सम्पादकीय

Story: 'अधखुली गिरह’

Gulabi Jagat
18 Nov 2024 2:07 PM GMT
Story: अधखुली गिरह’
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Vijay Garg: मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि जीवन में कुछ ऐसा, कभी मेरे साथ भी घट सकता है। घट सकता है नहीं, घट चुका था। यह जो फूलों से सजे पलंग पर, दुल्हन का लाल जोड़ा पहने, सोलह सिंगार किये, बाल बिखराये, मुँह खोले बेसुध सी पड़ी लड़की सो रही है, उससे कल मेरी शादी हुई है और आज शाम ही मैं बाजे-गाजे के साथ उसे विदा करा कर बरेली से दिल्ली, अपने घर लाया हूँ। रात काफी हो चुकी है और भावनात्मक और मानसिक रूप से पूरी तरह से टूटा हुआ मैं,अभी थक-हार कर यहाँ, अपने कमरे के बाहर वाली एनेक्सी में आकर, सोफे पर ढह गया हूँ। मेरा दिमाग अभी भी कुछ देर पहले घटी घटना की जाँच-पड़ताल में लगा है।
माँ मेरे लिए सर्वोपरि थीं। पापा के बाद, मुझे और दीदी को उन्होंने अकेले ही पाला था। पापा की दोनों फैक्ट्रियों का काम अकेले सम्हालने में काफी मुश्किलों का सामना करते हुए देखा था हमने उन्हें। दीदी की शादी हो चुकी थी। बड़े होकर मैंने भी पढ़ाई पूरी कर,उनके साथ काम में हाथ बँटाना शुरू कर दिया था। मैं माँ के बहुत अधिक करीब था। किसी भी हाल में उनका दिल नहीं दुखा सकता था। वैसे तो मैं किसी का भी दिल नहीं दुःखा सकता था। गरीबों और दुखियारों के लिए भी अक्सर कुछ-न-कुछ करता ही रहता था।
दोस्त मुझे 'मामा'ज़ बॉय' कहकर चिढ़ाते थे। विवाह के लिए भी मैं तैयार नहीं होता था। आजकल की लड़कियाँ कैसी होती हैं इसका अंदाजा था मुझे। कहीं आने वाली लड़की ने मेरे परिवार को अपना न माना तो? मुझे लेकर अलग रहने की मांग की तो? न बाबा न, इन सब पचड़ों में पड़ना ही नहीं था मुझे । पर मेरी इस बेतुकी ज़िद को माँ और दीदी ने नहीं माना।
मेरे पीछे पड़-पड़ कर इन लोगों ने मेरी शर्त मानते हुए शादी के लिए हाँ कहलवा ली। मेरी एकमात्र शर्त यही थी कि लड़की बहुत अधिक आज़ाद ख्यालों वाली, मॉडर्न और फैशन की दीवानी न हो, बल्कि धीर-गंभीर व्यक्तित्व की स्वामिनी हो, जो मेरी माँ और परिवार को उचित आदर-सम्मान दे सके। मैंने माँ और दीदी पर ही सब कुछ छोड़ दिया था। अच्छी तरह से देखभाल कर, एक सुशील और घरेलू सी लड़की, जो माँ से भी बात तक करने में शर्मा रही थी, पसंद की गयी थी। माँ और दीदी पहले ही इस लड़की और इसके घरवालों से मिल चुकी थीं और अंदरूनी तौर पर पसंद भी कर चुकी थीं। बस एक बार, औपचारिकता पूरी करने के लिए ही, मैंने एक मॉल में लड़की, उसकी माँ और भाई-भाभी के साथ एक छोटी सी मुलाकात कर ली थी और शादी के लिए हामी भर दी थी।
मेरे घर वालों की तरह, लड़की वाले भी शादी जल्दी ही चाहते थे तो एक महीने के बाद ही, यानि कल हमारी शादी हुई थी और आज मैं अपनी दुल्हन को बाजे-गाजे के साथ, बरेली से विदा करा कर, अपने घर दिल्ली ले आया था। खूब रौनक और उत्साह का माहौल था घर में। मेरे दोस्त, रिश्ते की भाभियाँ, बहनें, यहाँ तक कि भाई लोग भी मुझे छेड़ने में लगे थे।
