सम्पादकीय

सुप्रीम कोर्ट का धीरज!

Gulabi
7 Sep 2021 4:04 PM GMT
सुप्रीम कोर्ट का धीरज!
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सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को चेतावनी दी है कि उसका धीरज चूक रहा है

पंचाटों के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अगर एक हफ्ते में सरकार ने फैसला नहीं किया, तो उसके पास यही रास्ता बचेगा कि या तो वह पंचाटों को भंग कर उसके अधिकार हाई कोर्टों को सौंप दे या खुद नियुक्तियां कर दे। क्या वह सचमुच इस हद तक जाएगा, ये देखने की बात होगी। supreme court tribunals reforms

सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को चेतावनी दी है कि उसका धीरज चूक रहा है। इस बार मामला पंचाटों में नियुक्ति का है, जिसे सरकार ने लटका रखा है। कुछ रोज पहले सुप्रीम कोर्ट ने लाचारी जताई थी कि सोशल मीडिया कंपनियां उसके निर्देशों का पालन नहीं करतीं। उसके भी कुछ दिन पहले माननीय न्यायालय ने इस पर अफसोस जताया था कि सरकार की कानून लागू करने वाली एजेंसियां उसके निर्देशों का बेखौफ उल्लंघन कर देती हैँ। अब पंचाटों के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अगर एक हफ्ते में सरकार ने फैसला नहीं किया, तो उसके पास यही रास्ता बचेगा कि या तो वह पंचाटों को भंग कर उसके अधिकार हाई कोर्टों को सौंप दे या खुद नियुक्तियां कर दे। जहां तक खुद नियुक्तियां करने का प्रश्न है, तो सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टों में जजों की नियुक्ति के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम की सिफारिशों पर वर्तमान सरकार मनमाफिक ढंग से फैसले करती रही है।
सुप्रीम कोर्ट अब तक कुल मिला कर उसका मूक दर्शक ही रहा है। ऐसे में पंचाटों में क्या वह सचमुच खद फैसला करने की हद तक जाएगा, ये देखने की बात होगी। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट का खुलेआम इस तरह बार-बार अपनी लाचारी जताना देश में भी लाचारी का बोध पैदा करता है। जब देश की सर्वोच्च न्यायपालिका की यह स्थिति होगी, तो एक आम नागरिक कितनी व्यवस्था में न्याय पाने की उम्मीद कहां तक बचेगी? दूरगामी नजरिए से देखें, तो इस हाल को व्यवस्था से मोहभंग पैदा करने वाले संकेत के रूप में देखा जा सकता है। बहरहाल, जहां तक पंचाटों की बात है, तो बेहतर होगा कि अब सुप्रीम कोर्ट इनकी उनके रिकॉर्ड और प्रासंगिकता का भी एक आकलन करे। आम शिकायत यह है कि पंचाट जजों की पोस्ट रिटायरमेंट नियुक्ति का जरिया बन गए हैँ। जिन उद्देश्यों के लिए उन्हें बनाया गया, वह शायद ही हासिल हो रहा है। खास कर जब से वर्तमान सरकार आई है, पंचाटों ने जैसे अपनी भूमिका खुद ही सीमित कर ली है। इसकी सबसे बेहतरीन मिसाल ग्रीन ट्रिब्यूनल है, जिसकी आंखों के सामने पर्यावरण संबंधी तमाम पुराने कानूनों की धज्जियां उड़ा दी गई हैँ। ऐसे में अगर ये पंचाट ना रहे और उनकी शक्ति हाई कोर्ट को मिल जाए, तो उसमें कोई नुकसान नहीं है। बल्कि कई हाई कोर्टों का हाल में रिकॉर्ड कहीं बेहतर रहा है।
क्रेडिट बाय नया इंडिया
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