सम्पादकीय

सुप्रीम कोर्ट कमेटी की रिपोर्ट और 5 राज्यों के जनादेश, क्या किसान कानूनों पर आगे बढ़ने का संदेश है?

Gulabi Jagat
23 March 2022 4:09 AM GMT
सुप्रीम कोर्ट कमेटी की रिपोर्ट और 5 राज्यों के जनादेश, क्या किसान कानूनों पर आगे बढ़ने का संदेश है?
x
सुप्रीम कोर्ट कमेटी की रिपोर्ट और 5 राज्यों के जनादेश
बिपुल पांडे।
भारत के किसानों (Indian Farmer) की दुर्दशा का जब भी कभी इतिहास लिखा जाएगा, तो एक चर्चा जरूर होगी. कहा जाएगा कि देश में कभी एक विचित्र सा किसान आंदोलन (Farmers Protest) हुआ था, जिसका विपक्ष ने विचित्र सा विरोध किया, कोर्ट में उसकी विचित्र सी सुनवाई हुई, केंद्र सरकार ने तीन कृषि कानूनों (Three Agriculture Law) की विचित्र वापसी कराई और कानूनों की वापसी के बाद एक कमेटी की विचित्र सी रिपोर्ट आई, जो कहती थी कि आंदोलन गलत था, खेत-खलिहान की समृद्धि के लिए बना कानून सही था.
आज देश के करोड़ों अन्नदाताओं का मन जरूर कह रहा होगा- 'अब रिपोर्ट लाए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत'. सच्चाई ये है कि देश में खेती किसानी को लेकर दशकों बाद हुई हलचल एक बार फिर दबाई जा चुकी है और अब किसानों की किस्मत चमकाने के लिए दोबारा हलचल कब पैदा होगी, ये कोई नहीं जानता. वाकई तीन कृषि कानूनों पर सुप्रीम कोर्ट की ओर से गठित कमेटी की अब जो रिपोर्ट रिलीज या लीक हुई है, वो देश के शासन, प्रशासन और ट्रायल, तीनों के लिए शर्मनाक है.
समय और संयम ने ऐसा खेल खेला कि किसान हाथ मलता रह गया
जरा टाइमलाइन पर गौर कीजिए. 5 नवंबर 2020 को किसानों ने केंद्र के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ देशव्यापी आंदोलन शुरू किया था. तब कोरोना जैसी महामारी की परवाह किए बिना पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी से ट्रैक्टर कूच करने लगे थे. सैकड़ों ट्रैक्टर देश की राजधानी दिल्ली पहुंचने लगे थे. देखते ही देखते ये देशव्यापी आंदोलन दिल्ली के बॉर्डर पर सिमट गया. सिंघू बॉर्डर, गाजीपुर बॉर्डर समेत दिल्ली में दाखिल होने वाले हर दरवाजे पर किसान नेता तंबू गाड़कर जम गए. लोकतंत्र के मंदिर यानी संसद में किसानों का नायक कौन, खलनायक कौन पर चर्चा होने लगी थी.
सरकार और किसान नेताओं के बीच राउंड दर राउंड मीटिंग हुई. बावजूद इसके जब किसान समस्या का समाधान नहीं निकला तो ये मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और इसी के बाद से 14 करोड़ किसान परवारों की ही नहीं, पूरे देश की विडंबना शुरू हुई. सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए जनवरी, 2021 में एक कमेटी बना दी. कमेटी को सभी स्टेक होल्डर्स से बात, पड़ताल करके ये बताना था कि केंद्र सरकार ने जो तीन कृषि कानून पास किए हैं, वो किसानों के हित में हैं अथवा नहीं. समय गुजरता रहा, आंदोलन चलता रहा. ऐसा लगा कि देश की जनता भूल ही गई थी कि ऐसी कोई कमेटी अपना काम करती आ रही है, जो रिपोर्ट भी दे सकती है.
पांच राज्यों का चुनाव करीब था और उससे पहले 19 नवंबर, 2021 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीनों कृषि कानून वापस ले लिए. पांच राज्यों के चुनाव के नतीजे आ चुके हैं. और किसान कानूनों की वापसी के करीब तीन महीने बाद खबर आई है कि उस कमेटी ने तो अपने गठन के दो महीने बाद 19 मार्च, 2021 में ही रिपोर्ट दे दी थी. जिस रिपोर्ट में कहा गया था कि कृषि कानून वापस नहीं लिए जाने चाहिए. देश का बहुमत कृषि कानूनों के साथ खड़ा था. अब इसे विडंबना ना कहा जाए तो क्या कहा जाए?
