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सियासत की पिच पर बीते दो शनिवार में दो मुख्यमंत्रियों ने इस्तीफा दिया. पहले गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी (Vijay Rupani), जिनका इस्तीफा बेहद शांति से हुआ
अभिषेक कुमार नीलमणि। सियासत की पिच पर बीते दो शनिवार में दो मुख्यमंत्रियों ने इस्तीफा दिया. पहले गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी (Vijay Rupani), जिनका इस्तीफा बेहद शांति से हुआ. उन्होंने पार्टी से कोई मतभेद नहीं बताया. दूसरे पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह (Captain Amarinder Singh). इस्तीफा देकर राजभवन से बाहर आते ही, कांग्रेस हाईकमान पर अपमानित करने का आरोप मढ़ दिया. कैप्टन का गुस्सा ऐसा कि उन्होंने साफ साफ तंज भरे लहजे में कहा, 'पार्टी जिसे चाहे मुख्यमंत्री बनाए, मुझे फर्क नहीं पड़ता.'
हालांकि थोड़ी ही देर बाद, कैप्टन अमरिंदर सिंह ने एक चुनौती और दे डाली कि अगर सिद्धू को बनाएंगे तो विरोध में खड़ा हो जाऊंगा. कैप्टन तो कैप्टन ठहरे, पुराने मंजे हुए राजनीतिक खिलाड़ी, यहां कहां रुकने वाले थे. सिद्धू से ऐसे खफा थे कि पूरी मीडिया के सामने कह दिया कि इमरान और बाजवा के सिद्धू ही दोस्त हैं. इशारा किस ओर था, आज के दौर में आप समझ सकते हैं. एक तरफ कैप्टन थे. दूसरी छोर पर गुरु यानि सिद्धू. जो खेलना फ्रंटफुट पर ही जानते थे, लिहाजा शॉट सिक्सर ही मारा. मगर जीत होगी या नहीं ये वक्त बताएगा.
पंजाब में 6 महीने बाद चुनाव है. कांग्रेस से किनारा कर चुके कैप्टन का कद और पद दोनों ही पंजाब में बड़ा है और शायद रहेगा. कांग्रेस इसे गंवा चुकी है. कांग्रेस को नवजोत सिद्धू पर भरोसा हो गया. कैप्टन कांग्रेस को चेतावनी दे चुके हैं, अगर सिद्धू को मुख्यमंत्री बनाया गया तो पंजाब का सर्वनाश हो जाएगा. आखिर गुरु के साथ कैप्टन के रिश्तों में इतनी कड़वाहट आई क्यों? क्या कुर्सी के मोहपाश में दो सरदार आपस में सियासी वार के लिए तैयार हो गए? इस राजनीतिक विद्वेष का अगर सबसे ज्यादा खामियाजा कोई भुगतेगा तो वो है कांग्रेस. शायद कांग्रेस को इसका अंदाजा ना हो. पर जल्द ही असर नजर आने लगेगा.
राजनीति में कभी कोई दुश्मन नहीं होता?
सियासत की एक सच्चाई और है, यहां ना कोई दुश्मन होता है और शायद ना ही कोई दोस्त. जिसके हाथ में बाजी होती है, वही बाजीगर होता है. कैप्टन को सिद्धू भले ही हिट विकेट करके खुश हो रहे हो. मगर अमरिंदर सिंह ने जो पिच बनाई है, उस पिच पर सिद्धू या कांग्रेस का कोई भी अगला मुख्यमंत्री सियासी बाजी खेल पाने में फंसेगा. कैप्टन का इशारा साफ है, जो उनके साथ हुआ है. वो आगे सबके साथ होगा. दरअसल अमरिंदर सिंह का दावा है कि पंजाब के 25 विधायक उनके साथ हैं. ऐसे में कांटों भरी मुख्यमंत्री कुर्सी कोई भी संभाले, कांग्रेस के भीतर जो असंतोष है, वो आगे भी बरकरार रहने वाला है क्योंकि जो कैप्टन का है, वो अब कांग्रेस या सिद्धू का नहीं हो सकता.
