सम्पादकीय

सख्त कार्रवाई की जरूरत: राष्ट्र को शर्मिंदा करने वाली अराजकता की भेंट चढ़ा किसान आंदोलन

Neha Dani
28 Jan 2021 2:03 AM GMT
सख्त कार्रवाई की जरूरत: राष्ट्र को शर्मिंदा करने वाली अराजकता की भेंट चढ़ा किसान आंदोलन
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राष्ट्र को शर्मिंदा करने वाली अराजकता की भेंट चढ़े किसान आंदोलन के उन गैर-जिम्मेदार नेताओं पर केवल एफआइआर दर्ज |

राष्ट्र को शर्मिंदा करने वाली अराजकता की भेंट चढ़े किसान आंदोलन के उन गैर-जिम्मेदार नेताओं पर केवल एफआइआर दर्ज होना ही पर्याप्त नहीं। उन्हेंं गिरफ्तार कर ऐसे जतन भी किए जाने चाहिए, जिससे उन्हेंं उनके अपराध की सजा मिले और फिर कोई समूह-संगठन वैसा दुस्साहस न कर सके, जैसा गणतंत्र दिवस पर देखने को मिला। किसानों की आड़ में नेतागीरी करने वालों को बेनकाब करना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि उनमें से ज्यादातर का खेती-किसानी से कोई लेना-देना नहीं। वे या तो आदतन आंदोलनबाज हैं अथवा किसानों के नाम पर अपनी राजनीतिक दुकान चलाने वाले स्वार्थी तत्व। वास्तव में इसी कारण किसान संगठनों की सरकार से लंबी बातचीत किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाई। यह बातचीत तब नाकाम हुई, जब सरकार लगातार नरमी का परिचय दे रही थी और सुप्रीम कोर्ट भी किसान आंदोलन का संज्ञान ले रहा था। अड़ियल, अहंकारी और संदिग्ध इरादों वाले स्वयंभू किसान नेताओं के कारण ही दिल्ली में डेरा डाले किसान आंदोलन में अराजक और सरकार विरोधी तत्वों ने घुसपैठ की। तथाकथित किसान नेताओं ने पहले तो इन तत्वों को संरक्षण दिया और जब गणतंत्र दिवस पर उन्होंने दिल्ली में भीषण उत्पात मचाया तो वे उनसे पल्ला झाड़कर बच निकलने की ताक में हैं।

किसान नेताओं की मानें तो अराजक तत्वों का सरगना दीप सिद्धू लाल किले की शर्मनाक घटना के लिए जिम्मेदार है। सवाल है कि क्या केवल इसी लफंगे के साथियों ने दिल्ली में दर्जनों जगह उपद्रव किया? क्या आतंक का पर्याय बन गए उन तमाम ट्रैक्टरों पर दीप सिद्धू के ही दंगाई सवार थे, जो दिल्ली को जगह-जगह रौंद रहे थे? आखिर जब ऐसा हो रहा था, तब किसान नेताओं के कथित कार्यकर्ता क्या कर रहे थे? ऐसे सवालों से किसान नेता इसलिए नहीं बच सकते, क्योंकि वे अपने समर्थकों को इसके लिए खुद ही उकसा रहे थे कि दिल्ली पुलिस की ओर से तय शर्तों की परवाह न की जाए। यह भी जग जाहिर है कि वे इससे लगातार आंखें मूंदे रहे कि उनके आंदोलन में किस तरह खालिस्तानी तत्व सक्रिय होते जा रहे हैं? यदि इन नेताओं में थोड़ी भी शर्म होती तो वे तुरंत अपना आंदोलन खत्म करने की घोषणा करते, लेकिन ज्यादातर ऐसा करने से इन्कार कर रहे हैं। साफ है कि उन्हें अपने किए पर कोई पछतावा नहीं। वे इसके बावजूद हठधर्मी दिखा रहे हैं कि दो किसान संगठनों ने गणतंत्र दिवस पर हुई हिंसा से शर्मिंदा होकर खुद को इस आंदोलन से अलग कर लिया है। स्पष्ट है कि जो अभी भी आंदोलन जारी रखने पर आमादा हैं, वे न तो किसानों के नेता हैं और न उन्हें देश के मान-सम्मान की कहीं कोई परवाह है।


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