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हिमाचल में सत्ता की राजनीति ऊपर से नीचे तक और हर वर्ग के आसमान तक छाई रहती है
By: divyahimachal
हिमाचल में सत्ता की राजनीति ऊपर से नीचे तक और हर वर्ग के आसमान तक छाई रहती है, इसलिए सरकारों के गुण दोष में भी चिडिय़ां खेत चुग जाती हैं। ये चिडिय़ां बढ़ रही हैं और हम यानी हिमाचल का नागरिक समाज भी मुद्दों को सिर्फ चुग्गा ही समझने लगा है। इस हिसाब से जयराम सरकार का हिसाब वे ही करने लगे, जिन्होंने चिडिय़ा बन सत्ता का खेत सबसे अधिक चुगा। मोटे तौर पर पिछले तीन दशकों में सियासत का उद्घोष वाक्य है,'टूटने की प्रतीक्षा में लूटने की छूट'। हर सरकार के उदय से पतन तक प्रभाव, प्रभुत्व, अहंकार से रिसाव तक की कोई न कोई कहानी या कोई न कोई किरदार पैदा हो जाता है। जयराम सरकार के गठन का किरदार अब सुजानपुर सिंड्रोम की तरह क्यों हो गया या सत्ता की दीवारों पर पोस्टर क्यों बदल रहे हैं। हमारा मानना है कि जयराम ठाकुर का राजनीतिक कौशल अपने पूर्ववर्ती मुख्यमंत्रियों से काफी बेहतर है, भले ही बतौर मुख्यमंत्री उनके फैसलों की नरमी को गुनहगार ठहरा दिया जाए या यह प्रचार हो जाए कि उनकी सरकार का प्रदर्शन कमजोर रहा। राजनीतिक तौर पर उनके द्वारा लिए गए फैसलों में कई संतुलन ऐसे भी हैं जो पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल से भिन्न या परिस्थितियों को अनुकूल बनाते रहे। मसलन धूमल सरकार का खुलेआम विरोध करने वाले मंत्री एवं विधायक आज कहां हैं। किशन कपूर, रमेश धवाला, राजन सुशांत ही नहीं विपिन सिंह परमार और रविंद्र सिंह रवि जैसे नेता भी अपनी वरिष्ठता के ठूंठ यूं ही नहीं बन गए।
यहां उस जिद का उल्लेख भी होगा, जो बड़ी शालीनता से मुख्यमंत्री मंडी के संदर्भ में जोड़ देते हैं या उनके ड्रीम प्रोजेक्ट उनकी हस्ती का दबदबा बनाने की कोशिश करते हैं। इसमें दो राय नहीं कि इससे पूर्व मंडी से ऐसा कोई सफल प्रयोग नहीं हुआ जिससे सत्ता का लाभान्वित पद, पदक और प्रभाव दिखाई दे। निश्चित रूप से राजनीति की ऐसी परिस्थितियां जयराम ठाकुर के परिप्रेक्ष्य में तैयार हुईं, तो इसके साथ उनकी पृष्ठभूमि तसदीक होगी। राजनीति का एक तीसरा शिखर भी वह तैयार करते हैं और यह उनके मंत्रिमंडल का विभागीय आबंटन है। राजनीतिक तौर पर विश£ेषण करें तो मालूम हो जाएगा कि सत्ता की संपत्ति का आबंटन कहां सशक्त और कहां कमजोर रहा। यहां सवाल शिमला या हमीरपुर संसदीय क्षेत्रों से कहीं कांगड़ा की औकात का भी पैदा होता है, लेकिन एक साथ तीन नगर निगम बनाने वाले जयराम कांगड़ा के विभाजन को स्र्माटली खारिज कर देते हैं। यहां पुन: इस प्रश्र पर उनके सामने धूमल का वर्चस्व आता है जो हरसंभव तरीके से कांगड़ा के विभाजन को अपनी जिद बना देते हैं। दोनों ही संदर्भों में कांगड़ा की उपेक्षा का इतिहास आने वाले समय में देखा जाएगा, लेकिन यह श्रेय जयराम को जाएगा कि उनके कार्यकाल में कांगड़ा का ओबीसी व गद्दी समाज नेतृत्व विहीन हो गया। यहां के ब्राह्मण व राजपूत नेता भी अपने-अपने दड़बों तक ही सिमट गए।
आने वाले वर्षों में भाजपा की दृष्टि से कांगड़ा सिर्फ पिछलग्गू नेताओं की चरागाह बना रहेगा। ऐसे में सारी दुनिया और अपनी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को सबक देते शांता कुमार का सदैव जयराम सरकार को आशीर्वाद देना, जाहिर तौर पर वर्तमान मुख्यमंत्री का अद्भुत कौशल है। यह दीगर है कि पालमपुर में सोशल मीडिया का एक साम्राज्य खुद में जिला ढूंढता है, लेकिन पंद्रह विधानसभाई क्षेत्रों की बदौलत भी जो क्षेत्र अपना राजनीतिक प्रभाव नहीं बना पाया, वह मात्र चार विधानसभा क्षेत्रों तक सिमट कर क्या हासिल कर पाएगा। इतना ही नहीं आज के कांगड़ा में चंबा जिस कद्र समाहित है, उसमें गद्दियों की भूमिका में राजनीति की तासीर बदली है। यहां भौगोलिक, राजनीतिक ही नहीं, आर्थिक रूप से भी कई विधानसभा क्षेत्रों की प्रवृत्ति बदल रही है। कांगड़ा की सामाजिक, सांस्कृतिक व ऐतिहासिक संरचना फिर से चौधरी, गद्दी, राजपूत व ब्राह्मण नेतृत्व में एक सहमति खोज रही है। यह जिला के विभाजन के बजाय पूरे संसदीय क्षेत्र में चंबा तक समझनी होगी।
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Rani Sahu
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