सम्पादकीय

दलित-ओबीसी सियासत के बीच फंसी बीजेपी हिंदुत्व का एक केंद्र कैसे बनाएगी?

Gulabi
5 Feb 2022 5:37 AM GMT
दलित-ओबीसी सियासत के बीच फंसी बीजेपी हिंदुत्व का एक केंद्र कैसे बनाएगी?
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अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर के पास बसे न्यूजर्सी शहर में हिन्दुस्तानियों की आबादी काफी है
अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर के पास बसे न्यूजर्सी शहर में हिन्दुस्तानियों की आबादी काफी है और इनमें भी दक्षिणपंथी विचारधारा वाले लोग ज़्यादा है. यानि भारत में चल रहे हिन्दूवादी आंदोलन या राजनीतिक बदलाव की गर्मी वहां पर दिल्ली और किसी शहर से ज़्यादा पहले महसूस की जा सकती है. साल 2014 के आम चुनावों में इस इलाके के हिन्दुस्तानियों ने बीजेपी की जीत में अहम भूमिका निभाई थी. कुछ साल पहले विश्व हिन्दू परिषद् के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष और मोटेतौर पर रामजन्मभूमि आंदोलन के सर्वेसर्वा रहे अशोक सिंहल के स्वागत का कार्यक्रम न्यूजर्सी में रखा गया था. इस समारोह में जब सिंहल बोलने लगे तो उन्होंने रामजन्मभूमि आंदोलन को नए तरीके से परिभाषित किया.
सिंहल ने कहा कि यह आंदोलन राम जन्मभूमि पर सिर्फ़ राम मंदिर निर्माण का आंदोलन नहीं है, बल्कि इसका बड़ा मकसद हिन्दुओं की सामाजिक एकता को लेकर है, उनकी सामाजिक समरसता पर फोकस है. हमारी कोशिश हिन्दू धर्म में आने वाली सभी जातियों को एक छाते के नीचे लाना है. यानि वहां जातियों की दूरियां मिट जाएं और सिर्फ़ हिन्दू के तौर पर पहचान हो. सिंहल ने कहा कि जब तक जातियों के तौर पर पहचान होगी, तब तक ना हमें सामाजिक ताकत मिल पाएगी और राजनीतिक ताकत का तो सवाल ही पैदा नहीं होता.
बड़े हिंदू संगठन सभी जातियों को एक छत के नीचे लाना चाहते हैं
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में वरिष्ठ पदाधिकारी और मेरे मित्र ने कहा कि संघ और उससे जुड़े सभी संगठनों की कोशिश ही यही रहती है कि जातियों में ऊंच-नीच के भेद को खत्म करके तमाम लोगों को हिन्दुत्व के एक सूत्र में बांधा जाए. लेकिन सिर्फ राजनीतिक चश्मे से देखने वाले लोग हिन्दुओं को तो जातियों में बांटकर वोट बैंक की परिभाषा तय करते हैं. मुसलमानों की गिनती के वक्त वे ऐसा नहीं करते. उन्होंने समझाया कि हमारा मकसद हिन्दू धर्म का पताका फहराना भर नहीं है, बल्कि राजनीतिक शक्ति के लिए हिन्दुओं को एकजुट करना है और जब भी वो पिछड़ों या दलितों के नाम पर बंटता है तो उसका राजनीतिक नुकसान बीजेपी को उठाना पड़ता है. यह सच है कि अब पिछड़ों और दलितों का एक बड़ा हिस्सा भारतीय जनता पार्टी के साथ खड़ा दिखाई देता है और उसी वजह से साल 2017 के चुनाव में बीजेपी को उत्तर प्रदेश में चालीस फीसदी और फिर 2019 में पचास फीसदी तक वोट मिले.
