सम्पादकीय

भाषायी संस्कृति का संघर्ष: भारतीयता पर अंग्रेजियत का बोझ

Gulabi
27 July 2021 1:39 PM GMT
भाषायी संस्कृति का संघर्ष: भारतीयता पर अंग्रेजियत का बोझ
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भाषायी संस्कृति का संघर्ष

उमेश चतुर्वेदी। वर्ष 1857 के पहले स्वाधीनता संग्राम की नाकामी के बावजूद देश में राष्ट्रवाद की भावना जोर मारने लगी थी। ऐसे में, अंग्रेज सरकार का चिंतित होना स्वाभाविक ही था। लिहाजा उन्होंने भारत को बदलने की तैयारी शुरू की। भारतीय शिक्षा पर अंग्रेजी शिक्षा को तवज्जो देना शुरू हुआ। उन्हीं दिनों तत्कालीन बंबई के गवर्नर रहे रिचर्ड टेम्पल ने पश्चिमी शिक्षा को लेकर बड़ी बात कह थी। उन्होंने कहा था, 'अंग्रेजी भाषा, साहित्य और दर्शन से शिक्षित व्यक्ति अपनी राष्ट्रीयता से मुक्त होकर इंग्लिश राष्ट्र के निकट आ जाएगा।'

पिछले दिनों केंद्रीय मंत्रिमंडल विस्तार के बाद स्वास्थ्य मंत्री बने मनसुख भाई मांडविया के अंग्रेजी ज्ञान का मजाक उड़ाना भारतीय समाज के लिए नई बात नहीं है। लीलावती लिखने वाले भास्कराचार्य हों या दुनिया के पहले सर्जन माने जाने वाले सुश्रुत सब यहीं के थे। जब उनका अस्तित्व था, तब अंग्रेजी विकासमान भी नहीं थी। इसके बावजूद पूरी दुनिया उनके ज्ञान को मानती है, पर उन्हीं के देश में पढ़ा-लिखा होने की बुनियाद अंग्रेजी बोलना और जानना है। आज विद्यार्थी गणित, विज्ञान, समाज विज्ञान, साहित्य आदि में चाहे कितना भी विद्वान क्यों न हो, भारतीय मानसिकता उसे उस तरह पढ़ा-लिखा नहीं मानती, जिस तरह अंग्रेजी बोलने वाले को माना जाता है। कोरोना की वजह से हर दस साल पर होने वाली जनगणना इस बार नहीं हो रही। बहरहाल 1911 की जनगणना के भाषा खंड की प्रस्तावना में जो कहा गया है, उस पर हमें ध्यान देना चाहिए, जिसमें कहा गया था, 'भाषा आत्मा का वह रक्त है, जिसमें विचार प्रवाहित होते और पनपते हैं।'
मनसुख मांडविया की खराब अंग्रेजी का मजाक उड़ाने वालों में भी ज्यादातर ऐसे ही हैं, जिनके मूल विचार और उनकी आत्मा यानी मूल भाषा में पनपते और प्रवाहित होते रहते हैं। पर श्रेष्ठता बोध का भाव और रिचर्ड टेम्पल जैसे लोग की कोशिश का असर ही है कि वे भी खराब अंग्रेजी जानने का मजाक उड़ाने से नहीं चूक रहे। अंग्रेजी को लेकर यह श्रेष्ठता बोध ऐसा है, जहां से वापस लौटना अब आसान नहीं दिखता। भारत में जारी दोहरी शिक्षा व्यवस्था और कालांतर में सरकारी शिक्षा व्यवस्था के मुकाबले अंग्रेजी केंद्रित निजी शिक्षा के विस्तार ने पूरे भारत को अपनी भाषाओं के प्रति हीनता बोध बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। शासन में आने वाले लोग भले ही खुद अंग्रेजी बोलने-लिखने में सहज न हों, पर वे भी अंग्रेजी बोलने वाले वर्ग पर मोहित होते चले गए। इस वजह से भाषायी माध्यम के छात्र लगातार पिछड़ते चले गए। इसके बाद इस मान्यता को पोषित होना ही था कि समाज में रसूख हासिल करना है, तो अंग्रेजी बोलने के साथ उसकी जानकारी होनी चाहिए। यही वजह है कि सरकारी स्तर पर भी अंग्रेजी को पढ़ाई का माध्यम बनाने की मांग बढ़ी।
समाजवादी और राष्ट्रवादी, दोनों ही वैचारिक धाराएं सैद्धांतिक रूप से भारतीय भाषाओं पर अंग्रेजी को तवज्जो देने के खिलाफ रही हैं। लेकिन अब स्थिति ऐसी है कि चाहे किसी भी धारा की राज्य सरकार हो, वह धड़ाधड़ अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई का विस्तार करती जा रही है। अंग्रेजी से किसी को विरोध नहीं होना चाहिए। 'अंग्रेजी हटाओ' आंदोलन के अगुआ लोहिया भी ऐसा ही मानते थे। पर वह अंग्रेजी मानसिकता के विरोधी थे। हो यह रहा है कि अंग्रेजी के साथ अंग्रेजियत का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। इसी का असर है कि केंद्रीय मंत्री को नीचा दिखाने की कोशिश हुई। यह ठीक है कि महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में स्थानीय भाषाओं की इज्जत अंग्रेजी से कम नहीं है। पर यह भी सच है कि अंग्रेजी को विशेष तो माना ही जाता है। पर यह नहीं भूलना चाहिए कि इसी दौर में एक वर्ग ऐसा भी है, जो अंग्रेजी को जटिल मानते हुए भी उसके सामने झुकता नहीं। यह वर्ग भी अब मुखर होने लगा है। इसका असर सोशल मीडिया पर मांडविया प्रकरण में ही दिखा, जब लोगों का हुजूम मांडविया के समर्थन में उतर आया। इसलिए यह देखा जाना दिलचस्प होगा कि भाषायी संस्कृति का यह संघर्ष आगे किस बिंदु पर जाकर थमता है।
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