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सतत मूल्यांकन से निस्संदेह प्रतिस्पर्धा और प्रगति को प्रोत्साहन मिलता है। यह प्रतिस्पर्धा का दौर है। इसमें हर निजी कंपनी और संस्थान दूसरे से आगे निकलने, खुद को बेहतर बनाने की होड़ में देखे जाते हैं।
सतत मूल्यांकन से निस्संदेह प्रतिस्पर्धा और प्रगति को प्रोत्साहन मिलता है। यह प्रतिस्पर्धा का दौर है। इसमें हर निजी कंपनी और संस्थान दूसरे से आगे निकलने, खुद को बेहतर बनाने की होड़ में देखे जाते हैं। ऐसे में शिक्षण संस्थान क्यों पीछे रहें। इसी के मद्देनजर संस्थानों के सतत मूल्यांकन की भी पहल हुई। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की देखरेख में राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद यानी नैक का गठन किया गया। यह परिषद राष्ट्रीय स्तर पर उच्च शिक्षण संस्थानों के विविध पक्षों का मूल्यांकन करती है।
उसके नतीजे भी पिछले कुछ सालों में देखने को मिल रहे हैं। बहुत सारे कॉलेजों और विश्वविद्यालयों ने अपनी रैंकिंग बेहतर बनाने के लिए पढ़ाई-लिखाई के तरीके, शोध, अनुसंधान आदि में उल्लेखनीय बदलाव किए हैं। शिक्षण संस्थानों में इस स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का लाभ विद्यार्थियों को मिल रहा है। केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने इस साल की वार्षिक भारतीय संस्थागत रैंकिंग जारी कर दी है, जिसमें फिर से भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मद्रास पहले स्थान पर है। सर्वश्रेष्ठ अनुसंधान संस्थान का खिताब भारतीय विज्ञान संस्थान, बंगलुरू ने हासिल किया है।
इसी तरह विश्वविद्यालयों में आइआइएससी, बंगलुरू को पहला, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को दूसरा और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय को तीसरा स्थान मिला है। कॉलेजों में दिल्ली के मिरांडा हाउस को सर्वश्रेष्ठ पाया गया है। इससे एक बार फिर स्पष्ट संकेत मिला है कि उच्च शिक्षा के मामले में दक्षिण भारत के संस्थान देश के दूसरे हिस्सों की अपेक्षा बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं।
मगर अपने शिक्षण संस्थानों के इस गौरवगान के बीच हमें यह भी मूल्यांकन करने की जरूरत है कि जो शिक्षण संस्थान कुछ साल पहले तक उत्तम माने जाते थे, जिनकी तुलना लोग बाहर के नामी विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थानों से किया करते थे, वे अब क्यों बेहतर दस की श्रेणी में कहीं नजर नहीं आते। उनमें इलाहाबाद, अलीगढ़, जयपुर आदि जैसे कई विश्वविद्यालयों के नाम गिनाए जा सकते हैं। प्रतिस्पर्धा में वे क्यों फिसड्डी साबित हो रहे हैं। इसकी कुछ वजहें सरकारों को अच्छी तरह पता हैं।
पैसे की कमी, शिक्षकों के खाली पदों का न भरा जाना, समय की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए नए पाठ्यक्रम शुरू न करना आदि इसके प्रमुख कारण हैं। कुछ दिनों पहले खुद केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने अंकड़ा जारी करके बताया था कि देश के विश्वविद्यालयों में चालीस फीसद से अधिक सीटें खाली हैं। उनमें से कई विश्वविद्यालयों में साठ फीसद से अधिक पद सालों से खाली पड़े हैं। ऐसे में उन विश्वविद्यालयों से बेहतर प्रदर्शन की भला कैसे उम्मीद की जा सकती है।
जब दुनिया के श्रेष्ठ शिक्षण संस्थानों की सूची जारी होती है, तो शुरू के दस की तो दूर, सौ संस्थानों के बीच भी भारत का कोई संस्थान मुश्किल से कभी जगह बना पाता है। उच्च शिक्षण संस्थानों से अपेक्षा की जाती है कि वहां से नवोन्मेषी विचार और शोध-अनुसंधान निकलेंगे, मगर संसाधनों के अभाव में यह मकसद धुंधला ही बना रहता है। अपने संसाधन जुटाने के लिए विश्वविद्यालयों को स्ववित्तपोषी डिप्लोमा पाठ्यक्रम चलाने पड़ते हैं।
प्रयोगशालाओं का खर्च जुटाना उन्हें भारी पड़ता है। तिस पर अध्यापकों की कमी। तदर्थ शिक्षकों के सहारे पाठ्यक्रम पूरा कराना पड़ता है। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार नए पाठ्यक्रम शुरू करना तो जैसे सपने की बात हो। अगर सचमुच भारतीय उच्च शिक्षण संस्थानों में पढ़ाई-लिखाई का माहौल बेहतर बनाना है, उन्हें दुनिया के बेहतरीन संस्थानों की प्रतिस्पर्धा में खड़ा करना है, तो उनकी विवशताओं का भी मूल्यांकन होना और फिर प्रोत्साहन मिलना चाहिए।
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