सम्पादकीय

समर्थन मूल्य का विकल्प

Rani Sahu
13 Dec 2021 6:52 PM GMT
समर्थन मूल्य का विकल्प
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किसान और सरकार दोनों ही चाहते हैं कि किसान की आय में तीव्र वृद्धि हो

किसान और सरकार दोनों ही चाहते हैं कि किसान की आय में तीव्र वृद्धि हो। लेकिन इस वृद्धि को कैसे हासिल किया जाए, इस पर दोनों में मतभेद हैं। किसानों का कहना है कि समर्थन मूल्य को कानूनी दर्जा देने से उन्हें अपने प्रमुख उत्पादों का उचित मूल्य मिल जाएगा और तदनुसार उनकी आय भी बढ़ेगी। दूसरी तरफ सरकार का कहना है कि समर्थन मूल्य को कानूनी दर्जा देने से सरकार के लिए अनिवार्य हो जाएगा कि चिन्हित फसलों का जितना भी उत्पादन हो, उसे सरकार को खरीदना होगा। ऐसे में धान, गन्ना अथवा गेहूं जैसी फसलों का उत्पादन बढ़ेगा, परंतु इस बढ़े हुए उत्पादन की खपत देश में नहीं हो सकती है। इसलिए इनका निर्यात करना होगा जिससे कि सरकार पर दोहरा बोझ पड़ेगा। पहले इन फसलों को महंगा खरीदना होगा और उसके बाद इन्हें विश्व बाजार में सस्ता बेचना होगा। इसलिए यद्यपि समर्थन मूल्य से किसान की आय में वृद्धि होगी, परंतु उससे देश पर आर्थिक बोझ बढ़ेगा और संपूर्ण देश की आय में गिरावट आएगी

