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बिहार में शराबबंदी पर सख्ती
अंकुर झा।
बिहार में शराबबंदी (Liquor Ban In Bihar) और शराब बिक्री को लेकर सरकार की सख्ती परिहास का पर्याय बनी हुई है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की महत्वाकांक्षी सोच, शराब माफियाओं की बोतल और लोगों की गिलास में डूबकर दम तोड़ रही है. कानून बनने के 68 महीने बाद भी शराबबंदी सवालों में है. क्योंकि मान्यताप्राप्त दुकानें भले ही बंद हैं मगर देसी-विदेशी कमोबेश हर ब्रांड की शराब मिल रही है. और जितनी चाहिए उतनी मिल रही है. परेशान करने वाली बात ये है कि ये गांव-शहर-कस्बा जहां खोजिए.. वहां मिल रही है.
16 अक्टूबर को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने शराबबंदी पर कड़ाई को लेकर बैठक बुलाई थी. 8 घंटे तक मैराथन मीटिंग चली. मुख्यमंत्री और तमाम अफसरों के साथ हुई बैठक के बाद डीजीपी मीडिया के सामने आए. शराबबंदी को और ज्यादा सख्त करने को लेकर जो लंबी-चौड़ी बातें उन्होंने बताई, उसका सारांश ये है कि शराब की बिक्री हुई तो गांव के चौकीदार जिम्मेदार होंगे. साथ में थानेदार पर कार्रवाई होगी. यानि थानेदार-चौकीदार को जिम्मेदार ठहराकर सरकार ने शराबबंदी को और मजबूत करने की कोशिश की.
बिहार में बिकती है हरियाणा की शराब
संयोग देखिए.. बैठक के चंद घंटे बाद सचिवालय से चंद किलोमीटर की दूरी पर, पटना में ही शराब की बोतलें मिलीं. एक शख्स ठेले पर शराब लेकर जा रहा था. हालांकि पुलिस ने उसे पकड़ लिया. लेकिन ये अंदाज़ा लगाइए कि शराब बिक्री की क्या स्थिति है बिहार में. अगर पटना में खुलेआम शराब बिक रहा है. मिल रहा है तो छोटे-छोटे कस्बो-गांवों में क्या स्थिति होगी? वही है, जो बहुत भयावह है. गांव-गांव में शराब मिलती है. और आप जानकर दंग रह जाएंगे कि बिहार के गांवों में हरियाणा की शराबें मिलती हैं.
हरियाणा से बिहार का मधुबनी ज़िला 1296 किलोमीटर दूर है. करीब तेरह सौ किलोमीटर दूर शराब पहुंचती है. वो भी एक बोतल.. दो बोतल नहीं. कार्टन के कार्टन. जितनी जरूरत होती है, उतनी पहुंचती है. आपको खुलेआम नहीं मिलेगी, छिपकर मिलेगी. दिन में नहीं मिलेगी, रात में मिलेगी. चौक-चौराहे पर नहीं मिलेगी, कोने में ले जाकर खेतों में मिलेगी. लेकिन मिल जाएगी. और इसी का नतीजा है जहरीली शराब पीकर लोग मर रहे हैं. बिहार में पिछले 20 दिनों में 70 लोगों की जान जा चुकी है.
क्या सिर्फ चौकीदार और थानेदार ही शराब बिक्री के लिए जिम्मेदार हैं
शराबबंदी में शराब पीकर लोगों की मौत के बाद बिहार में जबरदस्त बवाल हुआ. सुशासन बाबू की नीति पर, शराबबंदी पर और शराब के खिलाफ सख्ती पर सवाल उठे. लोगों की मौत के बाद विपक्ष के साथ-साथ बीजेपी नेताओं के हमले के बाद नीतीश कुमार ने कहा है कि "राजनीतिक दलों को ये प्रचारित करना चाहिए कि शराब पीयोगे तो मरोगे". नीतीश कुमार जब ये बयान दे रहे थे, तब वो अपनी शराबबंदी वाली सोच के खिलाफ उठे सवाल को लेकर नाराज थे. लेकिन सवाल ये भी है कि शराब पीयोगे तो मरोगे.. ये तो जगजाहिर है. शराब की बोतल पर मोटी-मोटी अक्षरों में लिखा रहता है. फिर भी लोग पीते हैं. और इसीलिए सरकार ने शराबबंदी भी की.
खैर, शराबबंदी वापसी की मांग और शराब माफियाओं पर कड़ी कार्रवाई के दबाव के बीच मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने समीक्षा बैठक बुलाई थी. शराबबंदी जारी रहने का फैसला हुआ. और फिर चौकीदार-थानेदार की जिम्मेदारी नए सिरे से तय की गई. लेकिन सवाल यहीं से उठ रहा है कि क्या अब भी सरकार को लगता है कि चौकीदार और थानेदार ही शराब बिक्री के लिए जिम्मेदार हैं? क्या बड़े अधिकारी इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं? या फिर आगे का सवाल ये भी है कि क्या पुलिसवालों की तरह चुने हुए नुमाइंदे मसलन मुखिया से लेकर विधायक-सांसद तक की जिम्मेदारी नहीं तय होनी चाहिए?
