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भूपेंद्र सिंह | यह अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाई कोर्ट के उस फैसले में हस्तक्षेप किया, जिसमें दिल्ली दंगों के तीन आरोपितों को जमानत देते हुए यह कहा गया था कि सुरक्षा एजेंसियों ने आतंकी गतिविधि और विरोध प्रदर्शन के बीच फर्क नहीं किया। यह ठीक है कि सुप्रीम कोर्ट ने इन तीनों आरोपितों को जमानत दिए जाने के फैसले पर रोक नहीं लगाई, लेकिन उसने यह भी कहा कि दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले को नजीर न माना जाए और न ही आतंकवाद निरोधक कानून की अनदेखी की जाए। इसका मतलब है कि सुप्रीम कोर्ट को इस फैसले में कुछ विसंगति दिख रही है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले और उससे संबंधित टिप्पणियों से तो ऐसी प्रतीति हो रही थी कि तीनों आरोपितों को महज विरोध प्रदर्शन के लिए गिरफ्तार किया गया, न कि दिल्ली के उन भीषण दंगों को भड़काने के लिए, जिनमें 50 से अधिक लोग मारे गए थे। दिल्ली हाई कोर्ट का फैसला यह भी आभास करा रहा था, मानों उसने आरोपितों को क्लीनचिट दे दी हो। उसके फैसले में यह कहा गया था कि विरोध प्रदर्शन के दौरान उत्तेजक भाषण, चक्का जाम जैसे कृत्य असामान्य नहीं कहे जा सकते। नि:संदेह यह सब विरोध प्रदर्शन का हिस्सा है, लेकिन क्या किसी सड़क पर कब्जा कर लाखों लोगों के आवागमन को बाधित करना भी सामान्य कृत्य माना जाएगा? इसी तरह क्या लोगों को हिंसा के लिए भड़काने को भी विरोध प्रदर्शन का हिस्सा मान लिया जाएगा? यदि ऐसा माना जाएगा तो फिर धरना-प्रदर्शन के नाम पर अराजकता फैलाने वालों को ही बल मिलेगा