कृषि कानूनों की वापसी गलत क्यों थी?
समिति के तीन सदस्यों में से एक अनिल घनवट ने सोमवार को कहा कि उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को कई बार कमेटी की फाइंडिंग्स जारी करने का अनुरोध किया. जब सुप्रीम कोर्ट ने रिपोर्ट जारी नहीं की तो उन्हें खुद इस रिपोर्ट को रिलीज करने के लिए आगे आना पड़ा है. हालांकि समिति के दो अन्य सदस्य अशोक गुलाटी और प्रमोद कुमार शास्त्री इस अवसर पर मौजूद नहीं थे. पुणे के किसान नेता अनिल घनवट का दावा अगर सही है तो कोर्ट की ओर से बनाई गई रिपोर्ट एक दिलचस्प नतीजे पर पहुंची थी.
किसान संगठनों की प्रतिक्रिया जानने के बाद पता चला कि सिर्फ 13.3 परसेंट स्टेक होल्डर्स तीनों कानूनों के खिलाफ थे, 85.7 प्रतिशत किसान संगठन तीनों कानूनों के साथ थे, जो 3.3 करोड़ से अधिक किसानों का प्रतिनिधित्व करते हैं. अब सवाल उठता है कि अदालत की दहलीज पर अपनी ही बनाई हुई कमेटी की रिपोर्ट अटक क्यों गई? अदालत के किसी नतीजे पर पहुंचने में इतना वक्त क्यों लगता है, जो जीत भी सजा में बदल जाती है? और केंद्र सरकार तीनों कृषि कानूनों पर किसानों को राजी क्यों नहीं कर पाई?
तो क्या दिल्ली में आढ़तियों का गैंग डटा था?
पहले तो ये समझ लेना चाहिए कि कमेटी की रिपोर्ट में कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है. दिल्ली बॉर्डर पर 378 दिन डटे रहे किसानों में पूरे देश के किसानों का बहुमत शामिल नहीं था. उत्तर प्रदेश, बिहार तो दूर, दिल्ली बॉर्डर के करीब बसे किसान भी इसमें शामिल नहीं हुए. अन्यथा आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे योगेंद्र यादव को रिरियाते हुए ये नहीं कहना पड़ता कि- 'मुझे बहुत दुख है कि आसपास के किसान भाइयों का सहयोग नहीं मिल रहा है, मैं चाहता हूं वो आगे आएं, आंदोलन से जुड़ें.' तो आखिर इस आंदोलन में कैसे किसान शामिल थे?
आंदोलन के दौरान एक शब्द तेजी से उछला था- आढ़तिया. आढ़तिया वो होते हैं जिन्हें शासन ने किसान और कंज्यूमर के बीच में भगवान की तरह बैठाया है. ये किसान और कंज्यूमर के बीच की कड़ी होते हैं. इन्हें APMC मंडियों में दुकान दी जाती है, जिस दुकान पर किसान जाकर अपनी उपज बेचते हैं और वहां से ये उपज कंज्यूमर तक पहुंचता है. इनसे उम्मीद की जाती है कि ये किसान को फसल का अच्छा मूल्य देंगे और उचित मूल्य में ही कंज्यूमर तक उपज पहुंचाएंगे. लेकिन ये कड़ी कितनी क्रूर हो चुकी है, इसे एक उदाहरण से समझिए. मुझे गूगल पर सर्च करने पर आगरा की एक लोकल वेबसाइट में 2018 में आगरा सब्जी मंडी में दुकानों में हुए ऑक्शन की एक रिपोर्ट मिली. जिसमें बताया गया था कि 8 गुणा 16 फीट की एक दुकान की बोली लगाने में स्थानीय सांसद बाबूलाल के रिश्तेदार और एक कारोबारी में जंग छिड़ गई. बोली लगते-लगते एक दुकान की कीमत 3 करोड़ 15 लाख रुपये तक पहुंच गई. प्रशासन ने अपनी कामयाबी का ढोल पीटा और दुकान अलॉट कर दी गई.
