस कराई जाये। इस बाबत दोनों ही सदनों में विपक्ष कई बार स्थगन प्रस्ताव की प्रार्थना कर चुका है। बेशक महंगाई शाश्वत विषय है मगर जब यह जरूरत से ज्यादा बोझ बन जाती है तो विपक्षी सांसद उग्र हो जाते हैं। मगर हर स्थिति में ऐसा ही हो यह जरूरी नहीं होता। कभी–कभी केवल राजनीतिक हिसाब-किताब पूरा करने के लिए भी ऐसा किया जाता है। अतः सदन के अध्यक्षों को सम्यक दृष्टि से काम लेना पड़ता है। वैसे लोकतन्त्र में किसी भी विषय पर जितनी भी बहस हो वह बुरी नहीं होती क्योंकि उसी के बीच से समस्याओं का बेहतर समाधान निकलने की संभावनाएं बनी रहती हैं। लेकिन किसी विषय की वजह से संसद ही न चले यह लोकतन्त्र के लिए सबसे ज्यादा हानिकारक होता है क्योंकि इससे जनता का विश्वास संसदीय प्रणाली से डगमगाता है। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों का ही पहला कर्तव्य बनता है कि वे जनता के विश्वास की रक्षा करते हुए अपनी-अपनी भूमिकाएं सकारात्मक ढंग से सार्थक सिद्ध करें। संपादकीय :अमृत महोत्सवः दर्द अभी जिंदा है-6द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति होना अन्त्योदय की मिसाल...जब MSME आगे बढ़ेगा तभी देश सोने का शेर बनेगा : श्रीमती किरण चोपड़ाममता दी का 'मारक मन्त्र'अमृत महोत्सव : दर्द अभी जिंदा है-5अमृत महोत्सव : दर्द अभी जिंदा है-4भारत के संसदीय इतिहास में पूर्व में ऐसे कई मौके आये हैं जब संसद में गतिरोध के कायम रहते पूरे के पूरे सत्र ही निष्फल रहे। ऐसी स्थिति लोकतन्त्र के लिए सबसे ज्यादा घातक होती है। विचारणीय मुद्दा यह भी है कि संसद का कोई भी सत्र शुरू होने से पहले सर्वलीय बैठक बुलाने की जो परिपाठी है उसके क्या मायने हैं? यदि इसके कोई मायने हैं तो फिर संसद की कार्यवाही शुरू होने पर किसी ज्वलन्त विषय पर बहस या चर्चा क्यों नहीं हो पाती। प्रत्येक सरकार में एक संसदीय कार्यमन्त्री होता है। इस मन्त्रालय का मुख्य कार्य ही संसद के भीतर सत्ता पक्ष व विपक्ष के बीच सामंजस्य स्थापित करना होता है। यदि संसद में दोनों पक्षों के बीच यह सामंजस्य ही नहीं बन पाता है तो फिर संसदीय कार्यमन्त्री का कार्य क्या बचेगा। आखिरकार इस मन्त्रालय के गठन के पीछे भी कोई गंभीर चिन्तन तो रहा ही होगा। अतः किसी भी पक्ष के जिद पर अड़ने की सूरत में बीच का रास्ता निकालने की जिम्मेदारी सदनों के अध्यक्षों पर भी परोक्ष रूप से आ जाती है।