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हॉलीवुड ने महान फिल्मकार सत्यजीत रॉय की फिल्मों को फ्रेम दर फ्रेम दुरुस्त किया है
जयप्रकाश चौकसे। हॉलीवुड ने महान फिल्मकार सत्यजीत रॉय की फिल्मों को फ्रेम दर फ्रेम दुरुस्त किया है। इस कार्य को फिल्म का रीस्टोरेशन और प्रिजर्वेशन कहा जाता है। सत्यजीत रॉय की शर्मिला टैगोर अभिनीत फिल्म 'देवी' को अक्टूबर में होम वीडियो क्षेत्र में प्रदर्शित किया जाने वाला है। भारत में इस तरह का काम शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर करते रहे हैं। ज्ञातव्य है कि हमने अपने महलों और किलों की देखभाल नहीं की। पुरातन की रक्षा नहीं करने वाले भविष्य के लिए वर्तमान में बड़ा परिश्रम कर रहे हैं।
बहरहाल, शर्मिला टैगोर अपनी फिल्म 'देवी' को अपना श्रेष्ठ प्रयास मानती हैं। 'देवी' का कथासार इस तरह है कि धनाढ्य व्यक्ति ने अपने सपने में देखा कि उनकी छोटी बहू मां दुर्गा का अवतार है। अगले दिन उन्होंने अपनी बहू को घर के पूजा स्थान में साक्षात देवी की तरह बैठा दिया। उसके पति को भी आदेश दिया कि अपनी देवी स्वरूप पत्नी को प्रणाम करे।
उससे आशीर्वाद पाए। वह बेचारा अपनी पत्नी के साथ साधारण एवं स्वाभाविक जीवन जीना चाहता है। सुबह-शाम देवी की आरती की जाती है। सभी प्रसाद ग्रहण करते हैं। अत: बड़े-बड़े भव्य महलों के तलघर में अंधविश्वास के जाले लग जाते हैं और कुरीतियों के चमगादड़ वहां लटके रहते हैं।
गौरतलब है कि खाकसार के पुराने मित्र श्याम राजपाल के पुत्र जयेश राजपाल ने निर्देशक मनोज ठक्कर के साथ मिलकर 'मनस्वी' नामक फिल्म में अघोरी पंथ के मानने वालों पर फिल्म बनाई है। वर्तमान में इसका लोप हो चुका है। यह अघोर पंथ भी उजियारे प्रार्थना स्थल के अंधकार से भरे तलघर का विवरण है।
हमारे यहां किसी दौर में श्मशान को केंद्र में रखकर फिल्में बनी हैं। प्राय: लोग श्मशान भूमि से दूरी बनाए रखते हैं। केवल शव दाह के लिए ही आते हैं। राज कपूर की 'राम तेरी गंगा मैली' में एक महिला गुंडों से बचने के लिए श्मशान स्थल पर छुप जाती है। वहां नियुक्त कर्मचारी उससे पूछता है कि क्या उसे मुर्दों से डर नहीं लगता? वह जवाब देती है। बाबा मुर्दे से क्या डरना उसे तो जीवित लोगों से डर लगता है। जीवित लोग तो दुष्कर्म करने पर आमादा रहते हैं।
शत्रुघ्न सिन्हा अभिनीत फिल्म में प्रस्तुत है कि उम्रदराज मृत व्यक्ति की युवा पत्नी को पति के साथ सती होने के लिए लाया गया है। प्राय: युवा विधवा को इसके लिए श्मशान में अफीम चटाकर लाया जाता ताकि वह प्रतिरोध न कर सके। बहरहाल, जलती चिता से शव में हलचल होती है लगता है मुर्दा खड़ा होने वाला है।
यह आभास होते ही दाह कर्म के लिए आए हुए लोग भाग जाते हैं। दरअसल संभवत: चिता की किसी लकड़ी के कारण मुर्दा उठंग हो गया था। असल में वह मृत ही है। लोगों के वहां से भाग जाने के बाद शत्रुघ्न सिन्हा अभिनीत पात्र सती बनाने के लिए लाई गई स्त्री की सेवा करके उसे भला-चंगा कर देता है। फिर उनकी प्रेम कथा प्रस्तुत की गई है।
सत्यजीत रॉय ने 'देवी' फिल्म में स्पन दृश्य में महिला के माथे पर लगे लाल टीके पर फोकस किया था। कहानी में उस देवी का लाडला देवर बीमार पड़ता है और उसे स्वस्थ करने के लिए उसे देवी की गोद में लिटाते हैं। अगर उसका सही तरीके से इलाज करवाते तो बालक बचाया जा सकता था परंतु अंधविश्वास ने उसके प्राण ले लिए, तब जाकर देवी का भ्रम मिटता है।
