सम्पादकीय

सुभाष चंद्र बोस जयंती 2022: एक महान और साहसी भारतीय का विराट जीवन

Gulabi
23 Jan 2022 6:30 AM GMT
सुभाष चंद्र बोस जयंती 2022: एक महान और साहसी भारतीय का विराट जीवन
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सुभाष चंद्र बोस जयंती 2022
जापान के ताइपेइ में कथित विमान दुर्घटना को 77 साल हो गए। इन सात दशकों में तीन जांच आयोग इस मुद्दे को किसी निष्कर्ष पर पहुंचाने में नाकाम रहे और पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक देश के हर प्रधानमंत्री ने यह गुत्थी अपने उत्तराधिकारी को सौंपी जिसे सुलझाने का प्रयास नरेन्द्र मोदी ने अवश्य किया मगर पहेली अब भी जहा की तहां है।
स्वयं अंग्रेजों ने भी जाते-जाते अपने तरीके से नेताजी की स्थिति की गोपनीय जांच कराई। इस विषय को लेकर काफी राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप भी हुए और शोधकर्ताओं में काफी परस्पर तकरारें भी हुईंं। लेकिन भारत के राजनीतिक इतिहास की इस सबसे बड़ी पहेली को कोई भी प्रमाणिक तौर पर नहीं सुलझा सका। यहां तक कि 7 दशकों तक अत्यन्त गुप्त रखी गई फाइलों को भी सार्वजनिक कर दिया गया फिर भी रहस्य जहां का तहां पड़ा रहा।
मातृभूमि की आजादी की खातिर द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान मित्र राष्ट्रों के विपरीत जापान से जा मिलने और भारत सरकार के खिलाफ युद्ध शुरू करने पर उन्हें अंग्रेजों ने युद्ध अपराधी घोषित कर दिया था। इसलिए भी नेताजी गुमशुदगी का रहस्य गहराता गया।
जांच पर जांच बैठी मगर सच्चाई पर पर्दा बरकार
जापान ने सबसे पहले 23 अगस्त 1945 को घोषणा की थी कि नेताजी की मृत्यु 18 अगस्त 1945 को एक विमान दुर्घटना में हो गई। लेकिन टोकिया और टहैकू के विरोधाभासी बयानों पर संदेह उत्पन्न होने पर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 3 दिसम्बर 1955 को 3 सदस्यीय जांच समिति का गठन करने की घोषणा की जिसमें संसदीय सचिव और नेताजी के करीबी शाहनवाज खान, नेताजी के बड़े भाई सुरेश चन्द्र बोस और आइसीएस एन.एन. मैत्रा शामिल थे।
इस कमेटी के शाहनवाज खान और मैत्रा ने नेताजी के निधन की जापान की घोषणा को सही ठहराया तो सुरेश चन्द्र बोस ने असहमति प्रकट की। इसलिए विवाद बरकार रहा। इसके बाद 11 जुलाई 1970 को जस्टिस जी.डी. खोसला की अध्यक्षता में जांच आयोग बैठाया गया तो आयोग ने विमान दुर्घटना वाले पक्ष को सही माना, मगर नेताजी के परिजनों, जिनमें समर गुहा भी थे, ने इसे अविश्वसनीय करार दिया।
इसी दौरान कलकत्ता हाइकोर्ट ने भी मामले की गहनता से जांच करने का आदेश भारत सरकार को दिया तो 1999 में वाजपेयी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के जज मनोज मुखर्जी की अध्यक्षता में एक और जांच आयोग बिठाया गया। 7 वर्ष की जांंच के बाद 6 मई 2006 को आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। इसमें आयोग ने पाया कि नेताजी की मृत्यु विमान दुर्घटना में नहीं हुई थी। लेकिन मुखर्जी आयोग ने यह भी माना कि नेताजी अब जीवित नहीं हैं, परन्तु वह 18 अगस्त, 1945 में ताईपेई में किसी विमान दुर्घटना का शिकार नहीं हुए थे।
आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि ताईवान ने कहा-18 अगस्त, 1945 को कोई विमान दुर्घटना नहीं हुई थी और रेनकोजी मंदिर (टोक्यो) में रखीं अस्थियां नेताजी की नहीं हैं। आयोग की जांच में यह भी पाया गया कि गुमनामी बाबा के नेताजी होने का कोई ठोस सबूत नहीं। नेताजी के परिवार के दो सदस्यों ने नेताजी की रहस्यमय मौत की जांच के लिए बने मुखर्जी कमीशन की रिपोर्ट की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए थे।
क्या देहरादून के साधुु नेताजी थे?