मैं तो खैर, कभी भी अधिक बोलने और हंसी मज़ाक करने वाला नहीं रहा था, पर मुझे इस लड़की की अच्छी बात यह लगी थी कि वह इस सब हंसी मज़ाक का हिस्सा नहीं बन रही थी। किसी को कुछ जवाब नहीं दे रही थी, बस, धीरे से सिर झुका कर, शालीनता से मुस्कुरा भर देती थी। तो इतनी तसल्ली तो मुझे हो ही गयी थी कि मेरी नयी नवेली पत्नी आजकल के चलन के मुताबिक चंचल नहीं है, सोबर नेचर की है, जैसी मैं चाहता था। कुल मिलाकर लड़की और उसकी फैमिली पसंद आयी थी मुझे।
विदा के समय, बरेली से वापस दिल्ली आने वाली, हम बारातियों की गाड़ियों के संग, एक गाड़ी उसके भाई-भाभी की भी थी। अपनी कार में वे बराबर मेरी कार के संग संग चलते रहे थे और रास्ते में भी उसे हाथ हिला-हिला कर हंसाते रहे थे। जहाँ दिव्यांशी, हाँ यही नाम था उसका, रोने-रोने को होती, उसके भैया-भाभी उसे हंसा देते और वह रिलैक्स हो जाती थी। दीदी और उसके सरदार पति यानि मेरे योगेंद्र जीजाजी और हम सब खुश थे कि कितना केयरिंग हैं इस परिवार में सब। घर यानि दिल्ली पहुँचते-पहुँचते सांझ होने को आयी थी। घर में हर तरफ शोर-शराबे और हँसी-मज़ाक के दौर चल रहे थे। माँ ने उन लोगों को भी खाना खाकर ही जाने के लिए रोक लिया था।
देव्यांशी के भैया-भाभी दोनों उसे उसे खूब देर तक पता नहीं क्या क्या समझाते रहे थे। मैं आते जाते देख रहा था कि वह भी सिर हिला-हिला कर सब समझ रही थी। खाना-पीना निपटते-निपटते दस बजने को आये थे, तब वे लोग उसे सुला कर वापस लौट गए थे।
उनके जाने के बाद मैं भी बाहर अपने दोस्तों के बीच पहुँच गया था। सब पूरी मस्ती के मूड में थे। काफी देर बाद दीदी ने आकर सब दोस्तों को जबरदस्ती उनके घरों को रवाना किया। कुछ रिश्तेदार, जो हमारे घर में ही ठहरे हुए थे, वे भी थकान के कारण अब तक अपने-अपने कमरों में सोने जा चुके थे। दीदी ने मुझे ठेला तो मैं भी शर्माता हुआ अपने कमरे में चला आया था।
कमरे में घुसते ही मैंने देखा, इस बीच मुझसे छुपा कर मेरा कमरा बड़ी सुंदरता से सजा दिया गया था। ऊपर से पलंग पर लटकती रजनीगंधा और गुलाबों की लम्बी-लम्बी की लड़ियों के बीच वह सो रही थी। मैंने भारी-भरकम शेरवानी उतारी और कुछ हलके कपड़े निकालने के लिए अपनी आलमारी खोली। मैं जान-बूझ कर थोड़ी अधिक ही खटर-पटर कर रहा था, जिससे पलंग पर सोइ यह शख़्स, जो अब तक मेरी पत्नी बन चुकी थी, जाग जाए। मुझसे बात करे और हम दोनों एक दूसरे को थोड़ा बहुत जानें तो सही।
जैसी मेरी तमन्ना थी, थोड़ी देर बाद ही पलंग पर कुछ हलचल हुई और फिर वह उठ कर बैठ गयी। उसने अपने आसपास चारों तरफ निगाहें दौड़ायीं जैसे किसी को ढूंढ रही हो। मैं आलमारी का खुला पल्ला पकड़े पीछे मुड़कर चुपचाप उसकी ओर देख रहा था। मैंने पहले से ही सोच रखा था कि अपने कई दोस्तों की तरह, मैं पति नाम का हिटलर बन कर नहीं रहूँगा। बल्कि अपनी पत्नी को समानता का दर्ज़ा दूँगा और बहुत प्यार करूँगा। जब उसकी आँखें मेरी आँखों से टकरायीं, तब मैं आँखों ही आँखों में, उसे ढांढस बंधाते हुए मुस्कुराया ताकि उसे लगे कि वह किसी अजनबी के साथ नहीं, वरन अपने घर में, किसी अपने के ही साथ है। पर उसने बड़ी व्याकुलता से पूछा "भैया कहाँ हैं?"