ऐसे में भारतीय जनता पार्टी भी मौके की तलाश में है. खबर है कि पंजाब पॉलिटिक्स पर दिल्ली से नजर बनाया गया है. नजर ऐसी वैसी नहीं बल्कि गंभीर वाली. बीजेपी को ऐसी उम्मीद है कि कैप्टन की सवारी संभव है. कैप्टन को बीजेपी में शामिल किया जा सकता है. अमरिंदर सिंह की भी बीजेपी से कोई खास अदावत रही नहीं है. 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले भी जब कैप्टन को कांग्रेस अनदेखा कर रही थी, तो खबर आई कि वो बीजेपी में जाने का मन बना चुके हैं. कांग्रेस समझ चुकी थी कि अगर ऐसा हुआ तो पंजाब भी उनके हाथ से निकल जाएगा. लिहाजा, 'गांधी हाईकमान' झुका और कैप्टन को कमान सौंप दी.
जीत का परचम लहराकर अमरिंदर सिंह ने भी बता दिया कि भले ही उम्र के 80वें साल में वो एंट्री ले चुके हैं. पर सोच-समझ और सियासी तकनीक में उनका कोई मुकाबला नहीं है. अमरिंदर सिंह का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह से भी नजदीकी रिश्ता है. दिल्ली जब भी आना हुआ है, 7 लोककल्याण मार्ग में कैप्टन की डायरेक्ट एंट्री होती है. कैप्टन ने भी कह दिया है, विकल्प तमाम खुले हैं. बस दोस्तों और परिवारवालों से विचारगोष्ठी जारी है.
क्या सियासत में संन्यास शब्द के मायने नहीं है?
मतलब ये साफ है, कि कैप्टन ने हार नहीं मानी है. सियासी पारी खेलने को वो पूरी तरह से तैयार हैं. राजनीति से संन्यास का तो सवाल ही नहीं उठता है. शायद राजनीति में संन्यास शब्द के मायने ही नहीं हैं. क्योंकि एक बार जो यहां एंट्री लेता है, मानो उसके खून में ही पॉलिटिक्स दौड़ने लगती है. इसका सबसे नया ताजा और जीता जागता उदाहरण बने बाबुल सुप्रियो. कमल का फूल छोड़े तो कहा कि राजनीति से संन्यास ले रहा हूं. मगर फिर ना जाने कौन से दोस्तों ने उन्हें समझाया-बुझाया कि संन्यास शब्द को अपनी डिक्शनरी से मिटाकर तृणमूल का दामन थाम लिया.
जिस ममता बनर्जी को Cruel Lady करार दिया था. आज उन्हें बंगाल की जनता का प्यार बता डाला. सोशल मीडिया पर लोगों ने बाबुल से पूछा, अच्छा हुआ कि आप टीएमसी में शामिल हो गए. क्योंकि अब आपकी कार पर पत्थर नहीं फेंके जाएंगे. बंगाल को दीदी को बाबुल का साथ मिल चुका है. इससे पहले मुकुल रॉय भी ममता बनर्जी के घरौंदे में वापसी कर चुके थे. मतलब बंगाल को एक बार फिर से दीदी ने अभेद्य किला बना दिया है.
वैसे बीजेपी इस किले में अभी सेंध लगाने की कोशिश कर भी नहीं रही. उनका फोकस तो वहां है, जहां अगले 6 महीने में विधानसभा चुनाव होने हैं. भारतीय जनता पार्टी ने बीते 6 महीने में 5 मुख्यमंत्री बदल डाले. मगर किसी ने उफ्फ तक नहीं की. ऐसा नहीं कि जिनसे कुर्सी छीनी गई है, उन्हें मलाल नहीं होगा. मगर बीजेपी ने भी एक ऐसा अभेद्य किला बना रखा है, जहां विरोध की गुंजाइश ना के बराबर होती है. फैसलों पर हमेशा सहमति ही जताई जाती है. फिलहाल मोदी और शाह की पूरी टीम पंजाब को निहार रही है. कैप्टन के करीब जा रही है. साथ ही एक और राज्य में मास्टर स्ट्रोक लगाने की तैयारी कर रही है. अब देखना है कि क्या बीजेपी इस पिच पर भगवा झंडा लहराने में कामयाब होती है या नहीं ? क्योंकि ये सियासत है. जहां नेता नेतागीरी से संन्यास नहीं लेते बल्कि दमखम के साथ आखिरी वक्त तक गेंद को बाउंड्री के पार करने की जुगत में लगे रहते हैं.
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