सम्पादकीय

गन्ने की कड़वाहट

Subhi
6 Aug 2021 2:30 AM GMT
गन्ने की कड़वाहट
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गन्ना किसानों की पुरानी शिकायत है कि उन्हें समय पर भुगतान नहीं मिल पाता। कई राज्यों में पिछले दो सालों से भुगतान बकाया है। इसे लेकर किसान आंदोलन भी करते रहे हैं।

गन्ना किसानों की पुरानी शिकायत है कि उन्हें समय पर भुगतान नहीं मिल पाता। कई राज्यों में पिछले दो सालों से भुगतान बकाया है। इसे लेकर किसान आंदोलन भी करते रहे हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय में दायर एक याचिका पर पिछले महीने अदालत ने प्रदेश सरकार से इस बारे में जवाब तलब किया। अब सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र और ग्यारह राज्य सरकारों को नोटिस भेजा है। याचिकाकर्ता ने मांग की है कि मिलें चौदह दिनों के भीतर गन्ने का भुगतान करने की व्यवस्था करें। सर्वोच्च न्यायालय ने उस पर सुनवाई करते हुए कहा कि हालांकि इस मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय पहले ही एक आदेश दे चुका है, पर सारे देश के लिए एक व्यवस्था बनाने की जरूरत है। देखना है कि इस पर सरकारों का क्या रुख रहता है। गन्ना बकाये के भुगतान को लेकर सरकारें अदालतों के सामने टालमटोल का रास्ता ही अख्तिायार करती रही हैं। मसलन, उत्तर प्रदेश सरकार का दावा है कि उसने पेराई सत्र 2019-20 का सारा भुगतान कर दिया है और पिछले सत्र का बकाया भुगतान जल्दी करने का आदेश दे दिया गया है। इसी तरह हरियाणा सरकार का भी कहना है कि उसने मिलों को भुगतान के लिए धन आबंटित कर दिया है। इसी तरह महाराष्ट्र जैसे अधिक गन्ना उत्पादक राज्यों में भी यह समस्या गंभीर बनी हुई है।

गन्ना नगदी फसल है, इसलिए किसान इसे इस उम्मीद से उगाते हैं कि उन्हें तुरंत लाभ मिल जाएगा। मगर कई राज्यों में सरकारें मिलों के बीमार और बंद होने का हवाला देकर भुगतान में देरी करती देखी जाती हैं। देश में सहकारी मिलों की दशा निस्संदेह चिंतनीय है। मगर उसकी वजह खुद सरकारों की शिथिलता है। ऐसा नहीं कि देश में चीनी का उत्पादन घट रहा है। मगर चीनी मिलों का समुचित रखरखाव और प्रबंधन न हो पाने की वजह से पेराई सत्र के बीच में ही कई मिलें बंद हो जाती हैं या उन्हें बीमार घोषित करके गन्ने की खरीद रोक दी जाती है। ऐसे में किसानों के सामने परेशानी पैदा हो जाती है कि वे अपने खेत में खड़ी गन्ने की फसल का क्या करें। कई बार ऐसा भी देखा गया है कि मिलों की इस व्यवस्था से नाराज बहुत सारे किसानों ने अपनी खड़ी फसल को आग लगा दी। जबकि इसके बरक्स निजी चीनी मिलें अच्छा कारोबार करती देखी जाती हैं। कई राज्य सरकारें बीमार और बंद चीनी मिलें औने-पौने दाम पर निजी कंपनियों को बेचती रही हैं। यह स्थिति किसी भी रूप में सहकारिता और किसानों के लिए अच्छी नहीं है।

अच्छी बात है कि सर्वोच्च न्यायालय ने गन्ना बकाए की समस्या पर चिंता जाहिर करते हुए सरकारों से जवाब मांगा है। इससे शायद भुगतान को लेकर कोई व्यावहारिक नियम-कायदा बन जाए। किसान खाद, बीज, रसायन, डीजल, निराई-गुड़ाई पर पैसा खर्च करके और मौसम की मार तथा जंगली पशुओं से बचाते हुए फसल तैयार करता है। बहुत सारे किसानों को इसके लिए कर्ज लेना पड़ता है। फिर जब उसे फसल की वाजिब और समय पर कीमत नहीं मिल पाती, तो उसमें निराशा और नाराजगी स्वाभाविक रूप से पैदा होती है। कर्ज के बोझ और गरीबी के चलते बहुत सारे किसान खुदकुशी का रास्ता अपना लेते हैं। इस तरह खेती-किसानी की दशा सुधारने के सरकारी दावे खोखले ही नजर आते हैं। अदालतें तो उन्हीं मसलों पर कड़े आदेश दे सकती हैं, जो उनके सामने सुनवाई के लिए आते हैं। किसानों की मुश्किलें तब तक आसान नहीं होंगी, जब तक उन्हें लेकर सरकारें संजीदगी नहीं दिखाएंगी।



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