यह निराशाजनक है कि सुप्रीम कोर्ट को इस पर चिंता जतानी पड़ी कि गंभीर आरोपों का सामना कर रहे सांसदों और विधायकों के मामलों की जांच में देरी हो रही है। ये वे मामले हैं जो सीबीआइ अथवा प्रवर्तन निदेशालय ने दर्ज किए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को जिस तरह यह निर्देश दिया कि वह सीबीआइ और प्रवर्तन निदेशालय को आवश्यक संख्या बल उपलब्ध कराए उससे यही स्पष्ट होता है कि ये एजेंसियां संसाधनों के अभाव का सामना कर रही हैं। यह स्थिति तत्काल प्रभाव से दूर होनी चाहिए। जब ऐसा होगा तभी ऐसे किसी नतीजे पर पहुंचा जा सकता है कि केंद्रीय सत्ता राजनीति के अपराधीकरण के सिलसिले को थामने को लेकर गंभीर है। यह ठीक है कि वह अपनी इस गंभीरता का प्रदर्शन पहले दिन से कर रही है, लेकिन अभी तक नतीजा ढाक के तीन पात वाला है। प्रत्येक चुनाव के बाद यही देखने-सुनने को मिलता है कि गंभीर आरोपों का सामना करने वाले जनप्रतिनिधियों की संख्या में कोई उल्लेखनीय गिरावट नहीं आई। भारतीय लोकतंत्र के लिए यह स्थिति ठीक नहीं। दुर्भाग्यवश एक लंबे अर्से से यही स्थिति है और इसका कारण यह है कि निर्वाचित प्रतिनिधि अपने खिलाफ चल रहे मामलों की सुनवाई में अड़ंगा डालने में समर्थ हो जाते हैं।