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पिछले कुछ दिनों में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने जनहित में कई ताबड़तोड़ निर्णय देते हुए भारतीय जन मानस को यह विश्वास स्थापित करने का प्रयास किया है
पिछले कुछ दिनों में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने जनहित में कई ताबड़तोड़ निर्णय देते हुए भारतीय जन मानस को यह विश्वास स्थापित करने का प्रयास किया है कि उनके हृदय में यह विश्वास- संतोष बना रहे कि अभी भारतीय न्यायपालिका नींद से बोझिल सरकार को जगाने तथा भ्रष्ट नौकरशाहों लिए न्याय का न्यायिक डंडा तैयार कर रखा है । इसी क्रम में सत्तासीन राजनेताओं के साथ तालमेल बैठाकर गलत कार्यों में लिप्त पुलिस अधिकारियों को सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एनवी रमना ने कड़ी फटकार लगाते हुए कहा कि इस श्रेणी में आने वाले पुलिसकर्मियों को संरक्षित नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि उन्हें जेल भेज देना चाहिए।
मुख्य न्यायमूर्ति ने छत्तीसगढ़ के एक पुलिस अधिकारी गुरुजिंदर सिंह की याचिका पर सुनवाई करते हुए अवैध संपत्ति और राजद्रोह जैसी धाराओं में आरोप झेल रहे छत्तीसगढ़ के निलंबित आईपीएस गुरजिंदर पाल सिंह को सुप्रीम कोर्ट ने उनकी गिरफ्तारी से राहत दी। साथ ही, जांच में सहयोग के लिए कहा।
पिछली सरकार में एंटी करप्शन ब्यूरो के मुखिया रह चुके आईपीएस को राहत देते समय चीफ जस्टिस ने कहा कि जब कोई सत्ताधारी पार्टी के लिए काम करेगा तो उसे इस तरह के आरोप झेलना ही पड़ेंगे। एक याचिका पर सुनवाई करते हुए चीफ जस्टिस ने कहा, 'आप हर मामले में सुरक्षा नहीं ले सकते। आपने पैसा वसूलना शुरू कर दिया, क्योंकि आप सरकार के करीब हैं । यही होता है अगर आप सरकार के करीब हैं और इन चीजों को करते हैं तो आपको एक दिन वापस भुगतान करना होगा। जब आप सरकार के साथ अच्छे हैं तो आप वसूली कर सकते हैं, लेकिन अब आपको ब्याज के साथ भुगतान करना होगा।
सत्तासीन राजनेताओं के करीबी पुलिस अधिकारी किसी को किसी भी आरोप में जेल में डलवाते हैं और उन्हीं के करीबियों को, जो मदद करने के लिए ऊपर बैठे हैं, किसी अपराधी को दोषमुक्त साबित करके फूलमाला से लादकर समाज के सामने हीरो के रूप में कद ऊंचा कर सकती है, क्योंकि पुलिस का सत्ता से गठजोड़ अब पुरानी बात हो गई है। इस गठजोड़ में पुलिस हमेशा फायदे में रहती है। कहा जा सकता है कि सत्ता किसी की हो, पुलिस के दोनों हाथ में लड्डू होता है। जैसे-जैसे राजनीति में गिरावट आई, वैसे-वैसे यह गठजोड़ और मजबूत होता गया। मुंबई में अर्नब गोस्वामी के खिलाफ पुलिस कार्रवाई हो या यूपी में अनेक जिलों में हाल में पत्रकारों के खिलाफ दर्ज मामले हों या अपराधियों के खिलाफ चल रही कार्रवाई, सब सत्ता के चश्मे के नंबर बदलने की बानगी भर है।
पुलिस सत्ता के इशारे को बखूबी समझते हुए उसका दस्तावेजीकरण भी कर देती है। यह अलग बात है कि कई बार अदालत पहुंचने के साथ ही इनका भांडा फूट जाता है। अब सिस्टम में इतना घुन लग चुका है कि इलाज मुश्किल है। एक थानेदार कहते हैं- आपके पास दो हजार के दो जाली नोट मिले। अगर जेल भेजना है तब पुलिस लिखेगी- पत्रकारिता की आड़ में यह आदमी जाली नोटों का कारोबार करता है। यह काम वर्षों से चल रहा है। इसका गिरोह नेपाल तक पसरा हुआ है। छोड़ना हुआ तो लिखा जाएगा- दो हजार के ये दो नोट गलती से इनकी जेब में आ गए थे। यह समाज के सम्मानित व्यक्ति हैं और इनकी आम शोहरत भी अच्छी है। ऐसा निश्छल व्यक्ति जाली नोटों के सौदागर हो ही नहीं सकता। जुर्म एक, लेकिन पुलिस का विवेक यहां बहुत महत्वपूर्ण भूमिका में है। इसी भूमिका की पुलिस खाती आ रही है।