"वे लोग तो चले गए" मैंने प्यार भरे स्वर में ही दुलराते हुए जवाब दिया।
मेरा इतना कहना भर था कि वह बिजली की तेज़ी से बिस्तर से नीचे उतरी और चीखती हुई दरवाज़े की तरफ भागी, "भैया, भैया, कहाँ हो?", जल्दी आओ"। इस पूर्ण रूप से अनअपेक्षित और अचानक हुए क्रिया-कलाप के चलते मैं अवाक सा आलमारी का अधखुला पल्ला पकड़े वहीं खड़ा रह गया था और वह दरवाज़े की चिटखनी खोल, बला की फुर्ती से बाहर जा चुकी थी।
कुछ पलों बाद मुझे सुध आयी, तो मैं भी तेज़ी से कमरे से बाहर की तरफ दौड़ा। हमारे बड़े से दोमंजिले घर का अभी उसे कुछ अंदाजा नहीं था, वह उतावली से 'भैया', 'भाभी', 'मम्मी' पुकारती हुई इधर-उधर उन्हें ढूंढने की कोशिश कर रही थी। कॉरिडोर में एक अजीब सा दृश्य था। नख-शिख सोलह श्रृंगार किये, बालों में गजरा सजाये, लाल जोड़ा पहने, एक दुल्हन, उन्मादिनी सी इधर से उधर भाग रही थी । पीछे उसका लम्बा आँचल धरा को बुहारता चल रहा था। वह तेज़ी से सीढ़ियाँ उतरने ही वाली थी की मैंने दौड़ कर उसे पीछे से पकड़ लिया। मुझे डर था कि कहीं नीचे के कमरों में ठहरे हुए रिश्तेदार इस नाटक के शोर से जागकर बाहर न आ जाएं। उसे अकेले सम्हालने में मुझे काफी मशक्कत करनी पड़ रही थी। मैंने बाएं हाथ से उसका मुँह दबोच लिया जिससे वह चीख न पाए और दायें हाथ से उसका दाहिना हाथ पकड़ मैं उसे थोड़ा धकेलते हुए अपने कमरे की तरफ लाने लगा। तब तक दीदी अपने कमरे से बाहर आ गयी। वहां का दृश्य देख पहले तो वह भी भौचक सी खड़ी रह गयी। फिर जाने वह कितना समझी, कितना नहीं, पर उसने भी प्यार से पुचकार-पचकार कर इस अजूबा लड़की को अंदर लाने में मेरी मदद की।
अंदर कमरे में बैठा कर दीदी ने उसे पानी दिया, जो उसने नहीं पिया। दीदी उसे बहुत प्यार से समझाती रही कि यह उसी का घर है और यहाँ उसे डरने की कोई ज़रुरत नहीं। फिर भी वह बहुत डरी हुई दिख रही थी। बिना आवाज़ के सिसकियाँ ले-लेकर रो रही थी। डरे हुए तो हम दोनों भी बुरी तरह थे। आज के ज़माने में इतनी ज़्यादा घबराने वाली दुल्हन की तो हमने कल्पना भी नहीं की थी। उसे प्यार से तसल्ली देकर कि कोई बात नहीं है, मैं अभी तुम्हारे भैया को बुला कर लाता हूँ, मैं दीदी के पास उसे छोड़ कर माँ के कमरे में आ गया। माँ को जगा कर मैंने उन्हें पूरी बात बतायी। वह बुरी तरह से हड़बड़ा गयीं। जब तक मैं माँ को साथ लेकर वापस अपने कमरे में वापस पहुंचा तो पता चला वह लड़की कमरे से गायब थी और दीदी उसे ढूंढ रही थी। दीदी का बेटा सनी उठ कर, रोते हुए, उसे ढूंढता हुआ वहाँ आ गया था, तो वह, बस दो मिनट के लिए उसे वापस योगेंद्र जीजाजी के पास छोड़ने गयीं थीं। वापस आईं तो यह लड़की कमरे से गायब थी।
