सम्पादकीय

दिल और दिल्ली से अब भी दूर

Gulabi
26 Jun 2021 7:42 AM GMT
दिल और दिल्ली से अब भी दूर
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जम्मू-कश्मीर में सियासी गतिरोध तोड़ने की जो नई पहल हुई है, वह बहुत भरोसा नहीं जगाती

जम्मू-कश्मीर में सियासी गतिरोध तोड़ने की जो नई पहल हुई है, वह बहुत भरोसा नहीं जगाती। दोनों पक्ष (केंद्रीय नेतृत्व और जम्मू-कश्मीर के नेतागण) एक-दूसरे के खिलाफ शह-मात में उलझे हुए हैं। यह एक प्रतीकात्मक बातचीत थी, जिसका शायद ही ठोस निष्कर्ष निकले। ऐसा इसलिए, क्योंकि दोनों पक्षों के पास कोई साझा एजेंडा नहीं दिख रहा। अनुच्छेद-370 का जिक्र जरूर किया जा रहा है, लेकिन घाटी के नेतागण भी जानते हैं कि इसकी फिर से बहाली संभव नहीं। गुरुवार की बैठक से जम्मू-कश्मीर के आम लोग भी निराश हैं। जिन स्थानीय नेताओं को भारतीय जनता पार्टी के नेता पिछले दो-ढाई वर्षों से 'राष्ट्र-विरोधी गैंग' बुलाते रहे, आज उसी के साथ तस्वीरें साझा करने की बेशक उनके शीर्ष नेतृत्व की मजबूरी हो, लेकिन ऐसी सियासत से घाटी में एक अलग आफत खड़ी हो सकती है। इससे अवाम भ्रमित होता है। अगर गुपकार में शामिल नेता राष्ट्र-विरोधी हैं, तो उनके साथ भला मंच कैसे साझा किया जा सकता है? ऐसी ही उलझन कश्मीर में अलगाववाद को खाद-पानी देती है। विगत की सरकारों ने भी पिछले सात दशकों में यही किया है। उन्होंने कश्मीर की मुख्यधारा के नेताओं को इतनी छूट दी कि वे दिल्ली में अलग जुबान बोलते हैं और कश्मीर में अलग। इस बार भी जैसे ही सर्वदलीय बैठक का एलान हुआ, पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती ने पाकिस्तान से बात का राग अलापना शुरू कर दिया, जबकि बैठक में उन्होंने इस पर चुप्पी साधे रखी।

