सम्पादकीय

समान नागरिकता में ही राष्ट्र की मजबूती : आजादी के 75 साल बाद समाज में गंभीर विमर्श की जरूरत पर जोर

Neha Dani
21 Sep 2022 1:51 AM GMT
समान नागरिकता में ही राष्ट्र की मजबूती : आजादी के 75 साल बाद समाज में गंभीर विमर्श की जरूरत पर जोर
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अनिवार्य दुष्परिणामों की कल्पना कर लेनी चाहिए।

आजादी के 75 साल बाद गंभीर विमर्श का एक विषय यह भी होना चाहिए कि पहले और दूसरे विश्व युद्ध के बीच और दूसरे विश्व युद्ध के बाद ऐसा क्यों हुआ कि कुछ नई-नई ताकतें उभरीं, कुछ देश संभावनाओं के बाद भी ताकतवर नहीं बन पाए, कुछ बनकर बिखर गए या उपनिवेशवाद के उन्मूलन के बाद भी कोई नई उपनिवेशवादी ताकत क्यों दिन ब दिन शक्तिशाली होती जा रही है।



या 'विश्व विजेता' सिकंदर 'महान' को झेलम के तट पर एक छोटे राजा पुरु ने विजय से क्यों वंचित कर दिया और थकी-हारी सेना के कमांडर सिकंदर का वापसी पर कुछ दिन बाद निधन हो गया। या मौर्य जाति के सम्राट चंद्रगुप्त तपी-तपाई यूनानी सेना को अफगानिस्तान तक खदेड़कर घुटने टेकने के लिए मजबूर करने में क्यों कामयाब हुए। या बाबर ने वन डे मैच की तरह पानीपत में इब्राहिम लोदी और खानवा में कई राजपूत सेनाओं के प्रधान सेनापति राणा सांगा को क्यों हरा दिया।


या दुनिया की सबसे बड़ी थल सेना के स्वामी सम्राट अकबर के जीवन काल में ही दूर-दराज से आई औपनिवेशिक शक्तियां कैसे पैर जमाने लगीं। या प्रतापी औरंगजेब की सेना को छोटे अहोम राजा ने भागने को कैसे बाध्य कर दिया। या टापू देश, ब्रिटेन के व्यापारी फ्रांस, पुर्तगाल और डच ताकतों को परास्त कर देसी राजे-रजवाड़ों को वशीभूत करते हुए भारत में साम्राज्य किस प्रकार कायम कर बैठे।

सैकड़ों साल बाद इन हार-जीतों का कोई एक कारण नहीं बताया जा सकता। लेकिन एक कारक शताब्दियों के इतिहास में अनिवार्यतः विद्यमान रहा है। वह यह है : कोई बनता हुआ साम्राज्य या बन चुका साम्राज्य, शक्तिवान बनने का महत्वाकांक्षी देश या नवोदित राष्ट्र, खासतौर से विविधतापूर्ण समाज भावनात्मक स्तर पर एकजुट है या नहीं। अंतर्विरोधों का समाधान करते हुए संपूर्ण समाज को मर्मांतक मुष्टिक प्रहार की मुद्रा में ढाल पाने में कोई कितना सफल रहा है।

यह भी देखना होगा कि यह प्रक्रिया कहीं बाधित तो नहीं हो रही। हजारों साल की सांस्कृतिक एकता के बावजूद, अंधकार के एक दौर के बाद,1947 में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों से प्राप्त जिस विशाल प्रशासकीय तंत्र को 1950 में भारत की उच्चतम मेधाओं ने संविधान प्रदान कर सर्व समावेशी संघीय गणतंत्र का रूप दिया, उसकी चट्टानें हिमालय की भांति हैं; अफ्रीकी पर्वत माला का रूप लेने के लिए जो वक्त लगता है, वह तो लगेगा ही।

भारत जैसे गणतांत्रिक देश में इसका अर्थ यह हुआ कि समान नागरिकता का बोध लगातार मजबूत हो रहा है या नहीं, संविधान और गणतंत्र के प्रति आस्था क्षीण तो नहीं हो रही, विधि के शासन का क्षरण तो नहीं हो रहा और कुल मिलाकर अभिकेंद्रीय तत्व सुदृढ़ हो रहे हैं अथवा अपकेंद्रीय। कुछ घटनाओं से सहज निष्कर्ष निकलता है कि हमारे माथे पर चिंता की लकीरें साफ दिखाई पड़नी चाहिए। गौर करें।

