सम्पादकीय

खुदकुशी की कड़ियां

Triveni
22 Dec 2022 4:38 AM GMT
खुदकुशी की कड़ियां
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फाइल फोटो 

करीब तीन साल पहले जब कोरोना ने दस्तक दी थी, तब शुरुआती दौर में यह लगा था कि संकट जल्द ही टल जाएगा।

जनता से रिश्ता वबेडेस्क | करीब तीन साल पहले जब कोरोना ने दस्तक दी थी, तब शुरुआती दौर में यह लगा था कि संकट जल्द ही टल जाएगा। लेकिन महामारी से बचाव के उपायों के तहत लगाई गई पूर्णबंदी जितने वक्त तक लंबी खिंच गई और बाद में भी हालात पूरी तरह सामान्य नहीं हुए, उसका कितना असर देश और समाज पर हुआ, वह छिपा नहीं है।

इस बीच ऐसी खबरें सुर्खियों में नहीं आ सकीं, जिसमें हाशिए के लोगों को कई तरह की त्रासदी से जूझना पड़ा और उसका असर आज भी उनके परिवारों पर कायम है। मसलन, सिर्फ पिछले साल यानी 2021 में देश में रोजाना औसतन एक सौ पंद्रह दिहाड़ी मजदूरों और तिरसठ गृहिणियों ने आत्महत्या की।
मंगलवार को सरकार ने लोकसभा में बताया कि राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के मुताबिक, पिछले साल देश भर में कुल एक लाख चौंसठ हजार तैंतीस लोगों ने खुदकुशी की। साथ ही तेईस हजार एक सौ उनासी गृहणियों और पंद्रह हजार आठ सौ सत्तर पेशवर लोगों के अलावा कई अन्य वर्गों के सैकड़ों लोगों ने अलग-अलग कारणों से अपनी जान दे दी।
जाहिर है, महामारी की मार ने केवल सेहत के मोर्चे पर लोगों के सामने जानलेवा हालात नहीं पैदा किए, बल्कि उससे बचाव के लिए जो तरीके अपनाए गए, उसके असर ने करोड़ों लोगों की जिंदगी को मुश्किल में डाल दिया। पूर्णबंदी की वजह से जब हर तरफ सब कुछ ठप पड़ गया था, तब महज जिंदा रह पाने के लिए रोजाना की मजदूरी पर निर्भर लोगों की लाचारी ने उन्हें अमानवीय परिस्थितियों में झोंकने के साथ-साथ ऐसे हालात भी पैदा किए, जिसमें बहुत सारे लोगों को पेट भरने तक के लिए खर्च और अनाज जुटाना भारी पड़ने लगा। सब कुछ बंद होने की वजह से हर तरफ काम-धंधे खत्म थे और दिहाड़ी करके गुजारा करने वालों को कोई रोजगार नहीं मिल रहा था।
यानी जो लोग कोरोना विषाणु से संक्रमित होकर भी या फिर उसकी जद में आने से बच गए, उनके सामने जीवन चलाने और बचाने तक की चुनौती मुंह बाए खड़ी थी, क्योंकि रोजगार का कोई जरिया आसान नहीं रह गया था। यहां तक कि कर्ज या उधार लेकर काम चलाने के हालात भी मुश्किल हो गए। ऐसी त्रासदी में कमजोर पड़ कर बहुत सारे लोग टूट गए और कोई विकल्प न पाकर कइयों ने खुदकुशी का रास्ता अख्तियार कर लिया।
यह स्थिति केवल मजदूर तबकों तक सीमित नहीं थी, बल्कि हर तरफ छाई नकारात्मक घटनाओं के असर ने व्यवसाय जगत से लेकर अन्य क्षेत्रों को भी बुरी तरह प्रभावित किया। इसमें संदेह नहीं कि विकट परिस्थितियों में सरकार ने मुफ्त अनाज से लेकर कई स्तर पर सहायता मुहैया कराने का दावा किया। लेकिन जरूरत के मुकाबले मदद की सीमा एक व्यापक त्रासदी में फंसे बहुत सारे लोगों की जान बचा पाने में कारगर साबित नहीं हुई।
अभाव और उससे जुड़ी कड़ियों ने आम लोगों के सामने जिस तरह के मानसिक संघर्ष के हालात पैदा किए, उसके दबाव और उसकी पीड़ा को झेल पाना सबके लिए संभव नहीं हुआ। जाहिर है, अब सरकार अगर लोगों की जिंदगी बचाने के नाम पर कोई बड़ा कदम उठाती है तो उसे ध्यान रखना चाहिए कि कहीं उनसे जुड़ी कड़ियों से ही लोगों के सामने जान देने की लाचारगी न पैदा हो। उन वजहों और नीतियों पर भी गौर करने की जरूरत है जिसके असर से पिछले सात सालों में दिहाड़ी मजदूरों की खुदकुशी की संख्या में करीब तीन गुना की बढ़ोतरी हो गई है।

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