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आज देश में ओबीसी के सबसे बड़े और अकेले राष्ट्रीय स्तर के नेता के तौर पर देखे जाते हैं, लेकिन उनकी इससे बड़ी पहचान हिन्दुत्व के नेता के तौर पर बनी रहे, यह कोशिश जारी रहती है. बीजेपी का मानना है कि नरेन्द्र मोदी के अलावा कई ओबीसी नेता बीजेपी में हैं. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक वीडियो कॉन्फ्रेंस में बताया था कि मौजूदा लोकसभा में बीजेपी के 113 ओबीसी, 43 एसटी और 53 एससी सांसद हैं. इसका मतलब करीब 69 फीसदी कुल 209 सांसद सवर्ण जातियों से नहीं हैं.
इस समुदाय की आबादी में कुल 69 फीसदी हिस्सेदारी होती है. खासतौर से उत्तर प्रदेश के नजरिए से देखें तो 57 फीसदी लोकसभा सांसद और करीब 53 फीसदी विधायक ओबीसी और एससी हैं. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की मंत्रीपरिषद में इनकी हिस्सेदारी 48 फ़ीसदी है, तो प्रदेश में संगठन स्तर पर करीब 35 फीसदी जिला अध्यक्ष इस समुदाय से आते हैं. यानी हर तीसरा जिलाध्यक्ष पिछड़ या दलित समुदाय से है. यानी आज ना केवल सरकार में बल्कि संगठन के स्तर पर भी बीजेपी में ओबीसी प्रतिनिधित्व किसी भी पार्टी से कम नहीं है. इसके बावजूद उसके खिसकने का डर बना रहता है.
बीजेपी ने अब तक यूपी में किसी ब्राह्मण नेता को मुख्यमंत्री नहीं बनाया
इसकी एक बड़ी वजह अब ओबीसी और दलित जातियों, खासतौर से गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलितों की कई जातियों और समुदायों में राजनीतिक जागृति आने से यह खतरा बढ़ गया है और लंबे समय तक उन्हें साथ रख पाना मुश्किल होता है. जैसा अभी यूपी विधानसभा चुनाव शुरू होने से पहले स्वामी प्रसाद मौर्या, दारासिंह और धर्म सिंह सैनी जैसे नेता बीजेपी का साथ छोड़कर समाजवादी पार्टी के साथ चले गए, जबकि सवर्ण जातियों में से नेताओं के आने जाने की तादाद और रफ्तार कम रही है.
भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी की राम रथ यात्रा के वक्त से शुरू हुआ हिन्दू जागृति और समरसता का यह अभियान रामजन्मभूमि आंदोलन के दौरान तेजी से आगे बढ़ा. रामजन्मभूमि शिलान्यास के वक्त भी विश्व हिन्दू परिषद ने शिला कामेश्वर चौपाल के हाथों रखवाई और वे अभी रामजन्मभूमि ट्र्स्ट के सदस्य भी हैं. उस जमाने में कल्याण सिंह बीजेपी के सबसे बड़े ओबीसी चेहरों से एक थे. तब पार्टी ने अटल बिहारी वाजपेयी के वक्त में कलराज मिश्र जैसे ब्राह्मण नेताओं के बजाय कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री बनाया था. वो यूपी में बीजेपी की पहली सरकार के मुख्यमंत्री थे. उससे पहले तक कांग्रेस ब्राह्मण नेताओं को मुख्यमंत्री बनाती रही, यहां तक कि बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में अब तक एक बार भी ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं बनाया, क्योंकि उसे लगता है कि ब्राह्मण तो हमेशा उसके साथ रहेंगें, लेकिन ओबीसी को साथ लाने के लिए ऐसे बड़े चेहरे ज़रूरत है.
