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आखिरकार साम्राज्य ने पलटवार किया है.
आखिरकार साम्राज्य ने पलटवार किया है. ब्रिटेन के मौजूदा कैप्टन किर्क- प्रधानमंत्री ऋषि सुनक- प्रवासन नीति को दुरुस्त कर अगला चुनाव जीतना चाहते हैं. दंड प्रिय देशभक्तों की अंतिम शरणस्थली विदेशियों को लेकर भय होता है. ब्रिटिश जीवन पद्धति की रक्षा के लिए सुनक ने अवैध प्रवासियों को रोकने और उन्हें वापस भेजने के लिए कानून प्रस्तावित किया है. नया कानून पूर्ववर्ती अवधि से लागू होगा. युद्ध से त्रस्त मध्य-पूर्व के देशों से अवैध प्रवासी इंग्लैंड आकर इस देश को गैर-ईसाई देश बना रहे हैं.
बीते साल आये एक आधिकारिक रिपोर्ट में दावा किया गया था कि आधे से भी कम ब्रिटिश आबादी अपने को ईसाई मानती है. सुनक का कानून उनके देश के बदले धार्मिक और सामाजिक रूप को परिवर्तित करना चाहता है. मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए राष्ट्रवाद की दुहाई देना और पहचान की राजनीति करना बहुत पुराना सूत्र है. सांवली त्वचा वाले ब्रिटेन के नये श्वेत सामंत की आर्थिक नीतियां कारगर नहीं साबित हो रही हैं.
श्वेतों के वर्चस्व वाली कंजरवेटिव पार्टी का उनका नेतृत्व भी ठोस नहीं है. अपने पुराने सरपरस्त और तत्कालीन प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन से किये गये उनके धोखे को जॉनसन के समर्थक भूले नहीं हैं. तकनीक के बड़े उद्यमी नारायण मूर्ति के ताकतवर दामाद यह भी जानते हैं कि ओपिनियन पोल और सोशल इंफ्लुएंसर आप्रवासन को मतदाताओं के लिए तीन बड़े मुद्दों में गिनते हैं. अगर सुनक मध्यावधि चुनाव कराना चाहते हैं, तो राष्ट्रवादी भाषा उनकी कमजोर संभावनाओं को बल दे सकती है.
क्या वे मोदी मॉडल से प्रेरित हैं? भाजपा की बढ़त का आधार नरेंद्र मोदी के करिश्मे, हिंदू पहचान पर जोर और आर्थिक वृद्धि है. सुनक अति दक्षिणपंथी पार्टियों की जीत के यूरोपीय रुझान से भी प्रेरित हैं, जो राष्ट्रीय संस्कृति और धार्मिक चरित्र बचाने की बात करते हैं. मृत साम्राज्य, जिस पर सुनक का शासन है, 20वीं सदी आते-आते दुनिया के एक-चौथाई हिस्से और आबादी पर राज करता था. इसके सांस्कृतिक और सामाजिक वर्चस्व ने सैन्य शक्ति और दूसरों को नीचा समझने वाली घमंडी वर्ग संरचना से विश्व इतिहास को बदल दिया.
ब्रिटिश गर्व के घटते जाने के साथ नस्लभेदी बातें अब नहीं होतीं. सुनक को मतदाताओं को रिझाने के लिए स्वयं को राजा से भी अधिक समर्पित दिखाना होगा. प्रधानमंत्री और उनकी घोर एशिया-विरोधी गृह सचिव की बातें केवल आर्थिक चिंताओं से नहीं निकल रही हैं, बल्कि वे निर्बाध आप्रवासन के सामाजिक परिणाम से भी चिंतित हैं. उनका कहना है कि अपराधी गिरोह तस्करों को पैसा देकर लोगों को यहां ला रहे हैं.
अगर कोई ऐसे आता है, तो उसे या तो उसके देश वापस भेजा जायेगा या रवांडा जैसे सुरक्षित देश में. सुनक ने कहा है कि यह कानून उन पर भी लागू होगा, जो बरसों पहले आये हैं. यह डोनाल्ड ट्रंप के ‘अमेरिका फर्स्ट’ नियम जैसा है. सुनक का दावा है कि अवैध आप्रवासियों को होटल में ठहराने में सरकार हर दिन 60 लाख पाउंड खर्च कर रही है. गृह सचिव ब्रेवरमैन ने कहा कि शरणार्थी तंत्र पर हर साल तीन अरब पाउंड खर्च होता है.
