सम्पादकीय

किसानों की बेजा मांगों पर सख्ती की जरूरत, मांगों के समर्थन में राष्ट्रपिता की प्रतिमा का निरादर करना निंदनीय

Neha Dani
14 Dec 2020 2:01 AM GMT
किसानों की बेजा मांगों पर सख्ती की जरूरत, मांगों के समर्थन में राष्ट्रपिता की प्रतिमा का निरादर करना निंदनीय
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कृषि कानूनों के खिलाफ कुछ किसान संगठनों का आंदोलन जिस राह पर जा रहा है उसे देखते हुए |

जनता से रिश्ता वेबडेस्क| कृषि कानूनों के खिलाफ कुछ किसान संगठनों का आंदोलन जिस राह पर जा रहा है उसे देखते हुए यह कहना कठिन है कि जल्द किसी समाधान तक पहुंचा जा सकेगा। दिल्ली आ धमके किसान संगठन केवल अड़ियल रवैये का ही परिचय नहीं दे रहे हैं, बल्कि ऐसी अतार्किक मांगें भी सामने रख रहे हैं जिसे किसी भी सरकार के लिए मानना संभव नहीं। आखिर इसका क्या औचित्य कि चंद किसान संगठनों की मांगों को देश भर के किसानों की मांग मान लिया जाए? यह प्रतीति कराना एक तरह की जोर-जबरदस्ती ही है कि जो कुछ पंजाब के किसान संगठन चाह रहे हैं वही देश भर के किसानों की भी मांग है। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुट्ठी भर किसान संगठनों के अलावा देश के अन्य किसान संगठनों ने खुद को उस आंदोलन से दूर रखा हुआ है जिसने दिल्ली और आसपास के इलाके की जनता को त्रस्त कर रखा है। दिल्ली में डेरा डाले किसान संगठन जिस तरह अलग-अलग सुर में बात कर रहे हैं और जनता को बंधक बनाने के साथ-साथ सरकार को धमका रहे हैं उससे यह समझना कठिन है कि वस्तुत: वे चाहते क्या हैं? पहले वे न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था को मजबूत बनाने और अनुबंध खेती के नियमों में बदलाव की मांग कर रहे थे, लेकिन अब ये जिद कर रहे हैं कि तीनों कृषि कानून रद कर दिए जाएं। यह बेजा मांग है और इसे हरगिज नहीं माना जाना चाहिए।

किसान संगठनों की बेजा मांगों के प्रति सख्त रवैया दिखाने की आवश्यकता इसलिए भी बढ़ती जा रही है कि उन्हें समर्थन देने के नाम पर अराजकता का भी सहारा लिया जाने लगा है। गत दिवस वाशिंगटन में खालिस्तानी तत्वों ने किसानों को समर्थन देने के बहाने जिस तरह गांधी जी की प्रतिमा का निरादर किया और हिंसा को सही ठहराने की कोशिश की उससे तो इसकी पुष्टि होती है कि इस आंदोलन में नक्सली, खालिस्तानी और अन्य अतिवादी तत्व हावी हो गए हैं। इसकी जितनी निंदा की जाए वह कम है कि कोई अपनी किसी मांग को लेकर राष्ट्रपिता की प्रतिमा का निरादर करे। किसान हित के बहाने जो लोग भी हिंसक तत्वों की पैरवी कर रहे हैं और गांधी जी का निरादर करने वालों के खिलाफ मुंह खोलने से बच रहे हैं उनके प्रति सख्ती दिखाने में संकोच नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि यह तथाकथित किसान आंदोलन दिल्ली के लिए एक बड़ा सिरदर्द साबित हो सकता है-ठीक वैसे ही जैसे शाहीन बाग में हुआ था।
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