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ट्विंकल तोमर सिंह; एक बच्चा जब पहले-पहल साइकिल चलाना सीखता है, तो उसके अंदर भय होता है। थोड़ा-थोड़ा पैडल मार कर वह उतर जाता है। उसे साइकिल के पहियों से अधिक अपने पैरों पर भरोसा होता है। साइकिल सीखने वाले बच्चों का मनोबल बढ़ाने के लिए अकसर कहा जाता है कि बिना गिरे, बिना चोट खाए कोई साइकिल चलाना नहीं सीख सकता। यह युक्ति बहुत मनोवैज्ञानिक, सकारात्मक असर करती है। बच्चा इस तथ्य को स्वीकार कर लेता है। एक-दो बार गिरने के बाद साइकिल चलाना सीख जाता है।
हममें से कई लोगों को अपने पैरों के बल सुरक्षित जमीन पर खड़े रहना इतना सुविधाजनक लगता है कि किसी पहिए के बल चल कर देखना ही नहीं चाहते। उन्हें इस बात का कोई प्रलोभन नहीं कि पहिए से जीवन में गति बढ़ जाएगी। उन्होंने स्वयं को अपनी बनाई एक सुरक्षित सीमा के अंदर बांध लिया है। उन्हें एक सुरक्षित खोल के अंदर दुबके रहना पसंद होता है। उनका मन एक ऐसी लक्ष्मण रेखा खींच देता है कि उन्हें लगता है कि इस सुरक्षित सीमा-रेखा के बाहर कोई प्रलंयकारी रावण उनकी प्रतीक्षा कर रहा है।
एक सुरक्षित खोल के भीतर बहुत अधिक समय रहना हमें अंतर्मुखी और रक्षात्मक प्रवृत्ति वाला व्यक्ति बना देता है। ऐसे लोग अपनी लक्ष्मण रेखा के बाहर कदम रखना ही नहीं चाहते। जो मिला, जितना मिला, उसी में संतोष कर लेना जीवन का मूलमंत्र बना लेते हैं। संतोषी जीवन में कोई बुराई नहीं, पर तभी जब बात धन, प्रसिद्धि, वैभव की हो। आत्मा का विकास, व्यक्तित्व का विकास बाधित कर लेना, कहां तक उचित है? नई चुनौतियां अपने अंदर छिपे किस गुण को निखार देंगी, हमें स्वयं ही नहीं पता होता। न्यूटन का गति का प्रथम नियम है कि प्रत्येक पिंड या वस्तु अपनी विराम अवस्था या एक समान रेखीय गति की अवस्था में तब रहता है, जब तक उस पर कोई बाहरी बल नहीं लगाया जाता। क्या हम निर्जीव पिंड हैं? हमें कोई बाह्य बल इसलिए नहीं चाहिए कि वह हमारी अवस्था में परिवर्तन कर देगा?
प्रसिद्ध अभिनेता अर्नाल्ड श्वार्जनेगर, जो कि कैलिफोर्निया के गवर्नर भी रहे, ने कहा है- 'आप अपनी जेब में हाथ डाल कर सफलता की सीढ़ी नहीं चढ़ सकते।' हम जीवन में कुछ भी नया करते हैं, तो उससे कुछ न कुछ सीख रहे होते हैं। अगर आप कार्य में पूर्णत: विफल रहते हैं तो यह जानिए कि विफलता जितना बड़ा कठोर गुरु कोई नहीं हुआ। बिना सिखाए वह आपको आगे बढ़ने ही नहीं देगा। वहीं दूसरी ओर सफलता मिलने पर आप कार्यों को और परिष्कृत करने का ढंग सीखते हैं। निरंतर सफलता के कुछ दोष भी हैं। निरंतर सफलता मद लाती है, अति आत्मविश्वास को जन्म देती है और अंत में अंधा बना देती है। अंधा होने के बाद अगर ठोकर लगती है, तो उससे भी एक सीख मिलती है। प्रगतिपथ पर त्रुटियां अवश्यंभावी हैं। हम विकसित होते हैं, चाहे सफल रहें या विफल।
प्रकृति में कुछ प्राणियों को शीत निष्क्रियता में जाना पड़ता है। वे अपने को गर्म रखने के लिए एक सुरक्षित स्थान पर चले जाते हैं। उसी प्रकार मनुष्य एक सुखद निष्क्रियता का आदी हो जाता है। उसे लगता है, जितना श्रम करना था, कर लिया, अब एक सुरक्षित नींद को भोगा जाए। पर याद रखिए, नींद में कोई विकास नहीं होता है।
अध्यापक कक्ष में भाषा के दो शिक्षकों के बीच पाठ्यक्रम में बदलाव को लेकर बातचीत हो रही थी। एक शिक्षक पाठ्यक्रम बदलने से बेहद दुखी थे। उनका कहना था कि दस सालों से वे जिन पाठों को पढ़ा रहे थे, वे उन्हें मुंहजबानी याद हो गए थे। बिना पुस्तक खोले भी धाराप्रवाह उन पाठों को पढ़ा सकते थे। पाठ्यक्रम बदलना मात्र शिक्षकों को परेशान करने के चोचले हैं। कल तक जिस पाठ से छात्र शिक्षा ग्रहण कर रहे थे, आज वे बेकार कैसे हो गए? दूसरे शिक्षक का मत था कि पाठ्यक्रम को समय-समय पर बदलते ही रहना चाहिए। इससे विद्यार्थियों के साथ-साथ हम शिक्षकों को भी नई चीजें पढ़ने को मिलती हैं। शिक्षक के ज्ञान का विकास होता है।… अब आप किसकी बात को सही ठहराएंगे?
कई लोग नई चुनौतियां इसलिए भी नहीं लेते कि उन्हें लगता है, वे इतने योग्य नहीं हैं कि किसी नए काम को हाथ में ले सकें। शायद आप बहुत प्रतिभाशाली न हों और दूसरे का अनुसरण करना आपके जीवन का लक्ष्य भी न हो, पर सबसे महत्त्वपूर्ण है स्वयं को यह याद दिलाना कि जो थोड़ी-सी भी प्रतिभा आपके पास है, उसे विकसित करने का पूरा उत्तरदायित्व आपके पास ही है। बेंजामिन फ्रेंकलिन ने कितनी सुंदर बात कही है- 'अपनी प्रतिभा पर आवरण मत डालो, वे उपयोग के लिए दिए गए थे। छाए में धूपघड़ी का क्या कार्य है?' बस यही तो समझना है।