सम्पादकीय

बदलते दौर में पर्दे पर जद्दोजहद

Subhi
27 Aug 2022 5:35 AM GMT
बदलते दौर में पर्दे पर जद्दोजहद
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पिछले दिनों बड़े सितारों को लेकर इतिहास से उलझती एक फिल्म को उसकी असफलता ने छोटी कर दी। इधर कई महीनों से बालीवुड की फिल्में काल्पनिक इतिहास से उलझने, जूझने और लड़खड़ाने का काम कर रही हैं।

प्रभात कुमार; पिछले दिनों बड़े सितारों को लेकर इतिहास से उलझती एक फिल्म को उसकी असफलता ने छोटी कर दी। इधर कई महीनों से बालीवुड की फिल्में काल्पनिक इतिहास से उलझने, जूझने और लड़खड़ाने का काम कर रही हैं। निर्माता शानदार, दमदार फिल्में बनाने की कोशिश करते हैं, करोड़ों लगाते हैं, ताकि करोड़ों बनाएं।

कुछ फिल्में उच्चतम तकनीक और दिलकश प्रस्तुति के कारण सफल भी होती हैं। ऐतिहासिक कहानियों पर पटकथा लिखवाने, कलात्मक, सृजनात्मक स्वतंत्रता लेने में पीछे नहीं हटते। यहां तक कि अधिकृत इतिहासकार हो जाना चाहते हैं। कई फिल्में राजनीतिक बयान की तरह लगने लगती हैं, मानो पहले इतिहास गलत लिखा गया। अमुक लेखक या कवि को फलां शासक का इतिहास वैसे नहीं, ऐसे लिखना चाहिए था।

ऐसा अधिकृत इतिहासकार नहीं, बल्कि फिल्मों की कहानी को हिट करने का मसाला डालकर फिल्में लिखने या निर्देशित करने वाले व्यावसायिक लोग कहते रहे हैं। जिस प्रकार चैनलों पर किसी मेहमान को किसी भी विषय के अधिकृत ज्ञानी वक्ता बनाकर बिठा दिए जाते हैं, उसी प्रकार बालीवुड के अभिनेता, किसी समूह के नेता या अन्य इतिहास उकेरते दिखते हैं। इतिहास आधारित नाटक और फिल्में आलोचना की छतरी से बाहर जा ही सकती हैं, क्योंकि उनमें सभी ने सिनेमाई स्वतंत्रता ली होती है।

अपनी खुराफातों से बचने के लिए फिल्म की शुरुआत में एक 'डिस्क्लेमर' चिपका दिया जाता है। उनके द्वारा ली गई स्वतंत्रता को सुस्वतंत्रता या कुस्वतंत्रता के खांचे में तो रखा ही जा सकता है। माना यह जाता है कि किसी को किसी की उपेक्षा से फर्क नहीं पड़ता। यह बात स्पष्ट है कि फिल्म महज फिल्म होती है और इतिहास इतिहास होता है। फिर भी न जाने कितनी ही किस्म की टांगें फंसने के लिए तैयार रहती हैं, ताकि वे अपना मैच खेल सकें।

जिस तरह फिल्म के लिए मन, धन और समय अनुकूल होना चाहिए, उसी तरह व्यवस्था के अनुकूल फिल्म बनाना भी लाभदायक रहता है। सवाल यह है कि फिल्म जैसे सशक्त माध्यम से रची जा रही कृतियों को इन फिल्मी या शौकिया बने इतिहासकारों के भरोसे क्यों छोड़ा जाए!

अगर कोई इतिहास आधारित विविध विषयों पर कहानियां या विचार फिल्माना चाहता है तो यह जिम्मा ईमानदार इतिहासकारों, जिम्मेदार व्यावसायिक लेखक और पटकथा लिखने वालों को दिया जाना चाहिए, ताकि सशक्त लेखन, जानदार कहानी या विचार पर फिल्में बन सकें, जिनमें इतिहास के साथ-साथ वर्तमान सामाजिक परिदृश्य का समावेश भी हो। हमारे यहां इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने, उसमें नए मसालों का छौंक लगाने के लिए बहुत समझदार लोग उपलब्ध हैं। इतिहास वैसे भी तत्कालीन घटनाओं के अलावा मनचाही कल्पनाओं का पुलिंदा भी होता है।

फिल्मकार एक दस्तावेज नहीं बनाते, यह करोड़ों का व्यवसाय है, जिससे वे लाभ ही कमाना चाहते हैं। स्वाभाविक है, उन्हें ऐसे विषय, विचार और कहानियां चाहिए जो दर्शकों को लुभा सकें। अफसोस की बात यह है कि सिनेमा या कला से जुड़े अधिकतर लोग किसी भी तरह सफल होकर सिर्फ पैसा कमाना चाहते हैं।

उन्होंने दर्शकों की पसंद को बिगाड़ दिया है। लेकिन कहा यह जाता है कि दर्शकों की रुचि को ध्यान में रखते हुए मनोरंजन परोसा जा रहा है। आम दर्शक को विषय-वस्तु बारे ज्यादा समझ नहीं होती। उन्हें जो सड़ा-गला परोस दिया जाता है, वे आमतौर पर वह लेते हैं। दर्शकों में सुरुचि विकसित करना भी कला से जुड़े हुए तमाम लोगों की है। दर्शकों को अगर वह फिल्म दिखाई जाए जो उनका मनोरंजन भी करे और सामाजिक समस्याओं का उचित समाधान प्रस्तुत करते हुए शिक्षित करे, प्रेरणा दे, तो दर्शक उसे देखेंगे भी और सराहेंगे भी। उनमें स्तरीय देखने की आदत पड़ेगी। ऐसा पहले हुआ है।

आजकल जो फिल्में बनाई जा रही हैं, उनसे तो कुरुचि ही विकसित हो रही है। मनोरंजन का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है। बेशक फिल्में सफल हो रही हैं, लेकिन अगर उनका जटिल अन्वेषण हो तो वे समाज में फैल रही विकृतियों के लिए भी जिम्मेदार पाई जाएंगी। फिल्म सफल होने का मतलब अच्छी फिल्म नहीं होता। हल्के मनोरंजन में उलझा दर्शक सामाजिक बदलावों को अनदेखा कर रहा है। इस पर गहन विचार-विमर्श की जरूरत है ।

अब फिल्मकारों को सामाजिक विद्रूप के अवलोकन की जरूरत नहीं रही, लेकिन वक्त चाहता है कि वे भारतीय जड़ों से जुड़ कर समाज में फैली अनेक विसंगतियों, समस्याओं पर फिल्में बनाएं। पुराने यशस्वी फिल्मकारों से सीखें, जिन्होंने सिर्फ पैसा कमाने के लिए फिल्में नहीं बनाईं।

प्यार, बहादुरी, देशभक्ति, नायकत्व, भावना और त्याग से भरी हजारों कहानियां वर्तमान के कैनवास पर बिखरी पड़ी हैं, सिर्फ सही दिशा में सोचने की ज़रूरत है। सिनेमा बनाने वाले और उसमें काम करने वालों को वर्तमान से उलझने की हिम्मत दिखानी चाहिए।


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