सम्पादकीय

हिमाचल का वैधानिक उद्गार

Gulabi
2 Sep 2021 6:47 AM GMT
हिमाचल का वैधानिक उद्गार
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पूर्ण राज्यत्व के पचास सालों की सुखद अनुभूति में हिमाचल अपनी उपलब्धियों का शृंगार कर रहा है और इसी के आलोक

दिव्याहिमाचल.

पूर्ण राज्यत्व के पचास सालों की सुखद अनुभूति में हिमाचल अपनी उपलब्धियों का शृंगार कर रहा है और इसी के आलोक में 17 सितंबर को विधानसभा का विशेष सत्र राज्य के प्रति वैधानिक उद्गार होगा। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की मौजूदगी में पर्वतीय राज्य के कदमों का विवरण, कई मायनों में वाकई एक इतिहास को पूर्ण करने की समीक्षा है। यह आधी सदी का ऐसा पड़ाव है, जो जनता की मेहनत, राजनीतिक नेतृत्व की दृष्टि और उम्मीदों के प्रायोजन में आगे बढऩे का संकल्प रहा। हिमाचल को कितना और आगे जाना है, इस प्रश्न से पहले जहां तक पहुंचा है, उसका उल्लेख राहत के तमगों के साथ होगा।
आंकड़े तरह-तरह के सबूतों के साथ प्रदेश की कद-काठी को ऊंचा करते हैं और यह सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका में सफल होने की पराकाष्ठा की तरह है। इन पचास सालों का जिक्र राजनीति की बदौलत कई जनप्रतिनिधियों को हमारे स्मरण में आदरणीय बना सकता है, लेकिन अतीत के सफर में दिखाई गई इच्छा शक्ति के लिए हिमाचल का समावेश जिन हस्तियों ने किया या जिस तरह पूर्व मुख्यमंत्री वाईएस परमार ने 'पहाड़ी होने को गौरवान्वित किया, उस भावना का हर पहलू आज के परिप्रेक्ष्य में याद करना होगा। एक दौर वह भी था जब अपनी लंगड़ी भूमिका में घुटने टेक कर यह प्रदेश चलना सीख रहा था और आज हर मुकाम पर बड़े व प्रगतिशील राज्यों से आगे साक्षरता दर, सड़क घनत्व, शैक्षणिक व चिकित्सा संस्थानों की शुमारी में आगे दिखाई देता है। लोकतांत्रिक मूल्यों में नागरिक समाज की जिस पीढ़ी की मुलाकात आज और कल से है, वहां प्रति व्यक्ति आय का हिसाब, हर तरह से सामाजिक न्याय के शिलालेख ऊंचे कर देता है। यही वजह है कि राष्ट्रीय कार्यक्रमों में प्रदेश की भागीदारी सर्वोच्च शिखर पर होती है। कोविड बचाव के कार्यांे में पहली डोज का सौ फीसदी लोगों तक पहुंचना, वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हिमाचल के यथार्थ को पूर्ण करता है। ऐसी अनेक पूर्णताओं को हासिल करके यह प्रदेश अपने सामने प्रगति के आईने खड़े करता है, लेकिन 'पहाड़ी होनेÓ की खासियत के साथ वांछित मर्यादा को हम तेजी से खो रहे हैं।
विकास के वैभव में ही यह सवाल नहीं, बल्कि सामाजिक व सांस्कृतिक धरातल पर भी खंडित होती शर्तों के दामन में दाग हैं। यह पर्यावरणीय चिंताओं से कहीं आगे तमाम नियमावलियों का उल्लंघन है जो दरकते पहाड़ों को उदासीनता से देखता है या नदी-नालों के आंचल से गाद बटोरता है। यह पहाड़ी चरित्र तो नहीं कि हम प्रकृति की छाती को चीर कर निजी प्रगति का माफिया बन जाएं या एक ऐसा शासक वर्ग तैयार कर लें जो प्रदेश के संसाधनों की नीलामी पर उतर आए। जिन कारणों पर केंद्रित हिमाचल अपने अस्तित्व का प्रकाश कर पाया, उनसे कहीं अलग अब राजनीतिक दिशाओं का स्वावलंबन ढूंढा जा रहा है। समीकरणों की नई खाद और पौध पर आश्रित एक ऐसा क्षेत्रवाद पैदा हो रहा है, जो सारे प्रदेश को तरह-तरह के चश्मों से देख रहा है। राजनीति में जातीय श्रेष्ठता, क्षेत्रीय गठबंधन व सत्ता के गरूर ने 'पहाड़ी होने का सांस्कृतिक ह्रास इस कद्र किया है कि एक साथ कई मुहानों की प्रतिस्पर्धा में आंकड़े फिसल रहे हैं। राज्य को केवल हुक्मरान संबोधित नहीं कर सकते, बल्कि उस औचित्य को याद करना होगा जो हमें पहाड़ी बोलियों, रिश्तों, संस्कृति व परंपराओं के संगम पर ले आया है। हिमाचल की विशालता में पंजाब के पर्वतीय क्षेत्र मिले, लेकिन अब प्रदेश अपने ही लोगों की विरासत से गले नहीं मिल पा रहा। हिमाचल की पूर्णत: में विराम लगाते राजनीतिक क्षेत्रवाद को दूर करके, क्या हम हिमाचली भाषा, गीत-संगीत, नृत्य व लोकसंस्कृति के प्रतीकों को जीवंत कर पाएंगे।
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