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दिल्ली के शाहदरा से थोड़ा आगे बढ़ने पर उत्तर प्रदेश का एक बॉर्डर पड़ता है
दिल्ली के शाहदरा से थोड़ा आगे बढ़ने पर उत्तर प्रदेश का एक बॉर्डर पड़ता है और वहां से लोनी का इलाका शुरू हो जाता है. लेकिन ये बॉर्डर दिल्ली-नोएडा या दिल्ली-गाजियाबाद के अन्य बॉर्डर जितना बेहतर नहीं है. जब एनसीआर काफी विकसित हो चुका था, तब भी लोनी का ये इलाका काफी पिछड़ा हुआ था. लेकिन पिछली कुछ सरकारों ने काफी काम किया है और ये इलाका अब विकसित हो चुका है.
उसी लोनी में 5 जून को हुई एक घटना जंगल में आग की तरह फैली थी. दरअसल इस घटना को फैलाई भी इसी तरह से गई थी. फेसबुक लाइव में समाजवादी पार्टी के एक छुटभैये नेता उम्मेद पहलवान इदरीसी ने कहा कि वो बहुत बड़ा खुलासा करने वाले हैं. उन्होंने फेसबुक लाइव पर लोगों से जुड़ने का आह्वान किया. 10 लोग कम रह गए थे तो पहलवान ने दस लोगों के आने का इंतजार भी किया. इसके बाद फेसबुक पर अब्दुल समद नाम के 72 साल के एक बुजुर्ग ने रो-रोकर जो पीड़ा सुनाई, उससे हर किसी का दिल पसीज गया.
एक वर्ग को अब्दुल जैसे कांड का इंतजार क्यों है?
अब्दुल समद ने फेसबुक लाइव में अपनी पीठ के घाव दिखाए और दावा किया कि 6 हिंदुओं ने उन्हें 'जय श्रीराम' ना बोलने पर बुरी तरह मारा है. जय श्रीराम नहीं बोला तो दाढ़ी काट ली. अल्लाह अल्लाह बोलकर पानी मांगा तो उन्हें पेशाब दे दिया गया. इसके अगले दिन 6 जून को अब्दुल ने थाने में FIR दर्ज कराई. इस बीच अब्दुल समद को पीटने और दाढ़ी काटने का जो वीडियो वायरल किया गया, उसमें ऑडियो नहीं था. यानी वीडियो म्यूट था, जिससे पता ही नहीं चलता था कि मुस्लिम बुजुर्ग की पिटाई क्यों हुई है. या यूं कहें कि बहुत ही चतुराई से वीडियो की पूरी सच्चाई छिपा ली गई.
लेकिन जल्दबाजी देखिए. राहुल गांधी ने तत्काल ट्वीट कर फरमान सुना दिया- 'मैं ये मानने को तैयार नहीं हूं कि श्रीराम के सच्चे भक्त ऐसा कर सकते हैं, ऐसी क्रूरता, मानवता से कोसों दूर है और समाज व धर्म दोनों के लिए शर्मनाक है.' अब ये समझना जरूरी है कि राहुल गांधी विपक्ष के नेता नहीं हैं, लेकिन विपक्ष का चेहरा जरूर हैं. जिन्होंने अपरोक्ष रूप से घटना पर मुहर लगा दी. और फिर उनके पीछे वैमन्स्य की खेती करने वाले तमाम राजनेताओं, अभिनेताओं और पत्रकारों ने लाइन लगा दी.
पुलिस को छवि सुधारनी क्यों जरूरी है?
एक बुजुर्ग की जिस पीड़ा पर सोशल मीडिया में भूचाल आ गया, लेकिन पुलिस की जांच में मामला उलटता गया. अब्दुल समद ने जिन छह लोगों की कहानी सुनाई थी, उनमें कुछ मुस्लिम युवक भी निकले. इसके बाद एक और वीडियो सामने आया. म्यूट वीडियो के जवाब में आरोपी के घर बुजुर्ग से हुई बदसलूकी का वीडियो सह ऑडियो क्लिप जारी हुआ. इसमें बुजुर्ग का तांत्रिक अवतार सामने आया. और पूरा विवाद ताबीज का बताया गया. हालांकि इस थ्योरी को भी एक वर्ग ने खारिज कर दिया और आरोप लगाया कि पुलिस ने पीड़ित बुजुर्ग पर दबाव बनाकर मामला पलट दिया है. पुलिस पर लगने वाले ऐसे आरोप अक्सर निराधार नहीं होते. खास तौर पर यूपी की पुलिस केस गढ़ने और मढ़ने में माहिर मानी जाती है.
आग लगाने की इतनी बेकरारी क्यों है?
इस पूरी कहानी में दो बातें समझनी जरूरी हैं. पहला- क्या अब्दुल झूठ बोल रहे हैं. क्या देश में सांप्रदायिक आग लगाने के लिए एक मुस्लिम बुजुर्ग से हुए क्राइम को सांप्रदायिक रंग दे दिया गया? अगर ये सच है तो अब्दुल समद जैसे बुजुर्ग को समझना होगा कि उचित व्यवहार करना उनकी मर्जी नहीं, बल्कि मजबूरी है. सामाजिक ताने-बाने को तोड़ने की अनुमति उन्हें भी नहीं है. दूसरी बात- मान भी लें कि अब्दुल सच बोल रहे हैं- तो क्या देश के राजनेता से लेकर अभिनेता और पत्रकार तक की जिम्मेदारी आग में घी डालने की हो जाती है? आज से कुछ साल पहले तक हिंदू-मुसलमान के बीच तनाव की खबरें आते ही एक पत्रकार का दिमाग चौंकन्ना हो जाता था. दिमाग कहता था कि- पहला तो इसमें हिंदू-मुसलमान शब्द का इस्तेमाल नहीं करना है. अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का पर्दा डाल देना है. दूसरा ये कि ऐसी खबरों को सनसनी बनाने से बचना है.