अब यह एक नयी समस्या उठ खड़ी हुई थी। उस सात कमरों वाले दोमज़िले घर में, जहाँ नीचे के सभी कमरों में मेहमान ठहरे हुए हैं, नयी-नवेली दुल्हन को कहाँ-कहाँ जाकर ढूंढें ? तभी ऊपर कॉरिडोर से हमने नीचे देखा कि घर का मुख्य द्वार खुला हुआ है। पास ही टूटा हुआ गजरा भी पड़ा था। हम समझ गए कि वह घर से बाहर जा चुकी है। बिना एक भी पल गँवाये, हम नीचे भागे। दीदी ने स्कूटी निकाली, मैंने दौड़ कर अंदर से कार की चाभी लेकर आया और हम दोनों विपरीत दिशाओं में चल दिए। थोड़ी दूर जाकर ही मुझे वह सड़क पर बदहवास सी भागते हुए दिखी। शायद बिना कुछ सोचे समझे वह बस भागी जा रही थी, क्योंकि बरेली तो दूसरी दिशा में था। सड़क पर हलकी आवाजाही अभी भी थी। लोग उसे देखते हुए जा रहे थे। किनारे पर कुछ ऑटो और रिक्शे वाले भी खड़े थे। जो तमाशा सा देख रहे थे। अगर मैं इस समय यहाँ न पहुंचा होता तो? सोच कर ही मेरा जी काँप गया।
मैंने एक तरह से जबरन उसे गाड़ी में ठूँस कर चाइल्ड लॉक लगाया। दीदी को फोन कर बताया और उसे पकड़ कर सीधा ऊपर अपने कमरे में पहुँच गया। गनीमत थी कि रास्ते में किसी रिश्तेदार से टक्कर नहीं हुई, वरना पता नहीं मैं क्या कहानी बनाता। कमरे में पहुँच कर मैंने उसे पलंग के सिरहाने पर तकिये लगाकर बैठा दिया। रो तो वह अब भी रही थी, पर चीख नहीं रही थी। उसकी हालत देखकर, अब तक हमें उसकी दिमागी हालत के बारे में शक़ होने लगा था। हाँलाँकि उस पर मुझे तरस भी आ रहा था। पर तरस तो मुझे स्वयं पर और अपने घरवालों पर भी बहुत आ रहा था जिनके सामने यह भयानक सच्चाई मुँह खोले खड़ी थी। जाने हमें कितनी जगहंसाई झेलनी पड़ेगी। कितनी बातें, कितने ताने सुनने होंगे। धीरे-धीरे लड़की वालों की सारी योजना, चालाकी से उठाया हुआ उनका एक-एक क़दम, सब कुछ हमें समझ आ रहा था।
इस बीच माँ और दीदी उसे सम्हालने में लगी थीं। दीदी ने उसे पानी का गिलास पकड़ाया तो वह उसने ज़ोर से हाथ मार कर फ़ेंक दिया। 'झनाsssssssssक' की आवाज़ के साथ, फर्श पर दूर तक पानी और कांच के टुकड़े बिखर गए थे। माँ और दीदी के चेहरों पर क्रोध साफ़ झलक रहा था। उनके चेहरों की भाव-भंगिमाएं देख, वह और अधिक खीझ रही थी। वह स्वयं भी अस्त व्यस्त सी हो रही थी। बिस्तर पर बैठी कभी तकिया पटकती, कभी दाँत पीसती। बिस्तर पर यहाँ-वहाँ उसकी चूड़ियां, बिछिये, गज़रे बिखरे पड़े थे।
कहाँ तो एक ओर मैंने आज के लिए क्या-क्या स्वप्न संजोये थे और कहाँ यह मुसीबत गले पड़ गयी थी। हमारे क्रोध की सीमा नहीं थी। मैंने उसके भैया को फ़ोन लगाया कि आप लोग वापस आ जाइये। यहाँ इसे अचानक पता नहीं क्या हो गया है। उधर से जवाब आया, "वापस तो नहीं आ पाएंगे, हम घर पहुँचने ही वाले हैं। अब कल दोपहर तक ही पहुँच पाएंगे वहाँ"। फिर बोले, "दिव्यांशी के पर्स के बाहर वाली पॉकेट में जो दवा रखी है, वह किसी तरह उसे खिला दें। कुछ देर में ही वह ठीक हो जायेगी। घबराने की बात नहीं है"।