अब यूपी हिन्दुत्व की राजनीतिक प्रयोगशाला हो गई है
इस कड़ी में उसके पास उमा भारती, शिवराजसिंह चौहान और सुशील मोदी जैसे नेता रहे हैं. गोपीनाथ मुंडे भी महाराष्ट्र में नेता थे. हिन्दुत्व का सम्मोहन बीजेपी को इतना ज़्यादा है कि हर वक्त कोई ना कोई नेता खुद को हिन्दू ह्रदय सम्राट के तौर पर स्थापित करने की कोशिश करता रहता है, चाहे वो एक ज़माने में राम जन्मभूमि आंदोलन के वक्त लालकृष्ण आडवाणी हों या फिर गुजरात से शुरू हुई हवा में नरेन्द्र मोदी को हिन्दू ह्रदय सम्राट कहा जाता रहा और अब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इस सेहरे को अपने सिर पर बांधे रखना चाहते हैं. एक ज़माने तक बहुत से पत्रकार और वामपंथी विचारधारा के बुद्धिजीवी गुजरात को हिन्दुत्व की राजनीतिक प्रयोगशाला कहते रहे, अब वही लोग उत्तर प्रदेश में हिन्दुत्व की प्रयोगशाला की टेस्टट्यूब लेकर बैठे हैं.
सवाल यह भी है कि क्या हिन्दुत्व के मायने सिर्फ सवर्ण जातियां भर हैं या फिर ओबीसी और दलित जातियों को किसी दूसरे धर्म के साथ जोड़ कर देखा जा सकता है? यह सच है कि दलितों का धर्म परिवर्तन कराने की कोशिश बरसों से होती रही है. सवाल यह भी होता है कि अगर दलित और ओबीसी हिन्दू हैं तो बीजेपी उन्हें किस छाते के नीचे लाने की कोशिश कर रही है, वो क्यों नहीं उन्हें उनकी जातीय पहचान के साथ सम्मान देना चाहती? दूसरे राजनीतिक दल क्यों दलितों और ओबीसी को हिन्दू धर्म के झंडे से दूर रखना चाहते हैं?
ओबीसी और दलित नेताओं को बीजेपी पर भरोसा नहीं है?
ओबीसी और दलित नेताओं का बीजेपी का साथ छोड़कर जाना यह सवाल भी उठाता है कि क्या उन्हें बीजेपी नेतृत्व पर भरोसा नहीं है. या उन्हें डर लगता है कि बीजेपी उनकी जातीय पहचान को खत्म करना चाहती है? वह यह समझते हैं कि उनकी राजनीतिक ताकत जातीय पहचान को अलग बनाए रखने में है, हिन्दू के रंग में रंगने में नहीं. जैसे कई छोटी-छोटी पार्टियों को अपना अस्तित्व अलग बनाए रखने से ही राजनीतिक ताकत मिलती है, वो अगर किसी बड़े दल में शामिल हो जाएं तो फिर उनका वजूद या ताकत नहीं बचती. कुछ लोग इसके लिए केशव मौर्य और स्वामी प्रसाद मौर्य का उदाहरण देकर समझाते हैं. स्वामी प्रसाद मौर्य तो बीजेपी का साथ छोड़कर समाजवादी पार्टी के साथ जा सकते हैं, लेकिन केशवप्रसाद मौर्य के पास यह मौका नहीं रहता.
उत्तर प्रदेश की आबादी में आधे से ज़्यादा करीब 54 फीसदी ओबीसी जातियां है जो राजनीतिक उलटफेर करने या किसी का राजनीतिक भविष्य तय करने का माद्दा रखती हैं. इस वक्त सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के मुखिया ओबीसी हैं. इस वक्त प्रदेश में बीजेपी के सबसे ज़्यादा 102 विधायक ओबीसी हैं, जबकि समाजवादी पार्टी के 12 ओबीसी विधायक हैं. बीएसपी के पांच विधायक ओबीसी हैं. बीजेपी के 48 फीसदी से ज़्यादा विधायक सवर्ण हैं, जबकि आबादी में उनकी हिस्सेदारी सिर्फ बीस फीसदी ही है. साल 2014 के आम चुनावों से पहले बीजेपी और संघ ने मिलकर सोशल इंजीनियरिंग अभियान चलाया नतीजतन साल 2014 के चुनावों में उसका ओबीसी वोट 12 फीसदी से ज़्यादा बढ़ गया और पार्टी को 71 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल हो गई.