मालेगाँव धमाका (2008) की स्पेशल प्रॉसिक्युटर रोहिणी सालियन ने वर्ष 2015 में आरोप लगाया था कि इस हमले के अभियुक्तों को लेकर नरमी बरतने के लिए उन पर दबाव बनाया गया। रोहिणी ने एनआईए के एसपी सुहास वर्के पर यह आरोप लगाया था। रोहिणी ने कहा था कि ऐसा केस को कमज़ोर बनाने के लिए किया गया, ताकि सभी अभियुक्त बरी हो जाएं। इस ब्लास्ट में भोपाल से भाजपा सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर भी अभियुक्त हैं। रोहिणी ने एक समाचार पत्र को दिए इंटरव्यू में कहा था, 'एनडीए सरकार आने के बाद मेरे पास एनआईए के अधिकारियों का फ़ोन आया। जिन मामलों की जांच चल रही थी, उनमें हिंदू अतिवादियों पर आरोप थे। मुझसे कहा गया वे बात करना चाहते हैं। एनआईए के उस अधिकारी ने कहा कि ऊपर से इस मामले में नरमी बरतने के लिए कहा गया है।
ज्ञात हो कि पिछले 8 जुलाई को एनआइए की विशेष अदालत ने ईडी को महाराष्ट्र के पूर्व गृहमंत्री अनिल देशमुख के खिलाफ दर्ज मनी लांड्रिंग मामले में मुंबई पुलिस के बर्खास्त अधिकारी सचिन वाजे से पूछताछ की इजाजत दी थी। सचिन वाजे को एंटीलिया केस और ठाणे के कारोबारी मनसुख हिरेन की हत्या के मामले में मार्च में गिरफ्तार किया गया था। उल्लेखनीय है कि सचिन वाजे की गिरफ्तारी व मुंबई पुलिस आयुक्त पद से हटाए जाने के बाद परमबीर सिंह ने मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को पत्र लिख तत्कालीन गृहमंत्री अनिल देशमुख पर 100 करोड़ वसूली करवाने का आरोप लगाया था।
गृहमंत्री देशमुख ने सचिन को बार व रेस्तरां से 100 करोड़ रुपये प्रतिमाह वसूली का लक्ष्य दिया था। हालांकि, देशमुख ने आरोपों से इन्कार किया था। उपरोक्त सभी कार्यवाही पुलिस पर राजनीतिज्ञों के दबाव का ही परिणाम है, भले ही इसे आज कोई स्वीकार करे या न करे। तभी तो सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा, 'पुलिस अफसर सत्ता में मौजूद राजनीतिक पार्टी का फेवर लेते हैं और उनके विरोधियों के खिलाफ कार्रवाई करते हैं। बाद में जब विरोधी सत्ता में आते हैं तो पुलिस अफसरों पर कार्रवाई होती है। यह परेशान करने वाला ट्रेंड है। इसे रोकने की जरूरत है।
सीजेआई रमण ने आगे कहा, 'जब सरकार बदलती है तो पुलिस अफसरों को ऐसे आरोपों का सामना करना ही पड़ता है। यह देश में नया चलन है। उन्होंने कहा, 'इस सबके लिए खुद पुलिस अफसरों को ही जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए, उनको कानून के शासन पर टिके रहना चाहिए। अब प्रश्न यह है कि सुप्रीम कोर्ट की इस कड़ी टिप्पणी के बाद भी सत्तासीन राजनीतिज्ञों से अपनी दूरी बनाकर संविधान प्रदत्त अधिकारों का वह उपयोग पुलिस के आला अधिकारी ऐसा करेंगे
पूर्व आईपीएस अफसर अमिताभ ठाकुर को पिछले महीने 27 अगस्त को लखनऊ में गिरफ्तार किया गया था। ठाकुर पर मुख्तार अंसारी के कहने पर रेप के आरोपी सांसद अतुल राय को बचाने के लिए आपराधिक षड्यंत्र रचने का आरोप है। जिस लड़की ने अतुल राय पर रेप का आरोप लगाया था, उसकी मौत हो चुकी है। पीड़िता ने 16 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट के बाहर अपने दोस्त के साथ खुद को आग लगाकर आत्महत्या की कोशिश की थी। इलाज के दौरान दोनों की मौत हो गई । अपनी गिरफ्तारी को अवैध ठहराते हुए पूर्व आईपीएस अमिताभ ठाकुर ने भी अब एक मुकदमा दर्ज कराया है।
अमिताभ ठाकुर का यह मुकदमा यूपी के नौ अफसरों के खिलाफ है, जिसमें एडिशनल चीफ सेक्रेटरी अवनीश अवस्थी भी शामिल हैं। अमिताभ ठाकुर ने इन अफसरों के खिलाफ सीजेएम कोर्ट में मुकदमा दायर किया है, जिसमें उन्होंने आरोप लगाया है कि बदला लेने की नीयत से उन्हें नौकरी से निकाला गया, साथ ही फर्जी मुकदमे में जेल भेज दिया गया। अब सच क्या है यह तो जांच के बाद ही पता चलेगा, लेकिन अंदर की जानकारी यह है कि अमिताभ ठाकुर को किसी भी सत्तासीन राजनेताओं का आशीर्वाद प्राप्त नहीं था। लिहाजा, वह सत्ता की गलियारों में पीछे होते गए और अब उनका हाल यह हो गया कि पुलिस उन्हें घसीटकर घर से ले गई। ऐसे में सवाल यह है कि यदि सत्तासीन को अधिकारी अपना आका नहीं मानेंगे तो क्या वह अपना भी वही हाल कराएंगे जो हाल अमिताभ ठाकुर का लखनऊ में हुआ? सर्वोच्च न्यायालय को इस पर भी सख्त आदेश देने की जरूरत है।
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