इनके तर्कों का आर्थिक आधार है, पर वे वास्तव में पहचान की राजनीति से प्रेरित हैं. ब्रिटेन की आधी से अधिक आबादी अन्य राष्ट्रीयताओं, जातीयताओं और धार्मिक वर्गों की है. इंग्लैंड के अपने स्व को ऐसी चुनौती कभी नहीं मिली थी. बीते दशक से खासकर मुस्लिम बहुल देशों के लोग वहां बेहतर जीवन की तलाश में आने लगे हैं, पर वे अपने कबीलाई और मध्ययुगीन जातीयता को नहीं छोड़ना चाहते हैं. ऐसा पहली बार हुआ है कि इंग्लैंड अब ईसाई बहुल राष्ट्र नहीं रहा.
अपने को मुस्लिम चिह्नित करने वाली आबादी 2011 में 4.9 प्रतिशत थी, जो 2022 में 6.50 प्रतिशत हो गयी. राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के अनुसार, 2011 में ईसाई आबादी 59.3 प्रतिशत थी, जो घटकर 2021 में 46.2 प्रतिशत हो गयी. अगले कुछ दशकों में कई मुख्य शहरों में मुस्लिम बहुसंख्यक हो जायेंगे. टोरी पार्टी के कुछ नेता हिंदुओं को लेकर बयानबाजी कर रहे हैं, पर ब्रिटेन में दस लाख हिंदू हैं और पांच लाख से कम सिख हैं, जबकि 40 लाख मुस्लिम हैं.
वर्ष 2001 से 2009 के बीच इंग्लैंड में मुस्लिम आबादी गैर-मुस्लिम आबादी की तुलना में लगभग दस गुना अधिक तेजी से बढ़ी है. पहले उदार और अभिजन मुस्लिम वहां जाते थे, जो अपने धर्म का फायदा नहीं उठाते थे. अब उल्टा उपनिवेशीकरण जोरों पर है. ब्रिटेन अकेला देश नहीं है, जहां पश्चिमी एशिया, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से बड़ी संख्या में लोग भाग कर जा रहे हैं. ये शरणार्थी उदार यूरोपीय आप्रवासन नीतियों का लाभ उठाते हैं, पर जैसे ही उन्हें स्थायी निवास मिलता है, वे अपने घुटन भरे सांस्कृतिक मूल्यों की ओर मुड़ जाते हैं.
फ्रांस, जर्मनी, बुल्गारिया और नीदरलैंड में पांच फीसदी मुस्लिम आबादी है, जो सांस्कृतिक रूप से समस्या पैदा करते हैं. जिहादियों की बढ़ती संख्या और अतिवादी मुल्लाओं के जहरीले बयानों के बावजूद ब्रिटेन में मानवाधिकार समर्थक विरोध कर रहे हैं. इनमें संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार उच्चायुक्त वोल्कर टर्क भी शामिल हैं. उन्होंने कहा है कि ऐसा पूर्ण प्रतिबंध अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकारों और शरणार्थी कानून के प्रति ब्रिटेन के उत्तरदायित्व का उल्लंघन होगा, पर सुनक अड़े हुए हैं.
ब्रिटिश मीडिया के एक हिस्से ने संकेत दिया है कि वे यूरोपीय मानवाधिकार समझौते से भी अलग हो सकते हैं. पश्चिम ने ही अपने छद्म उदार मूल्यों को उसकी पहचान को नष्ट करने का अवसर दिया है. उनकी दोहरी कूटनीति ऐतिहासिक रूप से सामने रही है. जब 1971 में पाकिस्तानी सेना के दमन से बांग्लादेशी भागकर भारत आ रहे थे, तो पश्चिम ने उन्हें मानवीय आधार पर शरण देने के लिए भारत पर दबाव डाला था. उसके नेताओं ने रोहिंग्या शरणार्थियों को बर्मा वापस भेजने का विरोध किया.
अब गोरों को घुसपैठियों के सांस्कृतिक कदाचार और आर्थिक अराजकता का सामना करना पड़ रहा है, तो अपना भविष्य बचाने के लिए वे अपने अतीत पर अफसोस कर रहे हैं. भारत ने पहले ही आगाह किया था. किसी भी राष्ट्र को अपनी पहचान को प्राथमिकता देनी चाहिए. द्वितीय विश्व युद्ध से थके गोरे औपनिवेशिक श्रेष्ठता की मृग-मरीचिका को पकड़े रहे और एशिया व अफ्रीका के लाखों प्रवासी श्रमिकों को यूरोप के पुनर्निर्माण के लिए बुलाया. अब साम्राज्य का सूर्य अस्त हो चुका है. लगता है कि सुनक और अन्य यूरोपीय नेता अपनी त्वचा बचाने के लिए ‘प्रवासी और कुत्तों का प्रवेश वर्जित है’ का नारा लगाने वाले हैं. यह बहुत देर से किया गया है.
सोर्स: prabhatkhabar
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