आयोग ने देहरादून के राजपुर रोड स्थित शोलमारी आश्रम के संस्थापक स्वामी शारदा नन्द को भी नेताजी होने की पुष्टि नहीं की। आयोग के समक्ष दावा किया गया था कि फकाता कूच बिहार की तर्ज पर ही शोलमारी आश्रम बना हुआ है। आयोग के समक्ष कहा गया कि इस आश्रम की स्थापना 1959 के आसपास उक्त साधुु ने की थी जिसका विस्तार बाद में 100 एकड़ में किया गया और वहां लगभग 1500 अनुयायी रहने लगे।
आश्रम में सशस्त्र गार्ड भी रखे गए जिससे स्थानीय लोग आशंकित हुए। सन् 1962 में नेताजी के एक साथी मेजर सत्य गुप्ता आश्रम में पहुंच कर साधुु से बात की और वापस कलकत्ता लौटने पर उन्होंने एक प्रेस कान्फ्रेंस कर साधुु को नेताजी होने का दावा किया जो कि 13 फरवरी 1962 के अखबारों में छपा। यह मामला संसद में भी उठा।
उक्त साधुु की 1977 में मृत्य हो गई जांच आयोग ने कुल 12 लोगों के बयान शपथ पत्र के माध्यम से लिए जिनमें से 8 ने साधुु को नेताजी बताया मगर एक वकील निखिल चन्द्र घटक, जो कि साधुु के कानूनी मामले भी देखते थे आयोग के समक्ष कहा कि साधुु स्वयं कई बार स्पष्ट कर चुके थे कि वह सुभाष चन्द्र बोस नहीं हैं और उनके पिता जानकी नाथ बोस और माता विभावती बोस नहीं बल्कि वह पूर्वी बंगाल के एक ब्राह्मण परिवार में जन्में हैं। आयोग नेताजी के देहरादून में रहने की पुष्टि नहीं कर सका। इसी तरह आयोग के समक्ष शेवपुर कलां मध्य प्रदेश और फैजाबाद के साधुओं के नेताजी होने के दावे किए गए जिन्हें आयोग ने अस्वीकार कर दिया।
कैबिनेट सचिव अजीत सेठ कमेटी की सिफारिशें
10 अप्रैल, 2015 के अंक में इंडिया टुडे में खुफिया ब्यूरो द्वारा 20 साल तक नेताजी के परिजनों पर निगरानी की स्टोरी छपने के बाद मोदी सरकार ने अप्रैल 2015 में कैबिनेट सचिव अजीत सेठ की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया जिसमें इसमें गृह मंत्रालय, आईबी, रॉ और प्रधानमंत्री कार्यालय से जुड़े अधिकारी शामिल थे।
इस कमेटी को आफिशियल सीक्रेट एक्ट के आलोक में यह देखना था कि क्या नेताजी से सम्बंधित गोपनीय फाइलों को अवर्गीकृत किया जा सकता है। यह एक्ट सूचना केअधिकार के दायरे से भी बाहर है। ऑफिशियल सीक्रेट एक्ट ब्रिटिश काल से चला आ रहा है। एक्ट में स्पष्ट किया गया है कि कोई भी एक्शन जो देश के दुश्मनों को मदद दे, इस एक्ट के दायरे में आता है।
इसमें यह भी कहा गया है कि कोई भी सरकार की ओर से प्रतिबंधित क्षेत्र, कागजात आदि को नहीं देख सकता और ना ही देखने की मांग कर सकता है। अजीत सेठ कमेटी की सिफारिश के बाद सरकार ने नेताजी से संबंधित फाइलों को अवर्गीकृत कर सार्वजानिक करने का निर्णय लिया था।
नेेताजी से संबंधित लगभग 200 गोपनीय फाइलें सार्वजनिक होने पर भी नेता जी की मौत का रहस्य नहीं सुलझ पाया है।
गोपनीय फाइलें: खोदा पहाड़ निकली चुहिया
