सम्पादकीय

पढ़ाई बनाम पिटाई

Subhi
31 Dec 2022 5:10 AM GMT
पढ़ाई बनाम पिटाई
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अव्वल तो किसी तरह की गलती या कमी की स्थिति में भी बच्चों से ऐसी हिंसा नहीं की जा सकती, लेकिन यह तो कोई ऐसी बात भी नहीं थी कि जिस पर किसी को गुस्सा आए! फिर शिक्षण को एक पेशे के तौर पर चुनने वाले व्यक्ति के लिए यह एक अनिवार्य शर्त है कि वह हर हाल में विवेक से ही काम ले, न कि आपा खोकर बच्चों के खिलाफ हिंसक हो जाए।

Written by जनसत्ता: अव्वल तो किसी तरह की गलती या कमी की स्थिति में भी बच्चों से ऐसी हिंसा नहीं की जा सकती, लेकिन यह तो कोई ऐसी बात भी नहीं थी कि जिस पर किसी को गुस्सा आए! फिर शिक्षण को एक पेशे के तौर पर चुनने वाले व्यक्ति के लिए यह एक अनिवार्य शर्त है कि वह हर हाल में विवेक से ही काम ले, न कि आपा खोकर बच्चों के खिलाफ हिंसक हो जाए।

अफसोस कि हमारे यहां के ज्यादातर शिक्षकों को इस तथ्य के बारे में तब भी सोचना जरूरी नहीं लगता जब बाल मनोविज्ञान और शिक्षा के मसले पर होने वाले शोध या अध्ययनों के जरिए आए दिन बताया जाता है कि शिक्षण के दौरान एक शिक्षक के भीतर गुस्सा, हिंसा या आक्रामकता के लिए जगह नहीं है।

दरअसल, अगर कोई शिक्षक अपने भीतर आक्रामक उतार-चढ़ाव से गुजरता है तो उसे पढ़ाने के तौर-तरीकों के साथ-साथ बाल मनोविज्ञान और कानून के अलग-अलग पहलुओं के बारे में जानने-समझने की जरूरत है। पांच साल की उम्र कुछ भी पढ़ने-सीखने के लिहाज से बिल्कुल शुरुआती दौर है। छोटे बच्चों के भीतर अभी पढ़ाई-लिखाई को लेकर एक समझ बननी शुरू ही हो रही होती है।

ऐसे में एक शिक्षक का दायित्व होता है कि वह पाठ की प्रस्तुति से लेकर अपने व्यवहार और बात करने के तरीके को ऐसे पेश करे कि बच्चे पठन-पाठन में रुचि लें, उसके प्रति सहज हो सकें, बताई गई बातों को आसानी से ग्रहण कर सकें। इसके बजाय बहुत सारे शिक्षक एक पुरानी और गलत धारणा के शिकार होते हैं कि बच्चों को पढ़ाते समय डांट-फटकार या पिटाई एक सामान्य अभ्यास है और इसी तरह से उन्हें समझाया या सिखाया जा सकता है।

सच यह है कि शिक्षक के भीतर किसी भी तरह की आक्रामकता, उससे मिली डांट-फटकार या पिटाई का असर बच्चों पर उलटा पड़ता है। वे न केवल शरीर पर लगी चोटों से पीड़ित होते हैं, बल्कि उनके मन-मस्तिष्क पर इसका जो आघात लगता है, वह पढ़ाई-लिखाई के प्रति उनके भीतर अरुचि भी पैदा कर दे सकता है।

जाहिर है, बच्चों को पढ़ाने-लिखाने के पेशे का चुनाव सिर्फ उन्हें ही करना चाहिए, जिनके भीतर बाल मनोविज्ञान की समझ हो और बच्चों की जरूरत और समझ के मुताबिक किसी विषय या पाठ को समझा सकने की क्षमता हो। मगर अक्सर ऐसी खबरें आती रहती हैं, जिनमें किसी स्कूल में या अन्य जगहों पर शिक्षकों ने बच्चों पर इस तरह हमला किया, जिस तरह कोई दुश्मन करता है।

हाल ही में दिल्ली में एक शिक्षक ने एक बच्ची पर कैंची से हमला किया, फिर उसे पहली मंजिल से नीचे फेंक दिया। इसी तरह, उत्तर प्रदेश में एक शिक्षक ने दो का पहाड़ा न सुना सकने जैसी मामूली बात पर ग्यारह साल के एक बच्चे के हाथ पर छेद करने वाली मशीन चला दी। विडंबना यह है कि बच्चों को डांट-फटकार या पिटाई पर सख्त कानूनी पाबंदी होने और इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट के स्पष्ट निर्देशों के बावजूद कुछ शिक्षक इस तरह की हिंसक प्रवृत्ति को नहीं छोड़ पा रहे।


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