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सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने सोशल मीडिया के दुरुपयोग पर तीखी टिप्पणी करते हुए सरकार से जवाब मांगा है
विराग गुप्ता। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने सोशल मीडिया के दुरुपयोग पर तीखी टिप्पणी करते हुए सरकार से जवाब मांगा है. जजों के अनुसार, प्रिंट और टेलीविजन मीडिया में नियम और नियंत्रण की ठोस व्यवस्था है, लेकिन सोशल मीडिया में कोई भी व्यक्ति यूट्यूब चैनल शुरू करके अफवाह फैला सकता है. मरकज़ मामले की सुनवाई करते हुए जजों ने कहा कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के साथ सोशल मीडिया से नफरत फैलाने के अभियान को रोकना जरूरी है.
देश की सर्वोच्च अदालत के मुख्य न्यायाधीश के अनुसार, ये कंपनियां अदालतों की बात भी नहीं सुनतीं. सरकार की तरफ से पेश सोलिसिटर जनरल ने कहा कि सरकार इस समस्या के बारे में सजग और संवेदनशील है. मामले की अगली सुनवाई अब 6 हफ्ते बाद होने पर सरकार इस पर विस्तार से जवाब देगी. देश की सबसे ताकतवर संस्था सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के गुस्से से सोशल मीडिया के नियमन के साथ सांविधानिक संस्थाओं की लाचारी पर भी अनेक सवाल खड़े होते हैं?
मीडिया की सांविधानिक आजादी और जवाबदेही
देश में प्रमुख तौर पर चार तरह के मीडिया प्लेटफार्म हैं. प्रिंट, टीवी, डिजिटल वेबसाइटस और सोशल मीडिया. अंग्रेजों के समय में बनाए गए क़ानून के अनुसार, प्रिंट मीडिया के मालिक, प्रकाशक और संपादकों के ऊपर अनेक प्रकार के कानूनी बंधन हैं. टेलीविजन मीडिया को भी सरकारी लाइसेंस लेने की वजह से कई नियमों को मानने के साथ स्व-नियामक की बात सुननी पड़ती है.
यानी, गांव में किसी को छोटा सा अखबार भी छापना हो या पंपलेट यानी पर्चा बांटना हो, तो प्रिंटर और संपादक की कानूनी जवाबदेही तय होती है. लेकिन, पूरे देश को अपने डिजिटल शिकंजे में लेने वाले यूट्यूब और फेसबुक जैसे प्लेटफार्म को भारत में किसी प्रकार की लाइसेंस की जरूरत नहीं है. अन्तर्राष्ट्रीय नियम और क़ानून के अनुसार, कोई भी आजादी संपूर्ण नहीं होती है. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत अभिव्यक्ति की आजादी के साथ अनेक जवाबदेही तय की गयी हैं.
सोशल मीडिया में नफरत के व्यापार से आम जनता को संविधान के अनुच्छेद 21 से मिले जीवन के अधिकार का उल्लंधन होता है. यदि सोशल मीडिया का इस्तेमाल हेट स्पीच, सांप्रदायिकता, अवमानना, ड्रग्स, यौन उत्पीडन आदि के लिए हो, तो ऐसे आपत्तिजनक कंटेंट को रोकने के लिए कानूनी प्रबंध और तंत्र को विकसित करने के लिए सरकार की जिम्मेदारी है.
नए आईटी नियमों के जादू का पिटारा
पिछले कई सालों से हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में सोशल मीडिया के अनेक मामलों पर खूब बहस होने के बावजूद, कोई समाधान नहीं हो रहा. तीन साल की मशक्कत के बाद आईटी नियमों को कुछ महीने पहले मई 2021 में लागू कर दिया गया, लेकिन समस्या जस की तस है. नए आईटी नियमों को पारदर्शी तरीके और सख्ती से लागू करने की बजाय, उसमे घालमेल करने के लिए एसओपी यानी स्टैण्डर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर बनाने की बात हो रही है.
