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- दिल और दिल्ली से अब भी...
जम्मू-कश्मीर में सियासी गतिरोध तोड़ने की जो नई पहल हुई है, वह बहुत भरोसा नहीं जगाती। दोनों पक्ष (केंद्रीय नेतृत्व और जम्मू-कश्मीर के नेतागण) एक-दूसरे के खिलाफ शह-मात में उलझे हुए हैं। यह एक प्रतीकात्मक बातचीत थी, जिसका शायद ही ठोस निष्कर्ष निकले। ऐसा इसलिए, क्योंकि दोनों पक्षों के पास कोई साझा एजेंडा नहीं दिख रहा। अनुच्छेद-370 का जिक्र जरूर किया जा रहा है, लेकिन घाटी के नेतागण भी जानते हैं कि इसकी फिर से बहाली संभव नहीं। गुरुवार की बैठक से जम्मू-कश्मीर के आम लोग भी निराश हैं। जिन स्थानीय नेताओं को भारतीय जनता पार्टी के नेता पिछले दो-ढाई वर्षों से 'राष्ट्र-विरोधी गैंग' बुलाते रहे, आज उसी के साथ तस्वीरें साझा करने की बेशक उनके शीर्ष नेतृत्व की मजबूरी हो, लेकिन ऐसी सियासत से घाटी में एक अलग आफत खड़ी हो सकती है। इससे अवाम भ्रमित होता है। अगर गुपकार में शामिल नेता राष्ट्र-विरोधी हैं, तो उनके साथ भला मंच कैसे साझा किया जा सकता है? ऐसी ही उलझन कश्मीर में अलगाववाद को खाद-पानी देती है। विगत की सरकारों ने भी पिछले सात दशकों में यही किया है। उन्होंने कश्मीर की मुख्यधारा के नेताओं को इतनी छूट दी कि वे दिल्ली में अलग जुबान बोलते हैं और कश्मीर में अलग। इस बार भी जैसे ही सर्वदलीय बैठक का एलान हुआ, पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती ने पाकिस्तान से बात का राग अलापना शुरू कर दिया, जबकि बैठक में उन्होंने इस पर चुप्पी साधे रखी।