सम्पादकीय

भारत में मेडिकल एजुकेशन की स्थिति: संख्या नहीं, डॉक्टरों की तैनाती में समस्या

Gulabi Jagat
21 March 2022 5:50 AM GMT
भारत में मेडिकल एजुकेशन की स्थिति: संख्या नहीं, डॉक्टरों की तैनाती में समस्या
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भारत में मेडिकल एजुकेशन की स्थिति
डॉ. कृष्णा रेड्डी नल्लामल्ला.
जब कोरोना महामारी ( Corona Pandemic) ने दस्तक दी तो सामान्य रूप से हेल्थ सिस्टम से संबंधित पॉलिसी पर फोकस बढ़ा और अब यूक्रेन युद्ध संकट ने भारत में मेडिकल एजुकेशन (Medical Education) की स्थिति पर ध्यान केंद्रित कर दिया है. दरअसल, देशभर में हर साल 595 मेडिकल कॉलेजों से एलोपैथी पढ़ने वाले लगभग 90 हजार मेडिकल स्टूडेंट निकलते हैं, जबकि 733 आयुष कॉलेजों से अतिरिक्त 53 हजार आयुष मेडिकल स्टूडेंट्स ग्रेजुएट होते हैं. लोकसभा में केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण राज्य मंत्री द्वारा जुलाई 2021 के दौरान दिए गए बयान के मुताबिक, भारत में 12.68 पंजीकृत एलोपैथिक और 5.65 लाख आयुष डॉक्टर हैं. इनके अलावा विदेशी मेडिकल कॉलेजों से ट्रेंड होने वाले छात्रों को भी नेशनल बोर्ड ऑफ एग्जाम्स (NBE) द्वारा आयोजित फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट एग्जाम्स (FMGE) पास करने के बाद प्रैक्टिस के लिए लाइसेंस दिया जाता है. गौर करने वाली बात यह है कि FMGE के लिए आवेदन करने वाले छात्रों की संख्या साल-दर-साल बढ़ रही है. वहीं, कई राज्य सरकारों ने हाल ही में हर एक जिले में नए मेडिकल कॉलेज स्थापित करने का ऐलान किया है.
भारत को 14 लाख डॉक्टरों की जरूरत
गौरतलब है कि डब्ल्यूएचओ हर 1000 लोगों पर कम से कम एक डॉक्टर की सिफारिश करता है. इस आंकड़े को छूने के लिए भारत को 14 लाख डॉक्टरों की जरूरत है. हालांकि, डब्ल्यूएचओ यह स्पष्ट नहीं करता है कि इस आकलन में इलाज के वैकल्पिक सिस्टम के तहत प्रैक्टिस करने वाले औपचारिक रूप से योग्य आयुष डॉक्टरों को गिना जाए या नहीं.
ऊपर दिए गए आंकड़ों के हिसाब से अगर हम सिर्फ एलोपैथिक डॉक्टरों की गिनती करें तो लगता है कि हम बेंचमार्क के करीब हैं. हालांकि, हर साल रिटायरमेंट, माइग्रेशन, दूसरा करियर चुनने और मृत्यु की वजह से हमारे पास सटीक आंकड़े नहीं हैं, जिससे इन कारणों से होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए नए ग्रेजुएट्स की संख्या का अंदाजा लगाया जा सके. एक्सेस हेल्थ इंटरनेशनल के अध्यक्ष और दक्षिण एशिया के इनऑर्डर रीजनल डायरेक्टर डॉ. कृष्णा रेड्डी नल्लामल्ला कहते हैं कि यूक्रेन संकट के बीच भारतीय चिकित्सा शिक्षा के डिजिटल हेल्थ क्षेत्र में, खासतौर पर टेलीमेडिसीन, क्लीनिकल डिसीजन सपोर्ट सिस्टम्स और सेल्फ-केयर के क्षेत्र में हम जो क्रांति देख रहे हैं उसमें ऐप्स और एआई यानी आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पूरी तरह समीकरण बदल सकते हैं.
डिमांड-सप्लाई में गैप के सिस्टेमैटिक आकलन की जरूरत
मेडिकल करने वाले छात्रों की संख्या को देखकर लगता है कि हम डिमांड-सप्लाई की वांछित संख्या के करीब हैं, लेकिन उन्हें भौगोलिक स्थिति और विशेषज्ञता के संदर्भ में आबादी के हिसाब से तैनात नहीं किया जाता है. देश की दो तिहाई आबादी अब भी गांवों में रहती है, जबकि दो तिहाई डॉक्टर्स कस्बों और शहरों में रहते हैं, जिससे डिमांड-सप्लाई में हमेशा अंतर बना रहता है. दरअसल, लोग अपनी जरूरत के अनुसार विशेषज्ञ डॉक्टर को ढूंढते हैं, उनकी संख्या आबादी के रोग के अनुपात में नहीं होती है. मोबाइल क्लीनिक, टेलीमेडिसिन और रोड कनेक्टिविटी बढ़ाकर आंशिक रूप से गांवों में इस गैप को खत्म किया जा रहा है, लेकिन टेलीमेडिसिन कभी भी मरीजों से बात करके और उन्हें छूकर इलाज करने वाले डॉक्टरों की जगह नहीं ले सकती. आज के दौर में विशेष पाठ्यक्रमों में सीटों की योजना बनाकर विशेषज्ञों की डिमांड-सप्लाई के अंतर का सिस्टमैटिक असेसमेंट करने की जरूरत है.