इसके बाद थोड़ा ठहर कर मृगांक भैया ने जो कहा, उसने मेरे होश उड़ा दिए। उन्होंने कहा, "अब जैसी भी है, वह आपकी पत्नी है। उसे इस तरह के दौरे पड़ते हैं कभी-कभी। आप लोग नए हैं उसके लिए, इसलिए दौरा पड़ गया होगा। धीरे-धीरे ठीक हो जायेगी। आप परेशान न हों"। मेरा क्रोध फट पड़ने को हो आया, "परेशान न होऊँ? किस मुँह से आप यह कह रहे हैं? आप लोगों ने अपनी ………………", तभी मेरी नज़र उस पर पड़ी। तत्क्षण बिना कुछ सोचे-समझे मेरी उँगलियों ने फोन काट दिया। क्योंकि इतने गुस्से में होने के कारण उस समय मेरे मुँह से जो शब्द निकलने वाले थे, वह बहुत अप्रिय होते और उनका सबसे अधिक असर मेरे सामने बैठी इस लड़की पर होता, जो रोना भूल कर, मुँह खोले, विस्फारित नेत्रों से मेरी ओर ताक रही थी। शायद वह वस्तुस्थिति को समझने की कोशिश कर रही थी। उस समय अपने अंदर मचे हुए तूफ़ान के बावजूद मुझे ऐसा लगा, जैसे वह एक छोटी सी बच्ची हो जिसे यह भी समझ नहीं है कि उसकी ग़लती क्या है।
उसके घर वालों से बात करके इतना तो मुझे समझ आ ही गया था कि अब जो भी करना है, हमें ही करना है, हमें मतलब, मुझे। मैंने इशारे से दीदी और माँ को वहां से हटने को कहा। थोड़ी आनाकानी के बाद वे लोग बाहर चली गयीं। फर्श पर बिखरे पानी और कांच के टुकड़ों से बचता और अपने अंदर के तूफ़ान को किसी तरह दबाता हुआ मैं धीरे से उसके पास पहुंचा और सहानुभूति से उसके सिर पर फेरने लगा। उसके कंधे और उसका हाथ थपकता रहा। शायद इस समय तक वह काफी थक चुकी थी, इसीलिये उस पर काबू पाया जा सका। मैंने उसे बच्चों की तरह बहला-फुसला कर दवा खिला दी। थोड़ी देर में वह बैठे-बैठे मेरे ही कंधे पर सिर टिका कर सो गयी। मैं धीरे से उसे बिस्तर पर चादर ओढ़ा कर लिटा दिया और कमरे से बाहर आ गया। और अब,मैंने अपने कमरे के बाहर ही, एनेक्सी में रखे सोफे पर आकर ढह गया हूँ। मेरा दिमाग अभी भी कुछ देर पहले घटी घटना की जाँच-पड़ताल में लगा है।
थोड़ी देर में माँ भी आकर मेरे पास ही सोफे पर बैठ गयीं तो मैं अपने विचारों की दुनिया से बाहर आ गया। चुपचाप मेरे कमरे की सफाई कर दीदी, और सनी को सुलाकर योगेंद्र जीजाजी भी वहीं आ गए।
हमारे दिमाग़ों में ढेर सारी उथल-पुथल मची हुई थी। मृगांक भैया और रंजीता भाभी के फोन उसके बाद से बराबर स्विचड ऑफ आ रहे थे। कोई लड़की इस तरह से ससुराल से कैसे भाग सकती है। अगर शादी से नाख़ुश थी तो पहले ही मना कर सकती थी। यह कैसे दौरे पड़ते हैं इसे। हमें कुछ नहीं पता था कि हमारे साथ हुआ क्या था। अगर किसी रिश्तेदार को हमसे पहले इसके बारे में कुछ पता चल गया तो ? कहीं लड़की वालों ने हमारे साथ ------? आदि आदि। सवालों की लाइनें लगी थीं, पर जवाब हम चारों के ही पास नहीं थे।
कल शाम को हम रिसेप्शन देने वाले थे। जिसमे शहर के कई प्रतिष्ठित लोग आने वाले थे। सबसे बड़ी टेंशन इस समय यही थी कि रिसेप्शन बिना किसी तमाशे के निपट जाए और दुल्हन की मानसिक ग्रंथि के विषय में किसी दूसरे के पहले हमें पता चले कि असलियत है क्या। सच्चाई क्या है। अगर रिसेप्शन के दौरान इसे फिर से दौरा पड़ गया या किसी रिश्तेदार को ज़रा भी शक़ हो गया तो हमें कितनी शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी। वैसे भी हमसे जलने वालों की कमी नहीं थी और इस केस में तो अभी हम खुद ही बिलकुल ब्लैंक थे।
