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- पराली की तपिश
खेतों में पराली जलाए जाने की समस्या से निपटने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने सख्ती दिखाते हुए अपने ही पूर्व न्यायाधीश एम.बी. लोकुर की अध्यक्षता में समिति बना दी है। यह समिति कई निगरानी तंत्र के रूप में काम करेगी। सर्वोच्च अदालत ने राज्यों के मुख्य सचिवों को निर्देश दिया है कि किसी भी हालत में किसानों को पराली जलाने से रोका जाए और लाेकुर समिति के काम में हर तरह से मदद की जाए। पिछले कुछ सालों से सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप और कड़े निर्देशों के बावजूद पराली का जलना रुक नहीं पा रहा। पंजाब, हरियाणा सहित उन सभी राज्यों को जहां हर वर्ष किसान पराली जलाते हैं सुप्रीम कोर्ट सख्त निर्देश और एक्शन लेने की चेतावनी देता रहा है।
अदालत के डर और दबाव में राज्य सरकारों ने कुछ कदम भी उठाए लेकिन राज्य सरकारें किसानों को प्रताड़ित नहीं कर सकतीं क्योंकि इससे जनाक्रोश फैल सकता है। सिर्फ अदालती सख्ती से किसानों को पराली जलाने से रोक पाना सम्भव नहीं जब तक धरातल पर व्यावहारिक उपाय नहीं किए जाते। किसानों की शिकायत है कि राज्य सरकारें उन्हें अवशेष न जलाने की एवज में मुआवजा नहीं देती। पराली के निपटारे के लिए खरीदी जाने वाली मशीनरी के लिए ऋण भुगतान करने में वे सक्षम नहीं हैं। मशीनों का किराया भी ज्यादा है। कोरोना के चलते भी कृषि मानव श्रम की हिस्सेदारी कम हुई है।
हाल ही में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान ने एक सस्ता और सरल उपाय ढूंढा है। उसने एक ऐसा घोल तैयार किया है, जिसका पराली पर छिड़काव करने से उसका डंठल गल जाता है और वह खाद में तब्दील हो जाता है। वैज्ञानिक लगातार चिंता जता रहे हैं कि पराली जलाने की प्रक्रिया में कार्बन डाईआक्साइड और घातक प्रदूषण के कण अन्य गैसों के साथ हवा में घुल जाते हैं जो सेहत के लिए घातक साबित होते हैं।
पराली को लेकर किसी भी तरह की सियासत नहीं होनी चाहिए। वार-पलटवार की राजनीति भी उचित नहीं। कहा जा रहा है कि वायु प्रदूषण में पराली से निकलने वाले धुएं की िहस्सेदारी चार फीसदी है। हालांकि यह समय के हिसाब से घटती-बढ़ती रहती है और चार से 40 फीसदी तक रहने की जहां तक बात है तो पिछले वर्ष एक एजैंसी ने पराली जलाने से होने वाले धुएं में पंजाब-हरियाणा की हिस्सेदारी 40 फीसदी बताई थी। सवाल चार से 40 फीसदी तक का नहीं होना चाहिए। असली मुद्दा यह है कि पराली को किसी भी तरीके से जलाया जाना बंद किया जाए। प्रदूषण का एक मात्र कारण पराली जलाया जाना नहीं है। धूल और वातावरण में नमी मिलकर हवा की गति की समस्या पैदा कर देती है। वाहनों से निकलने वाला धुआं, जगह-जगह कचरा जलाना, निर्माण कार्यों से उड़ती धूल, छोटी फैक्ट्रियां आदि ऐसे कारण हैं जो हवा को निरंतर खराब कर रहे हैं। दिल्ली सरकार ने इस बार कई निकायों को जुर्माना लगाकर सख्ती का संदेश दिया है मगर स्थानीय निकाय लापरवाही से काम कर रहे हैं। दिल्ली के चारों ओर बने कूड़े के पहाड़ों में आग लगती रहती है। कूड़े में आग उसके भीतर से पैदा होने वाली मिथेन गैस से लगती है। दिल्ली की सड़कों पर लाखाें दुपहिया और चार पहिया वाहन दौड़ रहे हैं जिनकी अवधि भी पूरी हो चुकी है। ऐसे में हवा कैसे साफ रह सकती है।
किसान पराली जलाते ही क्यों हैं, इसके अलग-अलग कारण हैं। पराली जलाने के सिलसिले ने 1998-99 में जोर पकड़ा। उस दौरान सरकार की ओर से कृषि वैज्ञानिकों ने गांव-गांव में कैम्प लगाकर किसानों को जागरूक किया था कि फसल काटने के बाद जल्द से जल्द खेत की सफाई करें। ऐसा करने से फसल की पैदावार बढ़ जाएगी और फसल को नुक्सान पहुुंचाने वाले कीट मर जाएंगे। वैज्ञानिकों की मंशा ठीक थी लेकिन उसका प्रभाव विपरीत हो गया। किसानों ने फसल काटने के बाद बचे अवशेषों को जलाकर खत्म करना शुरू कर दिया। यह सब खेत क्लीनिंग योजना के तहत हो रहा था। हाथों से फसल की कटाई की बजाय मशीनों के उपयोग से पराली खेत में ज्यादा मात्रा में बचने लगी। कुछ वर्षों से किसानों में एक भ्रम फैल गया कि पराली जलाने से खेत की उपजाऊ शक्ति बढ़ती है जबकि हो इसके उलट रहा है। खेत में किसान मित्र कीट जैसे केंचुआ आदि मर जाते हैं और साथ ही खेत की नमी भी कम हो जाती है। किसानों को जागरूक करने की जरूरत है कि पराली जलाने से खेत की उर्वरक शक्ति कम होती है। खेत क्लीनिंग के कारगर उपाय तलाशे जाने चाहिएं। अगर खेत की सफाई में ही किसान को ज्यादा खर्च करना पड़ेगा तो उसकी लागत काफी बढ़ जाएगी। इसके लिए कृषि वैज्ञानिकों को ठोस उपायों की तलाश करनी होगी, जिससे छोटे और मझोले किसानों को फायदा हो।