इसलिए सरकार समर्थन मूल्य को कानूनी दर्जा देने से कतरा रही है। मूल बात यह है कि समर्थन मूल्य से किसान की आय में वृद्धि होती है, जबकि देश की आय में गिरावट आती है। इस अंतर्विरोध को हल करना जरूरी है। किसान के हित और देश के हित को एक साथ हासिल करने का रास्ता हमें खोजना पड़ेगा। खाद्यान्नों के अधिक उत्पादन से देश हित की हानि कैसे होती है, इसे समझना जरूरी है। जब सरकार विशेष फसलों को समर्थन मूल्य देती है तो किसानों द्वारा उन फसलों का उत्पादन अधिकाधिक किया जाता है, जैसे वर्तमान में गन्ने का उत्पादन अधिक किया जा रहा है। इस अतरिक्त गन्ने से बनी चीनी की खपत देश में नहीं हो पाती है। इसलिए सरकार को इसे निर्यात करना पड़ता है, जैसे वर्तमान में हम गन्ने के समर्थन मूल्य को ऊंचा रखने के कारण गन्ने चीनी का उत्पादन अधिक कर रहे हैं और उस चीनी का निर्यात कर रहे हैं। इस स्थिति में सरकार को इन फसलों के उत्पादन में बिजली, पानी, फर्टिलाइजर पर सबसिडी देनी पड़ती है और इस सबसिडी के बल पर उत्पादित माल को महंगा खरीदना पड़ता है और अंत में उसे सस्ते मूल्य पर विश्व बाजार में बेचना पड़ता है, जिससे कि सरकार को दोहरा घाटा लगता है। एक तरफ सबसिडी देनी पड़ती है और दूसरी तरफ महंगी खरीद को सस्ते में बेच कर घाटा बर्दाश्त करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त इस प्रक्रिया में हमारे पर्यावरण की भी हानि होती है। जैसे धान और गन्ने की फसल के उत्पादन में पानी की भारी खपत होती है। पंजाब और उत्तर प्रदेश जैसे प्रदेशों में भूमिगत जल का स्तर नीचे गिरता जा रहा है और देश को गहरी भूमि से पानी निकालने में अतिरिक्त ऊर्जा का अनायास व्यय करना पड़ता है।
इसलिए समर्थन मूल्य पर पुनर्विचार जरूरी है। इससे यदि किसान की आय में वृद्धि हो तो भी देश पर आर्थिक बोझ पड़ता है एवं पर्यावरण की हानि होती है। इस परिस्थिति में हमें ऐसा उपाय खोजना होगा कि देश और किसान दोनों को लाभ हासिल हो। उपाय है कि किसानों को प्रेरित करें कि वे गेहूं, धान और गन्ने की अधिक पानी की खपत करने वाली फसलों को त्याग कर कीमती फसलों के उत्पादन की ओर उन्मुख हों। जैसे केरल में काली मिर्च और रबड़, कर्नाटक में रेशम, महाराष्ट्र में केला और प्याज, आंध्र में पाम, बिहार में पान, उड़ीसा में हल्दी और उत्तर प्रदेश में आम आदि उच्च कीमतों की फसलों की खेती होती है। इसे और अधिक बढ़ाया जा सकता है। इसी प्रकार वैश्विक स्तर पर टुनीशिया जैसे छोटे देश में जैतून की खेती होती है, नीदरलैंड में ट्यूलिप के फूल, साउदी अरब में खजूर और अमरीका में अखरोट की खेती होती है। इन देशों में कृषि कर्मी को एक दिन का लगभग 12 हजार रुपए का वेतन मिलता है क्योंकि इन फसलों का उत्पादन विश्व के चिन्हित देशों मात्र में होता है। ये देश इन फसलों का अधिकाधिक मूल्य वसूल कर पाते हैं।
इसलिए सरकार को चाहिए कि एक महत्त्वाकांक्षी योजना बनाए जिसमें देश के हर जिले में उस स्थान की जलवायु में उत्पादित होने वाली उच्च मूल्य की फसल पर अनुसंधान किया जाए। मुझे बताया गया कि किसी समय अयोध्या से भिंडी का भारी मात्रा में निर्यात किया जाता था। वर्तमान में वहां से लोबिया देश के तमाम हिस्सों को भेजा जाता है। यदि सरकार इन उच्च मूल्य की फसलों का विस्तार करे तो किसानों को इनके उत्पादन में सहज ही ऊंची आय मिलने लगेगी और उनका गेहूं, धान और गन्ने के समर्थन मूल्य का मोह स्वयं जाता रहेगा। हमारे देश की विशेष उपलब्धि यह है कि हमारे यहां कश्मीर से कन्याकुमारी तक बारहों महीने हर प्रकार की जलवायु उपलब्ध रहती है। जैसे गुलाब और ट्यूलिप के फूल सर्दियों में दक्षिण में और गर्मी के मौसम में उत्तरी पहाड़ों में उत्पन्न किए जा सकते हैं। इन फसलों का हम बारहों महीने विश्व को निर्यात कर सकते हैं। मेरे संज्ञान में विश्व के किसी भी देश के पास इस प्रकार की लचीली जलवायु उपलब्ध नहीं है। समस्या यह है कि हमारी कृषि अनुसंधानशालाओं और विश्वविद्यालयों में रिसर्च करने का वातावरण उपलब्ध नहीं है।
इन संस्थाओं में वैज्ञानिकों के वेतन सुनिश्चित हैं। वे रिसर्च करें या न करें, इससे उनकी जीविका पर आंच नहीं आती है। वे पूर्णतया सुरक्षित हैं। इनका कार्य सिर्फ यह रह गया है कि 10 परचे पढ़कर उनके अंशों को कट एंड पेस्ट करके नए पर्चे बनाना और उसे फर्जी पत्रिकाओं में प्रकाशित करना जिससे कि उनके बायोडेटा में प्रकाशनों की लंबी लिस्ट लग जाए। अतः सरकार को चाहिए कि इन अनुसंधानशालाओं के कर्मियों को सुरक्षित वेतन देना बंद करके हर जिले की जलवायु के उपयुक्त रिसर्च के लिए खुले ठेके दे जिसमें निजी और सरकारी प्रयोगशालाएं आपस में प्रतिस्पर्धा में आएं। तब देश के हर जिले के अनुरूप उच्च कीमत की फसल का हम उत्पादन कर सकेंगे और किसान को सहज ही बाजार से ऊंची आय मिलेगी, जैसा कि फ्रांस के कर्मी को 12 हजार रुपए प्रति दिन मिल जाते हैं। ऐसे में किसान को समर्थन मूल्य की आवश्यकता नहीं रह जाएगी, साथ ही हमारा पर्यावरण भी सुरक्षित होगा। हमें अपनी जलवायु की संपन्नता का लाभ अवश्य लेना चाहिए।
भरत झुनझुनवाला
आर्थिक विश्लेषक
ईमेलः [email protected]
Rani Sahu

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