सम्पादकीय

किसानों का अड़ियल रवैया: संसद से पारित कानूनों की वापसी की जिद पकड़ना अराजकता को खुला निमंत्रण

Neha Dani
24 Dec 2020 2:01 AM GMT
किसानों का अड़ियल रवैया: संसद से पारित कानूनों की वापसी की जिद पकड़ना अराजकता को खुला निमंत्रण
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केंद्र सरकार के बातचीत के प्रस्ताव पर तथाकथित संयुक्त किसान मोर्चे की ओर से यह कहना अड़ियलपन |

केंद्र सरकार के बातचीत के प्रस्ताव पर तथाकथित संयुक्त किसान मोर्चे की ओर से यह कहना अड़ियलपन के अलावा और कुछ नहीं कि पहले कृषि कानूनों को वापस लिया जाए। आखिर मुट्ठी भर किसान नेता यह फरमान देने वाले होते कौन हैं कि सरकार संसद से पारित कानूनों को वापस ले ले? सड़क पर आ बैठे लोगों की ओर से संसद से पारित कानूनों की वापसी की जिद पकड़ना तो अराजकता को खुला निमंत्रण है। यदि कल को कोई अन्य समूह-संगठन दस-बीस हजार लोगों को लेकर दिल्ली में डेरा डाल दे और किसी कानून को वापस लेने की मांग करने लगे तो क्या उसे भी मान लिया जाना चाहिए? यदि हां तो फिर संसद और सरकार की साख का क्या होगा? यदि नहीं तो फिर किसान नेताओं की कृषि कानूनों की वापसी की मांग को क्यों माना जाए और वह भी तब जब उनमें से कुछ को तो किसान नेता भी नहीं कहा जा सकता। आखिर किस आधार पर इन किसान नेताओं ने यह समझ लिया कि वे सारे देश के किसानों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं और वे जो कह रहे हैं, वही समस्त किसानों की चाहत है?

किसान नेताओं के अड़ियलपन की एक और निशानी यह है कि वे कृषि कानूनों में संशोधन पर सहमत सरकार पर तो कठोर रवैया अपनाने का आरोप मढ़ रहे हैं, लेकिन यह देखने से इन्कार कर रहे हैं कि वे खुद किस तरह उसे न केवल हुक्म देने में लगे हुए हैं, बल्कि रास्ते और रेल मार्ग रोक देने की धमकियां भी दे रहे हैं। आखिर यह एक किस्म की ब्लैकमेलिंग नहीं तो और क्या है? हमारे आम किसान न तो इस तरह के आचरण के लिए जाने जाते हैं और न वे ऐसा कुछ करते हैं। दिल्ली में डेरा डाले किसान संगठनों ने सरकार के नरम रुख के बाद भी जिस तरह टकराव वाला रवैया अपना लिया है, उससे यही लगता है कि उनका मकसद किसानों की समस्याओं का समाधान करना नहीं, बल्कि किसी तरह मोदी सरकार को नीचा दिखाना है। इस अंदेशे का एक अन्य कारण इन किसान संगठनों को वामपंथी एवं अतिवादी गुटों के साथ-साथ उन राजनीतिक दलों की ओर से उकसाया जाना भी है, जो इस सरकार के प्रति बैर भाव से भरे हुए हैं। अब तो इसी भाव से भरा मीडिया का एक हिस्सा भी किसान संगठनों को हवा देने और ऐसी बेजा दलीलें पेश करने में जुट गया है कि किसानों का भरोसा हासिल करने के लिए सरकार को कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा करनी चाहिए। साफ है कि सरकार के साथ-साथ संसद को भी चुनौती देने की कोशिश हो रही है।


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