सम्पादकीय

संघर्ष की कहानी: बॉलीवुड को बनाने वाले 'स्ट्रगलर'

Gulabi
9 May 2021 7:59 AM GMT
संघर्ष की कहानी: बॉलीवुड को बनाने वाले स्ट्रगलर
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मुंबई फिल्म उद्योग को आकार देने वाली किसी एक बुनियादी चीज पर इतिहासकारों की सहमति है, तो

मुंबई फिल्म उद्योग को आकार देने वाली किसी एक बुनियादी चीज पर इतिहासकारों की सहमति है, तो वह है इसकी सघन अनिश्चितता। अब व्यावसायिक रूप से सफल और वैश्विक रूप से मान्यता प्राप्त बॉलीवुड ने अपना पहला कदम तब उठाया था, जब भारत औपनिवेशिक शासन के अधीन था। तब कोई भी वित्तीय संस्थान इस अनिश्चित नए उद्योग में हाथ नहीं डालना चाहता था और बहुत कम लोग एक ऐसे क्षेत्र में अपनी प्रतिष्ठा को जोखिम में डालने को तैयार थे, जिसे वर्जित माना जाता था। फिर भी, 1930 के दशक में बॉम्बे गतिशील फिल्म उद्योग का केंद्र बन गया। यहां की सिने-पारिस्थितिकी की जड़ें विभिन्न दिशाओं में फैली हुई थी। 1931 से 1945 के दौरान यहां दो हजार से अधिक बोलती फिल्में बनाई गईं और दूसरे विश्वयुद्ध के उस दौर में इस फिल्म उद्योग ने चालीस हजार लोगों को रोजगार दिया। और ऐसे ही दौर में एक नया ऐतिसाहिक शख्स दृश्य में आया और वह था, 'स्ट्रगलर'।



स्ट्रगलर शब्द मुंबई के संदर्भ में इतना खास है कि यहां की शहरी बोली का हिस्सा बन गया जिसे 'बंबइया' कहते हैं। मुंबई में स्ट्रगल का मतलब है फिल्मों में मायावी 'बड़ा ब्रेक' हासिल करने के लिए धक्के खाना। स्ट्रगलर विशिष्ट किस्म का सामाजिक शख्स होता है, जो फिल्म कारोबार में बड़ा नाम कमाना चाहता है और जिसका वहां कोई बड़ा संपर्क नहीं होता।


इस संदर्भ में, संघर्ष कई अनिश्चिताओं की प्रतिक्रिया और लक्षण है, जो आज मीडिया उद्योग की पहचान बन गया है। 1930 के दशक में फिल्म से जुड़ी सारी सड़कें बॉम्बे की ओर जाती थीं। फिल्मों में काम करने के सैकड़ों इच्छुक यह आजमाने के लिए इस शहर का रुख करते थे कि क्या उनकी किस्मत सिनेमा की दुनिया में उन्हें चमक दिलाएगी। इनमें हर तरह के लोग होते थे। यह एक खास तरह की ऐतिहासिक अवधारणा थी, इससे पहले कभी कोई ऐसा औद्योगिक रूप नहीं देखा गया था, जो सैकड़ों लोगों को इस तरह आकर्षित करे और वह भी ऐसी चीज के लिए जो धन की तुलना में अमूर्त हो। महानता का सपना लिए ये स्ट्रगलर श्रीनगर से लेकर मद्रास, दिल्ली, पंजाब सहित देश के चारों कोनों से बॉम्बे पहुंच रहे थे। फिल्मों का यह नशा ऐसा था कि अभिभावक फिल्म इंडिया जैसी फिल्मी पत्रिकाओं में उनकी गुमशुदगी के विज्ञापन तक छपवाते थे और अपने बच्चे की वापसी के लिए भावुक अपील करते थे।

मैंने अपनी नई किताब, बॉम्बे हसल : मेकिंग मूवीज इन अ कॉलोनियल सिटी, में उन फिल्म प्रशंसकों पर ध्यान केंद्रित किया है, जिन्होंने खुद को फिल्म कर्मियों के रूप में ढाल लिया। बॉम्बे के शुरुआती फिल्म उद्योग में पूंजी नहीं थी, लिहाजा फिल्म निर्माण के लिए वित्त जुटाना रोज की कवायद था। इसी वित्तीय कश्मकश के बीच स्ट्रगलर का ऐतिहासिक आगमन हुआ। बॉम्बे के अनेक सुप्रसिद्ध फिल्म निर्माताओं ने अपने वित्तीय जोखिमों को इन अस्थायी कामगारों, स्टंट आर्टिस्ट, लाइट ब्यॉज और एक्स्ट्रा के सहारे संतुलित किया, जिन्हें आज भुला दिया गया है। फिल्मों में काम करने के स्ट्रगलर के सपनों के कारण इस शहर में कामगारों की बाढ़ आ गई, कई संस्थाएं बनीं जिन्होंने सिनेमा उद्योग को गढ़ा।

बॉलीवुड करोड़ों डॉलर का उद्योग है और अपनी चकाचौंध के कारण प्रसिद्ध है। अमूमन न्यूज मीडिया का ध्यान सितारों और प्रमुख फिल्मी हस्तियों पर केंद्रित होता है। स्ट्रगलर या फिल्मों में काम करने के इच्छुक लोगों पर ध्यान केंद्रित कर हम देख सकते हैं कि इस उद्योग ने किस तरह का आकर्षण और श्रम पैदा किया है, जो अन्यथा दर्ज नहीं होता। मैं जोर देकर कहना चाहती हूं कि हमें स्ट्रगलरों को पीड़ितों की तरह न देखकर जटिल इच्छाओं वाले जटिल समूहों की तरह देखना चाहिए।

पहली बात तो यह कि स्ट्रगलर निरंतर जारी है। बावजूद इसके कि स्टारडम तक पहुंचने की सच्ची कहानियां मौजूद हैं। मसलन सुलोचना एक टेलीफोन ऑपरेटर थीं और बाद में 1930 के दशक की सितारा बन गईं। हालांकि बहुत कम आकांक्षी इस स्टारडम तक पहुंच पाते हैं।

कास्टिंग डायरेक्टर नंदिनी श्रीकांत बताती हैं कि हताशा और खारिज किया जाना ऐसा तथ्य है, जो कि यहां के जीवन का हिस्सा है। स्ट्रगलर दिखाते हैं कि प्रतीक्षा करना अपने आप में विशेष तरह का श्रम है। वह फोन कॉल के लिए प्रतीक्षा करते हैं। वह एजेंट के फोन का इंतजार करते हैं। कोरोना के कारण मुंबई फिल्म उद्योग भी प्रभावित हुआ है। वरना मुंबई में स्ट्रगलर को सम्मान के साथ ही देखा जाता है।

आज बॉलीवुड की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खास जगह है, मुंबई की सिने-पारिस्थितिकी समृद्ध है और आज महामारी से लेकर राजनीतिक घोटालों जैसे कई तरह की आकस्मिकताओं से जूझ रही है। हालांकि जिस तरह से शहर समुद्र के बढ़ते जलस्तर के साथ लोगों और उनके सपनों के लिए जगह बनाता चलता है, बॉम्बे के सिने कर्मचारियों का संघर्ष भी जारी है।

क्रेडिट बाय - अमर उजाला- कोलंबिया यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर

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