इस समय हमारे पास इसके अलावा कोई चारा नहीं था कि रिसेप्शन के बाद, रात या अगले दिन सुबह तक, जब तक सभी मेहमान वापस न चले जाएँ, हम - साम, दाम, दंड, भेद - किसी भी तरह इस लड़की को सम्हाले रहें।
एनेक्सी में बैठे-बैठे हम देर रात तक अटकलें लगाते रहे । सुबह होने वाली थी। हम सब कुछ देर सोने के लिए आ गए। उस लड़की की वजह से, मुझे अपने कमरे में सोने जाते भी डर लग रहा था। तो मैं कमरे की बाहर से कुण्डी लगा कर, वहीं एनेक्सी में सोफे पर ही सो गया ।
दूसरे दिन सुबह जब दीदी तैयार होकर इधर आ गयीं, तो मैं माँ के कमरे में जाकर सो गया था और काफी देर तक सोता रहा था। जब मैं उठा तो घर का माहौल काफी खुशगवार था। सजी-धजी घूंघट काढ़े उस लड़की को दीदी और उसकी भाभी, मुँहदिखाई के लिए रिश्तेदार औरतों से मिलाने नीचे ले जा रही थीं। मैंने चौंक कर इशारे से मना भी किया तो उसकी भाभी ने मुस्कुरा कर इशारों से ही मुझे तसल्ली दी कि कुछ नहीं होगा आप मत घबराइए। फिर भी जिज्ञासावश, मैं भी उन लोगों के पीछे-पीछे नीचे ड्राइंग रूम में आकर बैठ गया था । मन में डर था कि कहीं यहाँ मेरी ज़रुरत न पड़ जाए। रिश्तेदार औरतें उन लोगों को घेरे बैठी थीं, दिव्यांशी को छेड़ रही थीं। मैंने देखा उनकी हंसी-ठिठोली की बातों पर यह लड़की सिर्फ सिर झुका कर मुस्कुरा भर देती थी। लोगों की बातों के जवाब देने का काम तो उसकी भाभी और मेरी दीदी ही सम्हाल रही थीं। औरतें नयी दुल्हन के भोलेपन पर बलिहारी हुई जा रही थीं। जल्दी ही उसे वहां से उठा लिया गया। दीदी और उसकी भाभी उसे लेकर रिसेप्शन के लिए तैयार होने ब्यूटी पार्लर चली गयीं। उन लोगों को वहां से सीधे वेन्यू पर ही पहुंचना था। वह चली गयी तो मैंने राहत की सांस ली। मैं खुश था कि आज सुबह से हम दोनों का आमना-सामना नहीं हुआ था।
शाम हो चुकी थी। फंक्शन के लिए तैयार होकर, इंतज़ाम वगैरह देखने के लिए मैं और योगेंद्र जीजाजी काफी पहले से ही वेन्यू पर पहुँच चुके थे। डेकोरेटर्स ने सजावट बिलकुल वैसी ही की थी, जैसी हमने पसंद की थी। एंट्री-गेट के काफी आगे से ही से ही गुलाबी और नीली बिजली की लड़ियाँ ऐसी आभा प्रस्तुत कर रही थीं मानों आप इंद्रलोक में प्रवेश करने जा रहे हों। पूरे घुमावदार पैसेज में दोनों तरफ घने पेड़ों के झुरमुट में रंगीन बल्ब और नीचे ज़मीन पर पानी, फूलों और दीयों से भरे भव्य कलश सजे थे। साथ में गहरे मनभावन रंगो से भरवां रंगोली भी रची हुई थी।
मैं सारा इंतज़ाम देखता हुआ बाहर आ ही रहा था कि तभी पैसेज में वह गाड़ी आकर रुकी जो दीदी, रंजीता भाभी और उस लड़की को ब्यूटी पार्लर से लाने गयी थी। दीदी, रंजीता भाभी गाड़ी से उतरीं फिर दोनों ने मिलकर उसे उतारा। नयी दुल्हन के श्रृंगार का सारा ताम-झाम सहेजने के बाद, कार से उतर कर, अपना आँचल सम्हालते हुए वह सीधी खड़ी हुई तो, सामने उसे मैं खड़ा दिख गया ।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब
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