इस ऑक्शन में करीब 50 दुकानें 20 करोड़ रुपये से भी ज्यादा में बिकी थीं. पैसे का ये फ्लो ही बता देता है कि मर्ज कहां है. ऑक्शन में करोड़ों की कमाई प्रशासन की जीत नहीं बल्कि हार थी. ये तो सिर्फ एक उदाहरण है, जो राज-काज के लिए रुटीन वर्क जैसा है. लेकिन तीन करोड़ की दुकान खरीदने वाला एक आढ़तिया किसान और कंज्यूमर को कितना कष्ट पहुंचाएगा, शासन और प्रशासन को इसकी समझ होनी चाहिए. केंद्र सरकार के तीन कृषि कानूनों से ये आढ़तियों की कष्टप्रद कड़ी भी प्रभावित हो रही थी. जिसका नतीजा क्या हुआ, ये सबने देखा.
विपक्ष ने सिर्फ विरोध किया, संशोधन के लिए सिर खपाने की जरूरत नहीं समझी
केंद्र सरकार की नीतियों का विरोध करना विपक्ष की मजबूरी होती है. लेकिन विपक्ष को ये नहीं मान लेना चाहिए कि लोकतंत्र के मंदिर ने उनकी ललाट पर 'धुर-विरोध' का अमिट टीका ही छाप रखा है. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने संसद में तीन कृषि कानूनों को पानी पी पीकर कोसा. मोदी-शाह और अडाणी-अंबानी को लेकर 'हम दो-हमारे दो' का नारा भी उछाला. दरअसल 'हम तीन, हमारी पूरी कांग्रेस' की थ्योरी में उलझे गांधी परिवार की राजनीति इंदिरा-राजीव के दौर के जुमलों-मुहावरों से आगे ही नहीं बढ़ पा रही है. जिस जोड़ी को राहुल गांधी हम दो कहते हैं, वो दोबारा जनादेश लेकर शीर्ष नेतृत्व में पहुंचे हैं.
राहुल गांधी जिस अडाणी-अंबानी को हमारे दो कह रहे हैं, वो देश की तरक्की के लिए महत्वपूर्ण कड़ी हो सकते हैं. ऐसा माहौल बना दिया गया कि दो कारोबारियों के हाथों में देश बिक जाएगा. दो ईस्ट इंडिया कंपनी 14 करोड़ किसान परिवारों यानी करीब 70 करोड़ किसानों को जकड़ लेंगे, चाबुक चलाएंगे, जूते के तलवे चटवाएंगे. विपक्ष खुद सोचे- क्या देश के किसी भी दो इंसानों में इतनी कुव्वत है? बेहतर होता कि तीन कृषि कानूनों के संशोधन में विपक्ष सिर खपाता. अगर नहीं समझ आ रहा था तो कानून को लागू हो जाने देता, कानून के दुष्परिणाम सामने आने पर प्रचंड शक्ति के साथ सरकार को हिलाता. लेकिन ऐसा नहीं हुआ और अब सवाल उठ रहा है कि आगे क्या करना चाहिए?
5 राज्यों का जनादेश क्या आगे बढ़ने का संदेश है?
इस तथाकथित किसान आंदोलन ने पंजाब और हरियाणा के किसानों को मथ दिया. ऐसे में कांग्रेस के रणनीतिकारों को ये जरूर लगा होगा कि पंजाब तो पहले से उनका है, इस बार वो उत्तर प्रदेश को भी खींच लाएंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. बचा खुचा पंजाब भी कांग्रेस के हाथ से खिसक गया और आम आदमी पार्टी की झोली में चला गया. उत्तर प्रदेश में बीजेपी प्रचंड बहुमत से निकली, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में भी जनादेश केसरिया रंग में रंगकर निकला. क्या इसे मान लिया जाए कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने तीन कृषि कानूनों पर जो डिलीट का बटन दबाया था, उसे जनता ने कुछ महीनों के लिए पॉज बटन दबा मानकर एक बार फिर आगे बढ़ने का संदेश दिया है? बीजेपी के लिए पांच में से चार राज्यों में जीत, किसानों के बिना संभव नहीं था. लिहाजा इस जनादेश में ये संदेश भी छिपा हो सकता है कि कृषि कानूनों की फाइल एक बार फिर खोली जानी चाहिए. अब तक के अनुभव के आधार पर उसमें संशोधन होना चाहिए. और कृषि क्षेत्र में क्रांति के लिए आगे बढ़ना चाहिए.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
Next Story