सम्पादकीय

हड़ताल की नौबत

Neha Dani
26 Nov 2020 2:41 AM GMT
हड़ताल की नौबत
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कोरोना के समय जब हमारी अर्थव्यवस्था का आकार घट रहा हो

जनता से रिश्ता वेबडेसक| कोरोना के समय जब हमारी अर्थव्यवस्था का आकार घट रहा हो, हम तकनीकी रूप से मंदी के दौर से गुजर रहे हों, तब भारतीय बैंकों में हड़ताल दुखद और चिंताजनक है। ऑल इंडिया बैंक इंप्लाइज एसोसिएशन ने 26 नवंबर को एक दिवसीय देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया है, जिसमें दस केंद्रीय ट्रेड यूनियन से जुडे़ कर्मचारी शामिल होंगे। सिर्फ भारतीय मजदूर संघ हड़ताल में शामिल नहीं है, तो उसके पक्ष को समझा जा सकता है। बैंककर्मियों का मानना है कि सरकार लगातार उनके हित के विरुद्ध काम कर रही है। उनको शिकायत है, भारत में व्यवसाय को आसान बनाने के नाम पर सरकार ने श्रम से जुडे़ 27 कानूनों की जगह तीन श्रम कानून पारित किए हैं। इन तीन श्रम कानूनों के जरिए श्रम सुधार की कोशिश सरकार करती दिख रही है, पर श्रमिक संगठनों को लगता है, इसके जरिए सरकार केवल कॉरपोरेट के हित में सोच रही है। बैंककर्मियों को आशंका है, करीब 75 प्रतिशत श्रमिक नौकरी से बाहर हो जाएंगे। पूरे देश में लगभग चार लाख बैंककर्मियों के हड़ताल पर रहने की आशंका है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का कामकाज प्रभावित होने के साथ ही कुछ पुराने निजी बैंक और कुछ विदेशी मूल के बैंकों में भी कामकाज पर असर पड़ेगा।

नए श्रम कानूनों के विरोध के अलावा बैंककर्मी बैंकों के निजीकरण, आउटसोर्सिंग और अनुबंध प्रणाली का भी विरोध कर रहे हैं। वे बड़े पैमाने पर भर्ती की भी मांग कर रहे हैं। इसके साथ ही कॉरपोरेट डिफॉल्टरों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की भी मांग कर रहे हैं। वाकई, सरकार को हड़ताल की नौबत से बचना चाहिए था। श्रमिक संगठनों को विश्वास में लेना और बैंकिंग क्षेत्र में सुधार आज की बड़ी जरूरत है। बैंक प्रबंधन व सरकार के बीच संवाद का अभाव भी असंतोष की एक वजह है। इसमें कोई शक नहीं, किसी भी संगठित क्षेत्र में निजीकरण या निजीकरण के अनुरूप नीतियां आसानी से स्वीकार नहीं होती हैं। कर्मचारियों ने जो सुविधाएं हासिल की हैं, उसके लिए उन्होंने लंबा संघर्ष किया है, पर यदि एक-एक कर सुविधाएं कम होती जाएंगी, तो चिंता वाजिब है। श्रम सुधार जरूरी हैं, पर उससे भी जरूरी है कर्मचारियों में संतोष का भाव।

बडे़ पैमाने पर जिस तरह से बैंकों में घोटाले होते हैं, बड़े कर्जदार अपने रसूख का कैसे इस्तेमाल करते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। एनपीए का एक बड़ा हिस्सा सियासी उदारता का परिणाम है। किसानों, गरीबों से पूरी कड़ाई से कर्ज वसूली करने वाला सरकारी तंत्र किसी बड़े उद्योगपति के सामने समझौते की मुद्रा में क्यों दिखता है? बैंकों को यथोचित नियमों के तहत अगर चलाया जाए, तो शायद कथित रूप से कडे़ सुधार या हड़ताल की जरूरत नहीं पड़ेगी। इस बीच, आम ग्राहकों के बारे में कौन सोच रहा है? हड़ताल के पहले, हड़ताल के समय और हड़ताल के बाद अंतत: भुगतान तो आम ग्राहकों को ही करना है। हड़ताल करने वालों के साथ ही, हड़ताल रोकने में नाकाम कर्णधारों और बैंकों को चूना लगाने वालों को भी आम ग्राहकों के बारे में सोचना चाहिए। आज हमारी अर्थव्यवस्था ऐसे दौर में है, जहां बैंकिंग जैसे क्षेत्र में हमें विरोध के दूसरे तरीके खोजने होंगे, ताकि हड़ताल की नौबत न आए। कोरोना के समय में यही उम्मीद की जा सकती है कि ऐसी हड़ताल से देश को कम से कम नुकसान हो।

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