केंद्र की तरफ से यह कोशिश होनी चाहिए थी कि ऐसा कोई संदेश न जाए, पर ऐसा हो नहीं सका। दिक्कत यह भी है कि अनुच्छेद-370 को हटाने के बाद जम्मू-कश्मीर में पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस के समानांतर कोई विकल्प खड़ा करने का भाजपा का सपना साकार नहीं हो सका, जबकि इसके लिए हालात मुफीद थे। दरअसल, यहां के एक बड़े वर्ग को राज्यपाल शासन (अब राष्ट्रपति शासन) पसंद है। इससे उनकी कई समस्याओं का समाधान हो जाता है। कानून-व्यवस्था भी ठीक रहती है और शासन-प्रशासन से जुड़ी उनकी ज्यादातर शिकायतें भी दूर हो जाती हैं। हालांकि, लोकतंत्र में बहुत दिनों तक राष्ट्रपति शासन संभव नहीं है, लेकिन लोग यही चाहते हैं कि अलगाववाद के अंत के बाद ही चुनाव हों। अनुच्छेद-370 के हटने के बाद केंद्र की मुद्रा से अवाम में यही संदेश गया कि इस बार उनकी मुश्किलों का अंत हो जाएगा। मगर केंद्र ने फिर से उन्हीं नेताओं से हाथ मिला लिया, जिन पर अलगाववाद को शह देने के आरोप लगते रहे हैं, इसलिए लोगों की उम्मीदें फिर से टूटने लगी हैं।
गुरुवार की बैठक में मूलत: तीन मसलों पर चर्चा हुई, परिसीमन, पूर्ण राज्य का दर्जा और विधानसभा चुनाव। मगर ये मुद्दे भी कश्मीरियों को संतुष्ट नहीं कर सकेंगे। परिसीमन पर तो चुनाव आयोग भी अभी साफ-साफ कुछ कह सकने की स्थिति में नहीं है। केंद्र की मंशा यही दिख रही है कि वह इसके बहाने जम्मू के हिंदू बहुल क्षेत्रों के मतदाताओं को अपनी तरफ कर ले। यहां के हिंदुओं की यह वाजिब नाराजगी है कि स्थानीय राजनीति में उनको नजरंदाज कर दिया गया है। भाजपा को लग रहा होगा कि परिसीमन के बाद कुछ ऐसी सीटें निकलकर सामने आ सकती हैं, जिनसे उसे भी फायदा होगा और स्थानीय हिंदू मतदाताओं को भी।
कुछ इसी तरह का गुस्सा कश्मीरी पंडितों का भी है। उनका कोई नुमाइंदा तो सर्वदलीय बैठक में भी नहीं था, जबकि घाटी में इनकी वापसी भाजपा के लिए एक बड़ा चुनावी मुद्दा रहा है। इस बाबत कोई ब्लू-प्रिंट सरकार के पास नहीं है। संभवत: इसकी वजह यह है कि कश्मीरी पंडित बहुत छोटा वोट-बैंक है। उनसे यह तो अपेक्षा की जाती है कि 90 के घाव को भुलकर वे लौट आएं, लेकिन इसके लिए सरकार एक कदम भी आगे बढ़ने को तैयार नहीं दिख रही। आलम यह है कि अशांति के दौर में 700 के करीब कश्मीरी पंडितों की हत्या के मामले में कोई भी दोषी साबित नहीं हो सका है। इन लोगों की रिहाइश के लिए जमीन की पहचान करने का काम भी अब तक कागजों पर चल रहा है।
जाहिर है, दिल्ली और दिल की दूरी खत्म करने जैसी बातें सुनने में ही अच्छी लग रही हैं। वास्तव में, ये हमें सच से दूर ले जाएंगी। लोग यहां विकल्प की तलाश में हैं। कभी-कभी वे इतने हताश हो जाते हैं कि उन्हें तमाम पाटियां सियासी गटर में डूबती-उतराती नजर आती हैं। मुझे यहां साल 2014 का एक वाकया याद आ रहा है। आम चुनाव की घोषणा हो चुकी थी और आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल भाजपा की तरफ से घोषित प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने का एलान कर चुके थे। इसके लिए मनीष सिसोदिया ने वाराणसी में डेरा डाल रखा था, जहां एक होटल में मेरी उनसे मुलाकात हुई। उस बातचीत में उन्होंने अपनी वह डायरी भी दिखाई, जिसमें देश भर से पार्टी को आ रहे फोन नंबर दर्ज थे। उन्होंने बताया कि किस तरह से उन्हें दिल्ली, पंजाब, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के मतदाताओं का प्यार मिल रहा है। इसी क्रम में उन्होंने जम्मू-कश्मीर का खास जिक्र किया था और यह बताया था कि यहां के लोगों में भी आप को लेकर काफी उत्साह है। जब अनुच्छेद 370 हटाया गया, तब एक बडे़ वर्ग में यह उम्मीद और परवान चढ़ गई थी। केंद्र सरकार के पास सुनहरा मौका था कि वह नया जनादेश लाती, ताकि भारत-हितैषी राजनीति की तरफ लोग प्रेरित होते, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। कश्मीर के साथ दुर्भाग्य यह है कि यहां की पार्टियां अपने-अपने हित में अलगाववादियों से नजदीकी और दूरी बनाती रही हैं। अनुच्छेद 370 के हटने के बाद लगा था कि केंद्र ने एक लक्ष्मण रेखा खींच दी है। मगर गुरुवार की बातचीत के बाद यह भ्रम टूटता हुआ लग रहा है। केंद्र सरकार को ज्यादा संभलकर चलना होगा। अब सभी दल रेखा की एक तरफ खडे़ दिख रहे हैं, जिससे अवाम को शायद ही कोई फायदा हो।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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