जाने क्यों कुरीतियां और अंधविश्वास हमेशा कायम रहते हैं? स्वस्थ परंपराओं की आयु कम क्यों है? शैलेंद्र का गीत है, 'मोह मन मोहे, लोभ ललचाए कैसे-कैसे ये नाग लहराए इससे पहले कि दिल उधर जाए मैं तो मर जाऊं, क्यूं न मर जाऊं न मैं धन चाहूं, न रतन चाहूं तेरे चरणों की धूल मिल जाए तो मैं तर जाऊं, श्याम तर जाऊं, हे राम तर जाऊं'।हॉ लीवुड ने महान फिल्मकार सत्यजीत रॉय की फिल्मों को फ्रेम दर फ्रेम दुरुस्त किया है। इस कार्य को फिल्म का रीस्टोरेशन और प्रिजर्वेशन कहा जाता है। सत्यजीत रॉय की शर्मिला टैगोर अभिनीत फिल्म 'देवी' को अक्टूबर में होम वीडियो क्षेत्र में प्रदर्शित किया जाने वाला है। भारत में इस तरह का काम शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर करते रहे हैं। ज्ञातव्य है कि हमने अपने महलों और किलों की देखभाल नहीं की। पुरातन की रक्षा नहीं करने वाले भविष्य के लिए वर्तमान में बड़ा परिश्रम कर रहे हैं। बहरहाल, शर्मिला टैगोर अपनी फिल्म 'देवी' को अपना श्रेष्ठ प्रयास मानती हैं। 'देवी' का कथासार इस तरह है कि धनाढ्य व्यक्ति ने अपने सपने में देखा कि उनकी छोटी बहू मां दुर्गा का अवतार है। अगले दिन उन्होंने अपनी बहू को घर के पूजा स्थान में साक्षात देवी की तरह बैठा दिया। उसके पति को भी आदेश दिया कि अपनी देवी स्वरूप पत्नी को प्रणाम करे। उससे आशीर्वाद पाए। वह बेचारा अपनी पत्नी के साथ साधारण एवं स्वाभाविक जीवन जीना चाहता है। सुबह-शाम देवी की आरती की जाती है। सभी प्रसाद ग्रहण करते हैं। अत: बड़े-बड़े भव्य महलों के तलघर में अंधविश्वास के जाले लग जाते हैं और कुरीतियों के चमगादड़ वहां लटके रहते हैं। गौरतलब है कि खाकसार के पुराने मित्र श्याम राजपाल के पुत्र जयेश राजपाल ने निर्देशक मनोज ठक्कर के साथ मिलकर 'मनस्वी' नामक फिल्म में अघोरी पंथ के मानने वालों पर फिल्म बनाई है। वर्तमान में इसका लोप हो चुका है। यह अघोर पंथ भी उजियारे प्रार्थना स्थल के अंधकार से भरे तलघर का विवरण है। हमारे यहां किसी दौर में श्मशान को केंद्र में रखकर फिल्में बनी हैं। प्राय: लोग श्मशान भूमि से दूरी बनाए रखते हैं। केवल शव दाह के लिए ही आते हैं। राज कपूर की 'राम तेरी गंगा मैली' में एक महिला गुंडों से बचने के लिए श्मशान स्थल पर छुप जाती है। वहां नियुक्त कर्मचारी उससे पूछता है कि क्या उसे मुर्दों से डर नहीं लगता? वह जवाब देती है। बाबा मुर्दे से क्या डरना उसे तो जीवित लोगों से डर लगता है। जीवित लोग तो दुष्कर्म करने पर आमादा रहते हैं। शत्रुघ्न सिन्हा अभिनीत फिल्म में प्रस्तुत है कि उम्रदराज मृत व्यक्ति की युवा पत्नी को पति के साथ सती होने के लिए लाया गया है। प्राय: युवा विधवा को इसके लिए श्मशान में अफीम चटाकर लाया जाता ताकि वह प्रतिरोध न कर सके। बहरहाल, जलती चिता से शव में हलचल होती है लगता है मुर्दा खड़ा होने वाला है। यह आभास होते ही दाह कर्म के लिए आए हुए लोग भाग जाते हैं। दरअसल संभवत: चिता की किसी लकड़ी के कारण मुर्दा उठंग हो गया था। असल में वह मृत ही है। लोगों के वहां से भाग जाने के बाद शत्रुघ्न सिन्हा अभिनीत पात्र सती बनाने के लिए लाई गई स्त्री की सेवा करके उसे भला-चंगा कर देता है। फिर उनकी प्रेम कथा प्रस्तुत की गई है। सत्यजीत रॉय ने 'देवी' फिल्म में स्पन दृश्य में महिला के माथे पर लगे लाल टीके पर फोकस किया था। कहानी में उस देवी का लाडला देवर बीमार पड़ता है और उसे स्वस्थ करने के लिए उसे देवी की गोद में लिटाते हैं। अगर उसका सही तरीके से इलाज करवाते तो बालक बचाया जा सकता था परंतु अंधविश्वास ने उसके प्राण ले लिए, तब जाकर देवी का भ्रम मिटता है। जाने क्यों कुरीतियां और अंधविश्वास हमेशा कायम रहते हैं? स्वस्थ परंपराओं की आयु कम क्यों है? शैलेंद्र का गीत है, 'मोह मन मोहे, लोभ ललचाए कैसे-कैसे ये नाग लहराए इससे पहले कि दिल उधर जाए मैं तो मर जाऊं, क्यूं न मर जाऊं न मैं धन चाहूं, न रतन चाहूं तेरे चरणों की धूल मिल जाए तो मैं तर जाऊं, श्याम तर जाऊं, हे राम तर जाऊं'।
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