सम्पादकीय

Stubble Burning: खोजना होगा पराली का निदान, कई राज्यों में जबर्दस्त तनाव

Neha Dani
21 Nov 2022 3:12 AM GMT
Stubble Burning: खोजना होगा पराली का निदान, कई राज्यों में जबर्दस्त तनाव
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किसानों या जनता के भरोसे इस समस्या का समाधान ढूंढना बेइमानी है।
इस समय पराली जलाने को लेकर दिल्ली और उसके आसपास के राज्यों में जबर्दस्त तनाव व्याप्त है। हर कोई एक-दूसरे पर आरोप लगा रहा है, परंतु समस्या वहीं की वहीं है और पराली जल रही है। ड्रोन एवं अन्य माध्यमों द्वारा निगरानी की जा रही है। आर्थिक दंड और कानूनी कार्रवाई की धमकी जारी है और कहीं-कहीं पर किसानों पर कार्रवाई भी की जा रही है, परंतु समस्या का निदान दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रहा है। असल में इस समस्या के मूल में कृषि मजदूरों की कमी या उनका महंगा होना है। इसी कारण से कंबाइन का प्रयोग बढ़ा। कंबाइन मजदूरों की तुलना में सस्ती पड़ती है और समय की भी बचत होती है, जिससे गेहूं की फसल जल्दी बोने में सहूलियत होती है। पर इससे पराली की समस्या का जन्म होता है, जिसने आज विकराल रूप धारण कर लिया है।
जब तक इस समस्या का कोई सही विकल्प नहीं होगा, तब तक यह समस्या बनी रहेगी। इसका कोई समाधान है या नहीं? इसका उत्तर है, सरकार एवं अन्य जिम्मेदार समूहों को सही ढंग से और सही दिशा में काम करना होगा। किसान स्वयं पर्यावरण के प्रति इतना जागरूक नहीं हो सकता, वह भी तब, जब उसे अगली फसल बोने की जल्दी हो। पंजाब के कुछ क्षेत्रों में पुआल या पराली से बिजली बनाने की छोटी-छोटी परियोजनाएं चल रही हैं। उन इलाकों में पराली जलाने की घटनाएं या तो हैं ही नहीं या बिल्कुल नगण्य हैं। जाहिर है कि हमें पराली की समस्या के निदान को सही परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। इसलिए जब तक पराली को आर्थिक फायदे से नहीं जोड़ेंगे, तब तक इसका समाधान नहीं हो सकता। लेकिन सरकार के सकारात्मक सहयोग के बिना ऐसा होना संभव नहीं है।
यदि पराली को इकट्ठा कर उससे जैविक खाद या चारा बनाया जाए और किसानों को पराली का एक निर्धारित मूल्य दिया जाए, तो शायद सभी किसान तैयार हो जाएंगे। पर यह परियोजना इतनी महंगी है कि इसमें सरकार का सहयोग जरूरी है। इसमें हमें निम्न बिंदुओं को ध्यान में रखना होगा-पहला, सारे खेतों से 10 या 15 दिन के अंदर पराली उठा ली जानी चाहिए। अन्यथा गेहूं बोने की जल्दबाजी में किसान पराली जलाने जैसे आसान उपाय अपनाने लगेंगे। दूसरा, यह प्रयोग विकास खंड या पंचायत स्तर पर करना होगा, वर्ना पराली उठाने में देर होने पर किसान समय से गेहूं नहीं बो पाएंगे।
तीसरा, एक खेत से पराली निकालने में लगभग चार यंत्र चलाने पड़ते हैं- (अ) कंबाइन, जिससे धान काटा जाएगा, (ब) श्रबर, जिससे खड़े डंठल काटे जाएंगे, (स) रेकर, जो काटी हुई पराली को खेत में एक लाइन में करेगा, (द) बेलर, जो पराली के गट्ठर बनाएगा। फिर उसे ट्राली में लादकर सही जगह पर इकट्ठा किया जाएगा। इस प्रकार एक खेत के लिए कम से कम दो ट्रैक्टर की जरूरत होगी। दो ट्रैक्टर दिन भर में ज्यादा से ज्यादा 10 से 15 हेक्टेयर खेत की पराली उठा सकता है। एक गांव के सारे खेतों से पराली उठाने में कम से कम ऐसी पांच या छह टीमों की जरूरत होगी। अब अगर जैविक खाद बनानी है, तो उसका यंत्र भी 15 से 20 लाख रुपये का होगा।
अब सरकार यदि इस योजना को चलाने वाले व्यक्ति या एफपीओ (किसान उत्पादक संगठन) को वित्तीय मदद नहीं देगी, तो कोई भी इस कार्य में रुचि नहीं लेगा। इसलिए जो भी इस योजना को चलाना चाहेगा, उसे हर सीजन में कम से कम पांच से छह लोगों को काम पर रखना पड़ेगा। ऐसी परियोजनाएं आर्थिक रुप से फायदेमंद नहीं है, इसलिए कोई व्यक्तिगत रूप से इसे चलाना नहीं चाहता। एक समाधान यह भी है कि किसानों को सीधे प्रोत्साहन या सहायता राशि दे दी जाए, पर इसमें दुरुपयोग की आशंका ज्यादा है। इसे गौशालाओं से भी जोड़कर उन्हें चारे की आपूर्ति की जा सकती है। पराली एक सामाजिक समस्या है। अतः सरकार को ही इसमें आगे आना होगा। किसानों या जनता के भरोसे इस समस्या का समाधान ढूंढना बेइमानी है।

सोर्स: अमर उजाला

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