किसी शहर के एक अपार्टमेंट में दबंग निवासी सोसाइटी के नियमों के विपरीत अवैध कब्जा कर लेता है, विरोध करने पर अन्य निवासियों को धमकाता है, मारपीट पर उतर आता है, मुस्टंडे बुला लेता है, राजनीतिक वजहों से हीला-हवाली के बाद पुलिस कार्रवाई करती है, तो घटनाक्रम बिलकुल दूसरा मोड़ ले लेता है। उस दबंग की बिरादरी सड़कों पर आने लगती है, चार-पांच घंटे टोल फ्री करा लिया जाता है, सभाएं होने लगती हैं, बेमियादी धरने का एलान कर दिया जाता है और कानून के हाथ ढीले पड़ने लगते हैं।

कानून का पालन करते हुए कोई अधिकारी एक सहयोगी भाषा के प्रयोग का निर्देश देता है। इस पर उसे अविलंब निलंबन का सामना करना पड़ता है। संविधान की कसम खाने वाला एक व्यक्ति, जिसकी बिरादरी सामाजिक न्याय और समानता के लिए संघर्षरत रही है, मांग करता है कि अमुक धर्मानुयायियों के उपासना स्थलों के पास से फलां उपासना स्थलों को हटा दिया जाए।

सद्भाव पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाली, एक नया मुद्दा खड़ा करने की इस कोशिश पर हर तरफ सन्नाटा बना रहता है। बुलडोजर के इस्तेमाल पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद भी किसी राज्य के वक्फ बोर्ड का नवनियुक्त अध्यक्ष अपनी प्राथमिकता घोषित करता है, 'वक्फ की जमीनों पर से अवैध कब्जा हटाने के लिए हम अपना बुलडोजर खरीदेंगे', तो उसके नंबर बढ़ जाना लाजमी है।

एक पीड़ित किसी मुख्यमंत्री से खराब सार्वजनिक निर्माण की शिकायत करता है। संबंधित ठेकेदार मुख्यमंत्री के जाने के फौरन बाद शिकायतकर्ता के घर पर बुलडोजर लेकर पहुंच जाता है। इस बेलगाम हौसले के पीछे राजनीतिक कारण होते हैं। अगर किसी समाज को मध्ययुगीन विश्वासों के शिकंजे में जकड़े रखने के दुराग्रह का विरोध न हो, तो खतरनाक लक्षणों की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए।

24 साल की विवाहिता पर उसकी ससुराल वाले 'अपवित्र' हो जाने का शक करते हैं। समाज के लोग महिला के 'शुद्धिकरण' के लिए उसके मायके वालों पर दस लाख का जुर्माना ठोक देते हैं। इसी तरह की यातना से गुजरने के बाद इस परिवार की एक लड़की ने एक साल पहले आत्महत्या कर ली थी। परंपरा के खिलाफ प्रेम करने या प्रेमविवाह कर लेने पर दंपति को बुरी तरह पीटने या जिंदा जला देने अथवा समस्त समुदाय को ही दंडित कर देने की वीभत्स घटनाएं समान नागरिकता के भाव के लकवाग्रस्त हो जाने का आभास नहीं करातीं?

सरेआम घसीटते हुए, खेतों में ले जाकर लड़की की इज्जत लूट ली जाती है। ऐसे मामलों में कानून अंधा नहीं रह पाता। पीड़िता और अपराधियों के जाति-धर्म व आर्थिक वर्ग के आधार पर चलने को कानून ऑटोमैटिक तरीके से विवश हो जाता है। मेडिकल परीक्षण और पोस्टमार्टम से पहले ही यकीन कराया जाने लगता है कि दुष्कर्म हुआ या नहीं।

अदालत में साबित बलात्कारियों के साथ नरम-नरम व्यवहार या बार-बार पैरोल पर छोड़ देना अपराधी की हैसियत से तय होता है। कोई जरूरी नहीं, सजा में माफी का पैमाना कानून के दायरे में हो। विधि का सार्वभौमिक शासन कमजोर होता रहे और नागरिकों के बीच नफरत की दीवारें तोड़ने के लिए हाथ न उठें, तो अनिवार्य दुष्परिणामों की कल्पना कर लेनी चाहिए।

सोर्स: अमर उजाला

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