नेेताजी से संबंधित लगभग 200 गोपनीय फाइलें सार्वजनिक होने पर भी नेता जी की मौत का रहस्य नहीं सुलझ पाया है। जबकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में 2014 में जब एनडीए की सरकार बनी थी तो आशा बंधी थी कि केन्द्र में सत्तारूढ़ नई सरकार अपने चुनावी वायदे को पूरा कर जब नेताजी से सम्बंधित फाइलें सार्वजानिक करेगी तो नेताजी की मौत से सम्बधित रहस्य की परतें एक के बाद एक खुलती जाएंगी।
यह चुनावी वायदा भी इसीलिए किया गया था ताकि देश की जनता अपने एक महानायक की मौत की सच्चाई जान सके। प्रधानमंत्री मोदी ने सचमुच अपने वायदे के अनुसार 14 अक्टूबर 2015 को वे फाइलें सार्वजानिक करने की घोषणा की और उस घोषणा के मुताबिक प्रधानमंत्री कार्यालय ने अवर्गीकृत 33 फाइलों की पहली खेप को 4 दिसम्बर 2015 को राष्ट्रीय अभिलेखागार के सुपुर्द कर दिया।
इसके बाद गृह मंत्रालय ने 37 और विदेश मंत्रालय ने भी 25 फाइलों को पहली खेप के तौर पर राष्ट्रीय अभिलेखागार को सौंप दिया, ताकि शोधकर्ता उन फाइलों में छिपी सच्चाई को बाहर निकाल सकें। प्रधानमंत्री ने जनता की अपेक्षाओं के अनुकूल कदम उठाते हुए 23 जनवरी 2016 को स्वयं नेताजी से सम्बंधित 100 फाइलों की डिजिटल प्रतियां सार्वजनिक जानकारी के लिए जारी की जिनमें 15,000 से ज्यादा पन्ने हैं।
राष्ट्रीय अभिलेखागार ने भी 29 मार्च 2016 को तथा 27 अप्रैल 2016 को दो किश्तों में नेता जी से सम्बंधित 75 अवर्गीकृत डिजिटल फाइलों की प्रतियां सार्वजनिक जानकारी के लिए जारी कीं। अभिलेखागार ने 27 मई 2016 को सर्वसाधारण के लिए 25 फाइलों की चौथी खेप जारी की जिसमें 5 फाइलें प्रधानमंत्री कार्यालय की, 4 फाइलें गृहमंत्रालय की और 16 फाइलें विदेश मंत्रालय की थीं। इसी प्रकार पश्चिम बगाल सरकार ने भी कुछ गोपनीय फाइलें राज्य अभिलेखागार को सौंपी। कोलकाता में राज्य सरकार ने 18 सितम्बर 2015 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस से जुड़ी 64 फाइलों को सीडी के रूप में आम लोगों और नेताजी के परिजनों के बीच बांट दिया गया।
इन फाइलों से जुड़े 12744 पेज को डिजिटल रूप में बदला गया है। नेताजी से जुड़ी इन फाइलों को कोलकाता पुलिस म्यूजियम में ही सुरक्षति रखा गया है। लेकिन इतने साल गुजरने के बाद भी खोदा पहाड़ और निकली चुहिया वाली कहावत भी चरितार्थ नहीं पाई, क्योंकि इतनी बड़ी कसरत में चुहिया तक नहीं निकली। इस मामले में यह भी आरोप लगा कि इन फाइलों को सार्वजनिक करने का मकसद नेताजी की मौत के सहस्य से पर्दा हटाना कम और जवाहरलाल नेहरू को फंसाना अधिक था, क्योंकि भारतीय राजनीति का एक तबका भारत विभाजन से लेकर हर देश के अहित में जाने वाली घटनाओं के लिये जवाहरलाल नेहरू को जिम्मेदार ठहराता रहा है।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
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