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आज भारत उन्नति के शिखर की ओर अग्रसर होता हुआ विश्व की पांचवीं बड़ी ताकत बन चुका है, परंतु उन्नति के विभिन्न आयाम स्थापित करने के बावजूद भ्रष्टाचार जैसी विसंगतियां देश को अंदर ही अंदर खोखला करती जा रही हैं। भले ही कई समस्याओं जैसे आतंकवाद, महंगाई व बेरोजगारी इत्यादि का समाधान किया जा रहा है, परंतु भ्रष्टाचार के फन हर तरफ अपना सिर उठाकर लोगों को डस रहे हैं। वास्तव में भ्रष्टाचार का रास्ता बहुत ही चिकना होता है तथा हर दूसरा व्यक्ति इस पर चलकर अपनी मंजिल तय करते हुए धनवान बनना चाहता है। भ्रष्ट फार्मा कंपनियां कुछ डॉक्टरों से मिलीभगत करके घटिया व महंगी दवाइयों का उत्पादन करके गरीब लोगों के पेट पर लात मारने में लगी हुई हैं। कंपनियों के सेल्समैन अस्पतालों में आमतौर पर मंडराते हुए देखे जा सकते हैं।
डॉक्टरों को आकर्षित करने के लिए उन्हें महंगे से महंगे उपहार देते रहते हैं। हालांकि सरकार ने कुछ एक जेनेरिक दवाइयों का उत्पादन व वितरण अवश्य किया है, परन्तु कुछ डॉक्टर लोग इन दवाइयों की बजाय महंगी से महंगी दवाइयां ही लिखते रहते हैं तथा असहाय व बेबस मरीजों के पास अपनी जान बचाने के लिए इन्हें खरीदने के अतिरिक्त कोई और रास्ता नहीं होता। निजी अस्पतालों के डॉक्टर तो मरीजों की राह देखते रहते हैं तथा वे मरीजों को महंगे से महंगे टेस्ट करवाने के लिए मजबूर कर देते हैं। एक बार मरीज अस्पताल में दाखिल हो गया तो समझो उसे लाखों का भुगतान करना ही होगा। मरता क्या न करता, वह इन बिलों को चुकाने के लिए अपनी जमीन-जायदाद को बेचने के लिए मजबूर हो जाता है। यहां पर यह उक्ति बिल्कुल सही उतरती है कि यमराज तो केवल जान लेता है, मगर कुछ डॉक्टर जो वैसे भी व्यावसायिक तौर पर अक्षम होते हैं, वे मरीजों की जान व उनके पसीने की कमाई दोनों को ले लेते हैं। फार्मा कम्पनियों व विशेषत: निजी अस्पतालों के डाक्टरों की करतूतें हर दिन सुनने को मिलती रहती हैं तथा ऐसे डाक्टर जो भगवान का रूप माने जाते हैं, लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ करते दिखाई देते हैं। आखिर क्या कारण है कि सरकारें इस गंभीर समस्या की तरफ आंखें मूंदकर बैठी हुई हैं।
नेताओं के यही बयान सुनने को मिलते हैं कि उचित कार्रवाई अमल में लाई जा रही है। चंद एक कंपनियों के लाइसेंस कुछ समय के लिए रद्द कर दिए जाते हैं, मगर कोई ठोस कार्रवाई अमल में नहीं लाई जाती। दवाइयों के पत्तों व बोतलों पर मनचाही दरें लिख दी जाती हैं, जोकि वास्तविक मूल्य से 40-50 गुना अधिक होती हंै। क्या सरकार के पास कोई ऐसा पैमाना नहीं है जिसके माध्यम से इनकी दरें निश्चित की जा सकें। सरकार जैनरिक दवाइयों का राग अलापती रहती है, मगर यह कोशिश नहीं की जाती कि बाजार में बिकने वाली सभी दवाइयों की दरें उनकी गुणवत्ता के आधार पर ही निश्चित कर दी जाएं, ऐसा करने से बाजार में समानांतर दुकानें चलाने की कोई जरूरत ही नहीं रहेगी । सरकारी मुलाजिमों या फिर भूतपूर्व सैनिकों को कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उनकी दवाइयों का खर्चा तो सरकार ही उठाती है। मगर आम जनता, असहाय व असमर्थ लोगों के साथ तो यह भद्दा मजाक किया जा रहा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक केवल हिमाचल में ही पिछले 6 महीनों में 93 सैंपल फेल हुए हैं। इसी तरह पूरे देश में न जाने कितने सैंपल फेल हुए होंगे। कितनी विडंबना है कि कोई भी राजनीतिक दल इस गंभीर समस्या के समाधान हेतु अपने मेनिफेस्टो में कोई वर्णन नहीं करता। जब केंद्र सरकार देश की बड़ी-बड़ी समस्याओं, जैसे धारा 370 को रद्द करना व समान नागरिकता कानून इत्यादि को बनाने में प्रयासरत हो सकती है तो इस समस्या के उचित निदान के प्रभावी कदम क्यों नहीं उठाती। इस समस्या के निदान के लिए यहां कुछ सुझाव दिए जाते हैं :
1. जो कंपनियां घटिया किस्म की दवाइयां तैयार करती हैं उनके विरुद्ध भारतीय दंड संहिता व आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 के अंतर्गत कड़ी से कड़ी कार्रवाई अमल में लाई जानी चाहिए।
2. ऐसी भ्रष्ट कंपनियों की कहीं न कहीं ड्रग कंट्रोलर्स व अन्य अधिकारियों के साथ सांठगांठ अवश्य होती है। ऐसे अधिकारियों के विरुद्ध विजिलेंस विभाग को उनके फोन टैप करने की खुली छूट होनी चाहिए ताकि उन्हें समय रहते पकड़ा जा सके।
3. ऐसी कंपनियों के निरीक्षण करने का पुलिस विभाग को अधिकार होना चाहिए जो कि वर्तमान में नहीं है। ऐसे अपराधों की गंभीरता को देखते हुए उन्हें संज्ञेय अपराध की श्रेणी में लाना चाहिए ताकि पुलिस किसी भी समय आवश्यक निरीक्षण करके मुकदमा दर्ज कर सके।
4. निजी कंपनियों द्वारा दवाइयों की मनमानी कीमत निर्धारित करने पर अंकुश लगाना चाहिए तथा सरकार को प्रत्येक दवाई की गुणवत्ता के आधार पर कीमत निश्चित करनी चाहिए।
5. निजी अस्पतालों को मान्यता देने से पहले उनका एक विशेष कमेटी द्वारा निरीक्षण करवाना चाहिए तथा केवल औपचारिकता के आधार पर ही मान्यता नहीं देनी चाहिए। न केवल प्रारंभिक तौर पर ही बल्कि किसी भी समय औचक निरीक्षण करना चाहिए ताकि उनके द्वारा की जाने वाली मनमानी पर अंकुश लगाया जा सके।
6. दवाइयों की गुणवत्ता की परख करने के लिए पर्याप्त प्रयोगशालाएं खोलनी चाहिए। घटिया दवाइयों के लिए केवल लाइसेंस रद्द करना ही पर्याप्त नहीं होना चाहिए, बल्कि संबंधित कंपनी को स्थायी तौर पर ब्लैक लिस्ट कर देना चाहिए तथा मालिकों को सजा का पात्र बनाना चाहिए।
7. संदिग्ध कंपनियों व डॉक्टरों की निजी संपत्तियों का निरीक्षण कराना चाहिए ताकि पता लगाया जा सके कि अवैध धन कहां-कहां से एकत्रित किया गया है।
8. आमतौर पर सरकारी अस्पतालों में कई अपरिहार्य प्रशिक्षण जैसा कि अल्ट्रासाउंड या एमआरआई इत्यादि की मशीनें उपलब्ध नहीं होती हैं या फिर इन मशीनों को चलाने वाले विशेषज्ञ नहीं होते हैं तथा मजबूरी में मरीजों को निजी अस्पतालों में ही जाकर भारी-भरकम राशि अदा करनी पड़ती है। सरकार को चाहिए कि प्रत्येक जिला मुख्यालय में ऐसे टेस्ट की सारी सुविधाएं उपलब्ध करवाई जाएं तथा निजी अस्पतालों के एकाधिकार व मनमानी दरों पर अंकुश लगाया जाए। सरकार को अपने खुफिया तंत्र को मजबूत करना चाहिए जो ऐसे अस्पतालों के डॉक्टरों की रिपोर्ट बनाकर सरकार को भेजे और सरकार उस पर तुरंत कार्रवाई करे। आज भारत विश्व गुरु बनने की चौखट पर खड़ा है। ऐसी घटिया हरकतों से विदेशों में भारत की किरकिरी व फजीहत नहीं होनी चाहिए।
राजेंद्र मोहन शर्मा
रिटायर्ड डीआईजी
By: divyahimachal
Rani Sahu
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