इन नियमों को न्यूज़ वेबसाइट और ओटीटी प्लेटफार्म पर लागू करने पर भी अनेक प्रकार के विवाद हैं. कर्नाटक, दिल्ली, केरल, कोलकाता, मद्रास समेत कई हाईकोर्ट में इन नियमों के खिलाफ सुनवाई चल रही है. बम्बई हाईकोर्ट ने तो नए आईटी नियमों के कुछ प्रावधानों पर रोक भी लगा दी है. इन नियमों के अनुसार, सोशल मीडिया कंपनियों यानी इंटरमीडियरी को भारत में शिकायत अधिकारी, नोडल अधिकारी और मुख्य कंप्लायंस अधिकारी की नियुक्ति करना जरूरी है.
नियमों के तहत सरकार और सोशल मीडिया कंपनियां सभी शिकायत अधिकारियों का व्हाट्सएप नंबर, ईमेल आईडी और संपर्क का पता, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय अखबारों और टीवी चैनलों में प्रमुखता से प्रकाशित करवा दें, तो जागरूकता बढ़ने के साथ जजों समेत आम जनता की शिकायतों का संस्थागत समाधान हो सकेगा.
सरकार, संसद और सुप्रीम कोर्ट को ठोस कदम उठाने होंगे
नए आईटी नियमों के अनुसार, इन कंपनियों ने कारवाई की मासिक रिपोर्ट जारी की है. नई रिपोर्ट के अनुसार, फेसबुक ने लगभग तीन करोड़, गूगल ने लगभग 95 हज़ार, यूट्यूब ने लगभग 59 हज़ार और ट्विटर ने लगभग 120 आपत्तिजनक कंटेंट के खिलाफ पिछले एक महीने में कारवाई की है. व्हाट्सएप ने लगभग 30 लाख आपत्तिजनक एकाउंट्स को बैन किया है. इनमे से अधिकांश कारवाई, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी एआई के इस्तेमाल से होती है. लेकिन, ये कंपनियां मुनाफा बढ़ाने के चक्कर में आम जनता की शिकायतों के समाधान की समुचित व्यवस्था नहीं बना रहीं.
आधिकारिक डाटा के अनुसार, विश्व की बड़ी सोशल मीडिया कंपनियों के 8 फ़ीसदी यूजर्स बोगस, डुप्लीकेट और गुमनाम हैं. जबकि इंडस्ट्री के अनुमानों के अनुसार,, फेसबुक, इंस्टाग्राम और ट्विटर जैसे प्लेटफार्म में 30 फ़ीसदी से ज्यादा यूजर्स फर्जी या गुमनाम हो सकते हैं. इन कंपनियों के खुद के नियम और भारत के कानून के अनुसार, गुमनाम यूजर्स को रोकने के लिए कंपनियों की कानूनी जवाबदेही है.
इसके लिए, ये कंपनियां यूजर्स का वेरिफिकेशन यानी उन्हें ब्लू टिक का स्टेटस प्रदान करती हैं. लेकिन, सोशल मीडिया में सिर्फ गिने-चुने लोगों को ही ब्लू-टिक दिया जा रहा है. केवाईसी जैसे वेरीफिकेशन के बाद ब्लू-टिक को अनिवार्य करने के लिए सरकार और सुप्रीम कोर्ट को सख्त आदेश पारित करना चाहिए. इससे सोशल मीडिया का लोकतांत्रिक तेवर बरकरार रहने के साथ, आईटी सेल और ट्रोलर्स के प्रकोप में कमी आएगी. इन कंपनियों का शिकायत निवारण का सिस्टम मजबूत बनाने के साथ नए आईटी नियमों को सख्ती से डिजिटल कंपनियों पर लागू किया जाय तो सोशल मीडिया में नफरत के व्यापार पर रोक लग सकती है.
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