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- राजनीति में हिंसा
नव भारत टाइम्स: पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में मंगलवार को तृणमूल कांग्रेस के एक स्थानीय नेता की हत्या के बाद जिस तरह से आठ लोगों को जिंदा जलाकर मार डाला गया, उस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी सभी दोषियों को सजा दिलाने की बात कही है। प्रधानमंत्री ने यह भी कहा है कि इसमें केंद्र, राज्य सरकार की हर तरह से मदद करने को तैयार है। इसके साथ मोदी ने राज्य के लोगों से ऐसी हिंसक घटनाओं को बढ़ावा देने वाले लोगों को कभी माफ न करने की अपील की। प्रधानमंत्री के बयान को आधार बनाएं तो ऐसी घटना के बाद जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों से ऐसे ही संयत और गंभीर रुख की अपेक्षा की जाती है।
राज्य में इस घटना को लेकर जिस तरह से मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और राज्यपाल जगदीप धनकड़ आमने-सामने नजर आए और दोनों में तीखी बयानबाजी हुई, वह वाकई निराशाजनक है। मुख्यमंत्री ने घटना की निष्पक्ष जांच का आश्वासन देते हुए भी इसके पीछे राज्य को बदनाम करने की संभावित साजिश का जिक्र कर दिया। ऐसे बयान उन आशंकाओं को मजबूती देते हैं कि कहीं जांच प्रक्रिया को खास दिशा देने की कोई मंशा तो काम नहीं कर रही। बहरहाल, बीरभूम की घटना पश्चिम बंगाल के लिए न तो नई है और न ही आश्चर्यजनक। संगठित हिंसा यहां की राजनीतिक संस्कृति का हिस्सा काफी पहले से बनी हुई है।
तीन दशकों से ऊपर के लेफ्ट शासन के दौरान यहां राजनीतिक और सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में सीपीएम कार्यकर्ताओं का वर्चस्व स्थापित हो चुका था। अपने लिए स्पेस बनाने की विरोधी पार्टियों की कोशिशों से उस दौरान प्राय: हिंसक तरीकों से ही निपटा जाता था। ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस ने लेफ्ट पार्टियों के वर्चस्व को तो खत्म किया, लेकिन राजनीति की इस शैली को बदलने का कोई खास प्रयास भी उसकी तरफ से होता नहीं दिखा। नतीजा यह कि जिस 'सिंडिकेट कल्चर' को कोसते हुए तृणमूल सत्ता में आई, वह और व्यापक हुआ। इसी का नतीजा है कि राज्य में सत्तारूढ़ पार्टी होने के बावजूद जब तृणमूल कांग्रेस के एक स्थानीय नेता की हत्या होती है तो उसके शोक संतप्त समर्थक भी इंसाफ के लिए पुलिस और प्रशासन का मुंह देखने के बजाय खुद कानून हाथ में लेकर संदिग्धों को तत्काल सजा देने का अभियान शुरू कर देते हैं।
ममता बनर्जी न केवल तृणमूल कांग्रेस की सबसे बड़ी नेता और राज्य की मुख्यमंत्री हैं बल्कि हालिया विधानसभा चुनावों में बीजेपी को पराजित करने के बाद राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष का संभावित साझा चेहरा भी मानी जा रही हैं। ऐसे में उनकी जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। राज्य में कानून व्यवस्था की स्थिति दुरुस्त रखने के साथ ही हिंसा की संस्कृति खत्म कर वहां लोकतांत्रिक राजनीति का दायरा बढ़ाने की चुनौती भी उनके सामने है। इस दिशा में कारगर प्रयासों से ही राष्ट्रीय राजनीति में विकल्प के उनके दावे को प्रामाणिकता मिलेगी।