इसी रास्ते पर आगे चलते हुए बीजेपी ने केशव प्रसाद मौर्य को 2017 के विधानसभा चुनावों से पहले प्रदेश अध्यक्ष की बागडोर सौंपी, और यह संकेत दिया कि वो मुख्यमंत्री भी हो सकते हैं, लेकिन नहीं बन पाए. उस चुनाव में गैर-यादव ओबीसी का 60 फीसदी वोट बीजेपी को मिला था. उनकी जगह हिन्दुत्व के बड़े चेहरे योगी आदित्यनाथ ने ले ली, इससे ओबीसी जातियों में बीजेपी के प्रति विश्वास का संकट पैदा हुआ, इसे नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता. फिर महेन्द्र नाथ पांडे बीजेपी अध्यक्ष बने और उसके बाद फिर स्वतंत्र देव सिंह की याद आ गई, लेकिन स्वतंत्र देव सिंह भी अगली संभावित सरकार के मुख्यमंत्री के चेहरे होंगे, इसमें संदेह है. यानि पिछड़ी और दलित जातियों को इस बात के लिए समझाया जा सकता है कि उनका भविष्य बीजेपी के साथ नहीं है और इसी कारण से यह राजनीतिक दौड़-भाग दिखाई दे रही है.
बीजेपी हिन्दुत्ववादी पार्टी की छवि के साथ चलना चाहती है या सामाजिक समरसता की छवि के साथ?
बीजेपी के नेताओं की बात मानें तो पार्टी संगठन में अब पूरा नक्शा ही बदल गया है और प्रदेश अध्यक्ष से लेकर जिला अध्यक्षों तक ज़्यादातर जगह ओबीसी चेहरे हैं. केन्द्र में भी मोदी सरकार में 28 ओबीसी मंत्री बनाए गए. यूपी सरकार में भी नए चेहरे शामिल किए गए, लेकिन पार्टी को खुद से यह सवाल करना होगा कि इसके बावजूद क्यों उसकी पहचान अब भी सवर्णों की पार्टी की बनी हुई है. लोग क्यों यह सवाल करते हैं कि बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण का साथ पार्टी ने क्यों नहीं दिया? क्यों एक झटके में उन्हें हटा दिया गया? क्यों सबसे कद्दावर नेता कल्याण सिंह को बीजेपी नेतृत्व हजम नहीं कर पाया? जबकि उन्होंने पार्टी को बहुत बड़ी राजनीतिक ताकत दी थी, क्या कल्याण सिंह को मरणोपरांत नागरिक सम्मान पद्म विभूषण देने से इसकी भरपाई हो पाएगी?
क्यों उमा भारती सबसे लोकप्रिय मुख्यमंत्री होते हुए भी अचानक हाशिये पर भेज दी गईं? क्यों केशव प्रसाद मौर्य के नेतृत्व में चुनाव लड़ने के बावजूद उन्हें मुख्यमंत्री नही बनाया गया? और क्या पार्टी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को ओबीसी चेहरे के तौर पर स्थापित करना चाहती है? या फिर राम मंदिर निर्माण और तीन तलाक क़ानून हटाने की हिम्मत रखने वाले हिन्दुत्ववादी एजेंडा के नायक के तौर पर? क्यों बीजेपी आधे से ज़्यादा विधायकों की नाराज़गी के बावजूद उत्तरप्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन की हिम्मत नहीं कर पायी?
दरअसल इन सवालों का जवाब पार्टी को जनता और पिछडी और दलित जातियों या समुदायों को तो देना ही है, लेकिन उससे पहले खुद से ये सवाल पूछने पड़ेंगे और उसका जवाब भी खुद ढूंढना होगा, साथ ही उसे यह भी तय करना होगा कि वो हिन्दुत्ववादी पार्टी की छवि के साथ चलना चाहती है या सामाजिक समरसता के नारे को मजबूती देकर उस पहचान को अपने सिर पर ताज बनाना चाहती है? यह मामला राजनीतिक और सामाजिक हिम्मत का है और कहा जाता है कि डर के आगे जीत है.
(डिस्क्लेमर: लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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