संभव है कि ये सवाल अजीब लगेंगे, लेकिन इसे समझिए ज़रा. हरियाणा से अगर मधुबनी शराब पहुंचती है तो क्या ये थानेदार या चौकीदार की मर्जीभर से संभव हो पाता है? क्या ये मुमकिन है कि पुलिस के आला अधिकारियों की जानकारी के बगैर हरियाणा से शराब बिहार पहुंचाई जाती है? क्योंकि जिस हिसाब से गांवों और कस्बों में शराब मिलती है, उससे साफ है कि ट्रक के ट्रक कार्टन शराब पहुंचाई जाती है. ऐसे में अगर उस जिले के अफसरों को शराब तस्करी की जानकारी नहीं है और इतनी बड़ी मात्रा में शराब मिल रही है तो सबसे पहले उनपर कार्रवाई क्यों नहीं होनी चाहिए?
बड़े-बड़े लोग शामिल हैं शराब बिक्री में
अब बात चुने हुए नुमाइंदों की. उनकी जिम्मेदारी तय करने की तीन वजहें हैं. पहली वजह ये कि इलाके के विधायक/सांसद/मंत्री के संरक्षण के बिना करोड़ों की ये तस्करी संभव नहीं है. वो भी तब जबकि मुख्यमंत्री इसके खिलाफ हैं. शराबबंदी के बावजूद बिहार में शराब की बिक्री सीधे-सीधे नीतीश कुमार की 17 बरसों की छवि पर धब्बा है. दूसरी वजह ये कि मुखिया से लेकर विधायक-सांसद के चुनाव में शराब बांटी जा रही है. इस वक्त बिहार में मुखिया चुनाव हो रहा है. शायद ही कोई ऐसा टोला-मोहल्ला-पंचायत हो, जहां शराब की खपत नहीं बढ़ी हो. और तीसरी वजह ये कि किसी चौकीदार से ज्यादा पहुंच वार्ड मेंम्बर के पास होता है. गांव में एक-दो चौकीदार होता है, जबकि 10 से 12 वार्ड मेम्बर होते हैं. इसके अलावा गांव के मुखिया के पास हर एक जानकारी होती है. इसलिए अगर थानेदार-चौकीदार के साथ-साथ सरकार वार्ड मेंबर से लेकर मुखिया और विधायक-सांसद तक की जिम्मेदारी तय कर दे तो शराबबंदी पूरी तरह लागू होने की संभावना ज्यादा बढ़ जाएगी.
अगर आपको लगता है कि विधायक-सांसद-मंत्री की मर्जी के बगैर शराब की तस्करी होती है तो शायद आप चूक रहे हैं. संभव है कि हर विधायक-सांसद-मंत्री को पता न हो, लेकिन ज्यादातर ये जानते हैं. नहीं तो हरियाणा से बिहार तक शराब की तस्वीर संभव कैसे हो पाएगी? कोई एक आदमी हरियाणा से शराब ले जाकर मधुबनी या पूर्णिया में नहीं बेचता है. ये चेन है. इसमें कई लोग शामिल होते हैं, और ये चेन किसी ताकतवर संरक्षण के बिना नहीं चल सकता. ये सबको पता है. और ये भी पता है कि वो ताकतवर होने का मतलब क्या होता है?
बिहार में अवैध शराब का कारोबार बहुत बड़ा है
बिहार में अवैध शराब का कारोबार इतना बड़ा है कि बिहार के पूर्व डीजीपी गुप्तेश्वर पांडे ने कहा था कि एक अप्रैल 2016 से 31 मार्च 2019 तक हर मिनट कम से कम 3 लीटर शराब बरामद हुई है. साथ 10 मिनट के अंदर एक गिरफ्तारी भी हुई है. एक आंकड़ा कहता है कि 2016 से 2020 के बीच 52 लाख लीटर शराब जब्त की गई. शराब तस्करी से जुड़े 2 लाख 55 हजार केस भी दर्ज किए गए. साथ में 3 लाख 38 हजार 401 लोगों की गिरफ्तारी भी हुई. लेकिन सजा सिर्फ 470 लोगों को ही हुई है. इसी से बिहार में शराबबंदी और उसको लेकर सख्ती का अंदाज़ा लगाइए. और हां, अब भी ये मत पूछिए कि शराबबंदी से विधायक-सांसद-मंत्री की जिम्मेदारी तय करने की जरूरत क्यों है?
जाहिर है कि शराबबंदी नीतीश कुमार की जितनी महत्वाकांक्षी योजना है, उससे ज्यादा बिहार के लोगों के लिए जरूरी भी है. खासकर महिलाओं के लिए किसी वरदान से कम नहीं है. लेकिन शराबबंदी की सख्ती की जिम्मेदारी सिर्फ थानेदार या फिर चौकीदार के ऊपर छोड़कर इतिश्री नहीं की जा सकती है. जब तक बड़े स्तर पर इसकी जिम्मेदारी तय नहीं होगी, जब तक अधिकारी और नेताओं को इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जाएगा, तब तक शराबबंदी की सफलता की कोई गारंटी नहीं होगी.
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