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ये बात है साल 1910 की. जाड़े का मौसम था. उस दिन भी रोज की तरह वह अपनी प्रयोगशाला में और फिर
मनीषा पांडेय। ये बात है साल 1910 की. जाड़े का मौसम था. उस दिन भी रोज की तरह वह अपनी प्रयोगशाला में और फिर मरीजों को देखने में व्यस्त था, जब किसी ने आकर बताया कि आपके लिए पीकिंग के इंपीरियल क्विंग कोर्ट के विदेश मंत्रालय से एक चिट्ठी आई है. वो चिट्ठी नहीं, बल्कि एक सरकारी फरमान था. उस फरमान में डॉक्टर को तत्काल चीन के शहर हर्बिन जाने का कहा गया था. हर्बिन से उड़ती-उड़ती खबरें तो आ रही थीं लेकिन कोई नहीं जानता था कि वहां आखिर हुआ क्या है. हर्बिन पर खुदा का कहर टूटा था. जाने किस रहस्यमय विषाणु ने पूरे शहर को अपने कब्जे में कर लिया था. लोग कीड़े-मकोड़ों की तरह मर रहे थे. उस शहर में एक ऐसी बीमारी फैली थी कि जो भी उसकी चपेट में आता, जिंदा न बचता. डॉक्टर ये समझ पाने में नाकामयाब हो रहे थे कि ये बीमारी आखिर है क्या
जिस शख्स के लिए यह सरकारी फरमान आया था- उस शख्स का नाम था- वू लीन तेह. चीनी मूल का, लेकिन मलेशिया के पेनांग में जन्मा एक डॉक्टर, जिसने दुनिया का पहला सर्जिकल मास्क बनाया.
कौन थे वू लीन तेह
वो लीन का जन्म 10 मार्च 1879 को मलेशिया के पेनांग में हुआ था. उस समय पेनांग दक्षिण एशिया की उस टेरिटरी का हिस्सा था, जिस पर अंग्रेजों का कब्जा था. उनके पिता चीन से निवार्सित होकर पेनांग आए थे और सुनार का काम करते थे. उनकी मां पेनांग में ही पैदा हुई थीं, लेकिन वो भी चीनी मूल की थी. वू के चार भाई और छह बहनें थीं. उनकी शुरुआती शिक्षा पेनांग फ्री स्कूल में हुई. ये स्कूल पेनांग का सबसे पुराना कॉन्वेंट स्कूल है.
कैंब्रिज में दाखिला पाने वाला पहला शख्स
वू पढ़ाई में बहुत मेधावी थे. घर के आर्थिक हालात ऐसे नहीं थे कि वो उसे पढ़ने के लिए विदेश भेज पाते, लेकिन वू ने क्वीसं स्कॉलरशिप हासिल कर ली और मेडिसिन की पढ़ाई करने कैंब्रिज पहुंच गए. वू कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में दाखिला पाने वाले चीनी मूल के पहले व्यक्ति थे. वहां कैंब्रिज में कोई ऐसी स्कॉलरशिप और ईनाम नहीं था, जो वू ने नहीं जाता. लंदन के सेंट मेरीज हॉस्पिटल में उन्होंने अपनी पहली अंडरग्रेजुएट क्लिनिकल ट्रेनिंग हासिल की और उसके बार लिवरपूल स्कूल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन से आगे की पढ़ाई की.
कैंब्रिज से पढ़कर भी नहीं मिला पद क्योंकि वो सिर्फ गोरे अंग्रेजों को मिलता था
1903 में वू ने क्वालालांपुर के मेडिकल रिसर्च सेंटर में काम करना शुरू किया. उन्हें बड़ा जिम्मेदार पद नहीं दिया गया. वो फर्स्ट रिसर्च स्टूडेंट की तौर पर सेंटर से जुड़े थे, क्योंकि उस वक्त सभी ब्रिटिश कॉलोनियां का ये नियम था कि सिर्फ ब्रिटिश मूल के लोग ही बड़े और स्थाई पदों पर नियुक्त किए जाते थे. कुछ दिन वहां काम करने के बाद वू ने अपनी निजी प्रैक्टिस शुरू की.
अपनी मडिकल प्रैक्टिस के साथ-साथ वू सामाजिक मुद्दों पर भी मुखर होकर बोलने वाले लोगों में से थे. सन् 1900 में उनकी मुलाकात एक ऐसे शख्स सांग आंग सिआंग से हुई, जो राजनीतिक कार्यकर्ता था और सिंगापुर सिविल सोसायटी का निर्माण कर रहा था. वू भी उसके साथ जुड़कर काम करने लगे.
वू लीन तेह का अफीम विरोधी आंदोलन और जेल
ये वो समय था, जब दक्षिण एशिया का एक बड़ा हिस्सा ब्रिटिश हुकूमत के अधीन था. अंग्रेज भारत, चीन, मलेशिया, बर्मा हर जगह बड़े पैमाने पर ओपियम यानी अफीम का व्यापार करते थे. वो किसानों को अफीम उगाने पर मजबूर करते, जिससे उनकी जमीनें बंजर हो जातीं. वू लीन तेह ने अपने दोस्तों के साथ मिलकर पेनांग में एक अफीम विरोधी एसोसिएशन की शुरुआत की. 1906 में उन्होंने एक कॉन्फ्रेंस भी की, जिसमें 3000 से ज्यादा लोगों ने हिस्सा लिया.
इसके बाद अचानक वू उन लोगों की नजर में आ गया, जो अफीम के व्यापार से मोटा मुनाफा कमा रहे थे. इन लोगों ने वू को निशाना बनाया. उनकी डिस्पेंसरी की तलाशी ली गई और वहां अफीम का एक छोटा टुकड़ा मिला. पुलिस ने वू पर मोटा जुर्माना लगाया और उन्हें जेल में डाल दिया.
