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- सुभाष चंद्र बोस :...
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नेताजी के भाई शरत कुमार बोस तो उनके इस गुप्त कार्यक्रम से भलीभांति अवगत रहे थे।
तराई के पीलीभीत में मैं नेताजी सुभाष चंद्र बोस को छद्म वेश में काबुल तक पहुंचाने वाले क्रांतिकारी भगतराम तलवार की यादों के निशान तलाश रहा हूं। 1980 में कलकत्ता में मैं एक सप्ताह तक उनके साथ रहा। उन दिनों उनका एक साक्षात्कार भी मैंने रिकॉर्ड किया, जो मेरे लिए अमूल्य धरोहर है। इस शहर की अशोक नगर कॉलोनी में बिक चुकी उनकी रिहायश के सामने मैं मूक बना खड़ा हूं, जहां एक बार उनसे मिलने आया था। फिर समय कुछ इस तरह बह जाता रहा कि हमें दो जनवरी, 1987 को उनके निधन की सूचना मिली और वह हमारे लिए स्मृति मात्र बनकर रह गए।
यह हैरत की बात है, दो दशक तक इस शहर में रहने वाले इस क्रांतिकारी को यहां कोई नहीं जानता। उनकी स्मृति में किसी मार्ग या स्मारक की खोज करना नितांत अर्थहीन है। भगतराम का जन्म 1908 में एक पंजाबी परिवार में हुआ था, जो उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत में था। वह वहां कीर्ति किसान पार्टी के सदस्य रहे और उनके भाई हरिकिशन को गवर्नर पर गोली चलाने के आरोप में नौ जून, 1931 को फांसी दे दी गई थी। उनके पिता गुरुदासमल भी क्रांतिकारी होने के साथ खान अब्दुल गफ्फार खां के करीबी थे। लेकिन सरहदी सूबे के भगतराम आखिर पीलीभीत आए तो कैसे, इसकी भी एक विचित्र कहानी है।
प्रख्यात कम्युनिस्ट नेता श्रीपाद अमृत डांगे अपने अंतिम दिनों में बंबई में थे। तब डांगे साहब से राष्ट्रीय टेलीकॉम फेडरेशन के काम से वहां गए ओमप्रकाश गुप्ता ने लंबी बातचीत की। डांगे साहब से उनका सवाल था कि उनके जीवन में कौन-सी ऐसी घटना हुई, जिसे वे काफी ऊंचाई पर ले जाना चाहते थे, पर वैसा कर नहीं पाए। डांगे साहब ने उन्हें बताया कि, 'हमारी पार्टी के मुख्यालय को कलकत्ता केंद्र से खबर पहुंची कि सुभाष बाबू काबुल जाना चाहते हैं। इसके लिए सीमा प्रांत के किसी माकूल सक्रिय साथी को उन्हें ले जाने का जिम्मा सौंपा जाए। हमने यह काम पंजाब के साथियों को दिया और पेशावर के एक साथी भगतराम तलवार को यह दायित्व सौंपे जाने के समाचार हमारे पास आ गए।
यह काम हो गया, यह भी हमें पता लग गया था। 1947 के बंटवारे के बाद हमें एक बेहाल शरणार्थी की हैसियत से साथी भगतराम दिल्ली में मिला। हाल देखकर हमने उस साथी के लिए प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से बातचीत करके उत्तर प्रदेश के पीलीभीत अंचल में जमीन दिलवाने का काम किया, पर हम अपने उस हीरो साथी की बहादुराना कारगुजारी को विख्यात नहीं करवा पाए। उस साथी ने कितना बड़ा काम किया और वह अनाम-सा ही रहा।'
डांगे साहब से बातचीत का यह संक्षिप्त अंश मेरे भीतर निरंतर गूंजता रहा। वह कलकत्ता में मिले, तब मैं उनके नेताजी के संग-साथ वाले चेहरे से जोड़कर उस भगतराम को भी देखने-चीन्हने की कोशिश करता रहा, जो देश विभाजन के बाद दर-बदर हो चुके थे। नेहरू ने पीलीभीत के इलाके में भगतराम को जो जमीन मुहैया कराई, वह उनके पारिवारिक जीवन का आधार बना, लेकिन वह अपने काम के मुताबिक इतिहास में अपनी जगह नहीं बना पाए। इस जिले में झनकैया कृषि फॉर्म है, जहां भगतराम के परिवारीजन अब भी रहते हैं। यहां शहीद हरिकिशन के नाम पर विद्यालय भी है। भगतराम के भाई अनंतराम तलवार इस जिले की मझोला चीनी मिल के वाइस चेयरमैन भी रहे। इस नाते कुछ लोग उनके नाम से परिचित हैं। इनके एक भाई ईश्वर दास तलवार भी थे।
भगतराम ने 1976 में अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि, पिता, मां, भाई की शहादत के साथ नेताजी के विदेश जाने की रोमांचक दास्तान दर्ज करने का बड़ा काम किया। कलकत्ता के घर से छिपकर अपने भतीजे शिशिर कुमार बोस के साथ धनबाद के गोमोह तक कार से नेताजी का फरार होना और फिर भगतराम के साथ छद्म वेश में काबुल तक का बेहद खतरनाक सफर हमारे मुक्ति-युद्ध के इतिहास का अनोखा अध्याय है। काबुल पहुंचकर वहां रह रहे उत्तमचंद मल्होत्रा से उन्होंने कहा, मैं सुभाष बाबू को रूस भेजने के लिए साथ लाया हूं। यहां आकर हम एक सराय में ठहरे हैं।' काबुल में उत्तमचंद ने उनकी बहुत मदद की।
एक दशक पूर्व मैंने इस बात का प्रयास किया कि पीलीभीत शहर के तीन चौराहों का नामकरण भगतराम तलवार, 1921 में जेल जाने वाले इसी शहर के प्रख्यात हिंदी लेखक चंडी प्रसाद 'हृदयेश' और निकट के जहानाबाद कस्बे में जन्मे प्रसिद्ध उर्दू शायर दुर्गा सहाय 'सुरूर' के नाम पर हो, पर मैं इसमें कामयाब नहीं हुआ, जबकि उन जगहों पर क्लबों का कब्जा है। शहर में जहां भगतराम तलवार का आवास था, उनके निकट छतरी चैराहा पर उनकी प्रतिमा स्थापित की जा सकती है।
भगतराम की दुर्लभ ऐतिहासिक छवियां हमारे पास हैं, जिसमें एक में वह अफगान पोशाक पहने हैं, जिसे उन्होंने नेताजी के साथ काबुल की यात्रा में इस्तेमाल किया था। दूसरे चित्र में गोल टोपी और दाढ़ी-मूछें भी हैं। ट्राइवल एरिया में उन्हें यह वेश धारण करना पड़ा था। तीसरा चित्र मां और बहन के साथ परिवार का है। आज कौन जाने कि इस अभियान में कम्युनिस्ट नेता तेजासिंह स्वतंत्र, अक्षर सिंह चीना और निरंजन सिंह तालिब उनके विशिष्ट सहयोगी और विमर्शकार थे। नेताजी के भाई शरत कुमार बोस तो उनके इस गुप्त कार्यक्रम से भलीभांति अवगत रहे थे।
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