गुणवत्ता भी बड़ी चिंता
देशभर के मेडिकल कॉलेज कागजों पर नेशनल मेडिकल काउंसिल द्वारा निर्धारित मानकों का पालन करते हैं, लेकिन वहां पढ़ने वाले छात्र ज्ञान और कौशल के मामले में एक जैसे नहीं होते हैं. दरअसल, प्रयोगशालाओं, फैकल्टी के दौरे के विशेषाधिकार, ऑनलाइन क्लासेज और टीचिंग मैथड की नकल करके मानक तैयार किए गए हैं. वहीं, योग्यता आधारित शिक्षण पाठ्यक्रम तैयार किया जा रहा है. हालांकि, क्लीनिकल केसों, डायग्नोस्टिक और थैरेप्यूटिक टेक्नोलॉजी में आपसी संपर्क आज भी चुनौतीपूर्ण है. इसे क्लीनिकल रोटेशन में लचीलापन कहा जा सकता है.
देशभर में सामान्य मानकों को सुनिश्चित करने के लिए कॉमन एंट्रेंस टेस्ट – NEET डिजाइन किया गया है. इसकी तरह प्रपोज्ड कॉमन एग्जिट एग्जाम NEXT देश भर में तैयार होने वाले मेडिकल छात्रों में एकरूपता ला सकता है. हालांकि, कुछ राज्य संघवाद और आजादी के नाम पर NEET पर आपत्ति जता रहे हैं. तथ्य यह है कि हमारे पास मेडिसिन प्रैक्टिस के लिए अलग से राज्य-स्तरीय लाइसेंसिंग नहीं है. ऐसे में नेशनल लेवल के एंट्रेंस और एग्जिट एग्जाम की जरूरत समझ आती है. उपरोक्त प्रक्रिया में समझाया गया कि एग्जिट लेवल किस तरह क्वालिटी सुनिश्चित करता है. ऐसे में यह देखना होगा कि मेडिकल साइंस में लगातार हो रहे बदलाव की स्थिति में क्वालिटी को बरकरार कैसे रखा जाए. अहम बात यह है कि कई विकसित देशों की तरह भारत में ऐसा कोई सिस्टम नहीं है, जिसमें डॉक्टरों की दक्षता पर नजर रखने के लिए हर 10 साल में अनिवार्य सतत चिकित्सा शिक्षा (सीएमई) क्रेडिट और री-लाइसेंसिंग परीक्षा कराई जाए.
मजबूत हेल्थ सिस्टम की नींव है मेडिकल एजुकेशन
मेडिकल एजुकेशन छात्रों को सबसे मुश्किल और डायनामिक हेल्थ सिस्टम के लिए तैयार करेगी. मेडिकल एजुकेशन पर पारंपरिक तरीके से ध्यान देने के अलावा आज की तारीख में एक छात्र को हेल्थ सिस्टम, हेल्थ मैनेजमेंट, पब्लिक हेल्थ, हेल्थ इनफॉर्मेटिक्स, हेल्थ इकोनॉमिक्स, हेल्थ पॉलिसी, हेल्थ रेगुलेशन, हेल्थकेयर परचेजिंग और बिहेवियरल साइंसेज में पारंगत होने की जरूरत है. किसी भी मेडिकल स्टूडेंट को मेडिकल एथिक्स, सहानुभूति, समानता, मरीज पर ध्यान केंद्रित करने और मानवीय संवेदनाओं के मामले में उच्चतम स्तर तक पेशेवर बनाया जाना चाहिए.
मेडिकल प्रोफेशनल्स को तैयार करने की योजना लोगों की बढ़ती हेल्थकेयर जरूरतों, एडवांस मेडिकल और डिजिटल टेक्नोलॉजी और बुजुर्ग आबादी के अनुसार बनाई जानी चाहिए. छात्रों के लिए ऐसे पाठ्यक्रम तैयार किए जाने चाहिए, जिससे वे जटिल हेल्थ सिस्टम और मरीजों पर आधारित वैल्यू बेस्ड केयर के रूप काम कर सकें. मानकों में सीखने के नए तरीकों और टूल्स को जोड़ना चाहिए. एंट्रेंस और एग्जिट परीक्षाओं, लाइसेंसिंग और री-लाइसेंसिंग में मानकों की क्वॉलिटी तय होनी चाहिए. नेशनल हेल्थ प्रोफेशनल रजिस्टर को मेडिकल ग्रेजुएट्स और पोस्ट ग्रेजुएट्स की सप्लाई के आधार पर तैयार किया जाना चाहिए. इनके अलावा दुनिया भर में डॉक्टरों की डिमांड-सप्लाई में बढ़ रहा गैप हेल्थ वर्कफोर्स लेबर इकोनॉमिक्स के लिए बेहद गंभीर समस्या है.
(लेखक एक्सेस हेल्थ इंटरनेशनल के अध्यक्ष और दक्षिण एशिया में इनऑर्डर रीजनल डायरेक्टर हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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