उसके बाद 1907 में वू चीनी सरकार की क्विंग डायनेस्टी के लिए काम करने लगे और तिआनझिन स्थित आर्मी मेडिकल कॉलेज के वाइस डायरेक्टर बन गए.
कहानी सर्जिकल मास्क की
वू को चीन आए तीन साल और आर्मी मेडिकल कॉलेज में काम करते हुए दो हो गए थे, जब उन्हें वो सरकारी खत मिला, जिसमें उनसे तुरंत हर्बिन जाने को कहा गया था. हर्बिन में प्लेग का कहर फैला था, लेकिन डॉक्टरों को ये पता नहीं था कि ये प्लेग है.
हर्बिन में वू ने एक जापानी महिला का पोस्टमार्टम किया, जो प्लेग से मर गई थी. उन दिनों चीन में पोस्टमार्टम की अनुमति नहीं थी, लेकिन वू ने किसी तरह ये कर लिया क्योंकि बीमारी को समझने के लिए शरीर की चीरफाड़ कर ये देखना जरूरी था कि आखिर वो क्या था, जिससे लोग मर रहे थे. पोस्टमार्टम और ऑटोप्सी से पता चला कि ये जानलेवा वायरस प्लेग था. ऑटोप्सी से यह भी पता चला कि ये वायरस हवा के जरिए फैल रहा था, इसलिए इतने बड़े पैमाने पर लोग इसकी चपेट में आ रहे थे.
इससे बचने के लिए वू ने एक सर्जिकल मास्क बनाया. वू ने कैंब्रिज में अपनी पढ़ाई के दौरान मेडिकल डॉक्टरों को अपने मुंह पर कपड़े का मास्क पहनते हुए देखा था, लेकिन वो मास्क बहुत प्रभावी नहीं था. वू ने इस सर्जिकल मास्क में कपड़े और रूई की कई परतों का इस्तेमाल किया था, जो हवा में फैले वायरस से बचाने में काफी प्रभावी था.
हालांकि शुरू में डॉक्टरों को भी इस बात पर यकीन नहीं था कि ये वायरस हवा के जरिए फैल रहा है, इसलिए उन्होंने मास्क लगाने से इनकार कर दिया. फ्रांस से आए एक डॉक्टर जेराल्ड मेसनी न मास्क लगाने से इनकार कर दिया और कुछ ही दिन बाद उसकी प्लेग से मृत्यु हो गई.
तब कहीं जाकर मेडिकल बिरादरी को भी मास्क का महत्व समझ आया. अब बड़े पैमाने पर मास्क का उत्पादन किया जाने लगा. पूरी महामारी के दौरान 60,000 से ज्यादा मास्क बनाए और लोगों में वितरित किए गए. सरकार ने लोगों के लिए मास्क पहनना अनिवार्य कर दिया.
महामारी से निपटने की शुरुआती तकनीकें
डॉ. वू ने ही क्वारंटाइन सेंटर्स की भी शुरुआत की. जो भी प्लेग से इंफेक्टेड होता, उसे तुरंत बाकियों से दूर क्वारंटाइन कर दिया जाता. पूरी-पूरी इमारतों को डिसइंफेक्ट करने की शुरुआत भी उन्होंने की. पुराने प्लेग हॉस्पिटल को पूरी तरह नेस्तनाबूद कर दिया गया और उसकी जगह नए अस्पताल का निर्माण कराया गया.
डॉ. वू ने एक और जरूरी कदम उठाया. उन्होंने सरकार से दरख्वास्त की कि शवों को गाड़ने की बजाय जलाने की अनुमति दी जाए. शव को जमीन में गाड़ने पर भी वायरस के जमीन के भीतर जीवित रह जाने का खतरा था. वो पूरी तरह खत्म नहीं होता. सरकार ने इजाजत दे दी. अब भारी संख्या में प्लेग से मरने वाले लोगों को जमीन में गाड़ने की बजाय उनका दाह संस्कार किया जाने लगा.
शवों का जलाया जाना इस प्लेग महामारी की कहानी में टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ. इसके कुछ दिनों बाद अचानक प्लेग के नए केसेज आने कम हो गए. प्लेग का फैलना रुक गया और कुछ महीनों के भीतर ही डॉ. वू इसे पूरी तरह खत्म करने में कामयाब हो गए. लेकिन तब तक 60,000 लोगों की जानें जा चुकी थीं.
और दुनिया को पहला सर्जिकल मास्क भी मिल चुका था. आज जो एन9फाइव (N95) मास्क इस्तेमाल किया जाता है, वो डॉ. वू के बनाए मास्क का ही परिष्कृत और डेवलप्ड वर्जन है.
इंटरनेशनल प्लेग कॉन्फ्रेंस
1910 में चीन के शहर शेनयांग में दुनिया के पहले इंटरनेशनल प्लेग कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया गया, जिसके प्रमुख वक्ता थे डॉ. वू लीन तेह. अमेरिका, यूके, ग्रेट ब्रिटेन, आयरलैंड, फ्रांस, इटली, जर्मनी, ऑस्ट्रिया, हंगरी, नीदरलैंड, रूस और मैक्सिको से डॉक्टर इस कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लेने आए. बाद में 1911 में डॉ. वू ने लंदन के इंटरनेशनल कांग्रेस ऑफ मेडिसिन में प्लेग पर अपना पेपर प्रेजेंट किया, जो फिर लैंसेट में प्रकाशित हुआ.
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