एक पत्रकार को शुरुआत से ही यह जिम्मेदारी अच्छी तरह समझाई जाती थी कि किसी भी खबर से धार्मिक भावनाएं नहीं भड़कनी चाहिए. देश के अशांत होने का पाप नहीं होना चाहिए. लेकिन ये कुछ साल पहले तक की बात है. आज सोशल मीडिया के व्यापक प्रसार हो जाने के बाद से देश का हर व्यक्ति पत्रकार है. लेकिन ये पत्रकार इतने गैर-जिम्मेदार हैं कि अब शब्दों और खबरों की सारी मर्यादा खत्म हो चुकी है. ना तो हिंदू-मुसलमान शब्द से किसी को परहेज है, ना पक्ष लेने से. ऐसा लगता है जैसे पत्रकार भी एक आम आदमी बन गया है और हिंसक पशु की तरह बदला लेना चाहता है, लेकिन कैसे बदला लेना है, ये उसे अभी पता नहीं है.
हिंदुस्तान के नक्शे पर 'गाय' ने 'गोबर' कर दिया है!
आज के राजनेताओं, अभिनेताओं और पत्रकारों की मंडली को देखकर लगता है, जैसे हिंदुस्तान में सदियों से आग लगाने वाले वायरस घात लगाकर बैठे हैं. और ये हिंदुस्तान के किसी ऐसे गुप्त तहखाने में बैठे हैं, जिनपर देश खाक हो जाए तो भी आंच ना आए. धर्म के आधार पर हिंदुस्तान का नक्शा कई टुकड़े-टुकड़े हो गया. और इस विघटन ने भी सांप्रदायिक आग लगा दी. एक तरह से देश खाक हो गया, देश बांटने की आग शांत हो गई. बावजूद इसके सांप्रदायिक आग लगी ही रही. तीन टुकड़ों में टूटने के बाद बाकी बचा हिंदुस्तान जाने कितनी बार दंगों में झुलसा. धूमिल की एक कविता याद आती है. अपनी कविता 'बीस साल बाद' में उन्होंने लिखा है-
दोपहर हो चुकी है/
हर तरफ ताले लटक रहे हैं/
दीवारों से चिपके गोली के छर्रों/
और सड़कों पर बिखरे जूतों की भाषा में/
एक दुर्घटना लिखी गई है/
हवा से फड़फड़ाते हुए हिंदुस्तान के नक्शे पर/
गाय ने गोबर कर दिया है
धूमिल का युग करीब-करीब 1960 से 1980 के बीच का बैठता है. और तब हिंदुस्तान का ताजा-ताजा नया नक्शा बना था. आज हम हिंदुस्तान के नए नक्शे के भले ही अभ्यस्त हो गए हों, लेकिन धूमिल के युग में जरूर लगता होगा कि हिंदुस्तान के नक्शे पर गाय ने गोबर कर दिया है. लेकिन वो वायरस फिर भी जिंदा रहा, जिसके दिल में दीवारों पर गोली के छर्रे देखने की हसरत थी.
मुगल बादशाह अकबर भी इसी भट्ठी में जलता रहा!
वरिष्ठ पत्रकार शाज़ी ज़मा ने अपनी पुस्तक 'अकबर' में मुगल बादशाह की जो व्यथा लिखी है, उससे लगता है कि सांप्रदायिकता फैलाने वाले वायरस ने इतिहास को भी शांत नहीं रहने दिया. पुस्तक के मुताबिक शिकार पर निकला मुगल बादशाह अकबर पूनम की रात में चिल्लाता है-
'गाई है सू हिंदू खावो. और मुसलमान सूअर खावो. नाजे हुडियार नांजे ऐन खावो तो हुडियार कड़ाहि विचि वाहो अर रांधो, जे हुडियार हुंता सुअर होइ तो हिंदू मुसलमान रलि खावो. जे गाई होइ तो हिंदू मुसलमान रल खावो. जे सूअर होई तो मुसलमान खावो जे गाइ होइ तो हिंदू खावो. क्युं ऊं देवीमिश्र होइगा.'
पुस्तक में इसका जो अनुवाद बताया गया है, उसके मुताबिक अबुल मुज़फ्फ़र जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर बादशाह चीख़ रहे थे कि-
'हिंदू गाय खाएं और मुसलमान सूअर खाएं. जो नहीं खाएं तो भेड़ा को कड़ाही में पकाएं और जो भेड़े से सूअर हो जाए तो हिंदू मुसलमान मिल कर खाएं. अगर गाय हो जाए तो हिंदू मुसलमान मिलकर खाएं. अगर गाय हो तो हिंदू खाएं और सूअर हो तो मुसलमान खाएं तो कुछ दैवीय चमत्कार होगा.'
समाज को जोड़ने की जरूरत
तब लोग डिजिटल दुनिया से दूर थे, लेकिन हैरानी होती है ये सोचकर कि मास कम्युनिकेशन ना होने के बावजूद एक वायरस ने इतनी सांप्रदायिक आग लगाई होगी कि मुगल बादशाह भी भन्ना उठा होगा.
दरअसल धारा के विपरीत तैरने का भी एक धर्म होता है. जो इस धर्म पर नहीं चलता है, वो धारा को पार नहीं कर पाता. अपनी जगह पर खड़े-खड़े पैर पटकता है. इस प्रथा को तोड़िए और समाज को जोड़िए. अब्दुल समद को न्याय दिलाने की लड़ाई लड़िए. लोगों को लड़ाने में अपनी ऊर्जा व्यर्थ में खर्च मत करिए.
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