सम्पादकीय

हैसियत घटी है...पाक को इसका अहसास है; पाकिस्तान का राष्ट्रीय सुरक्षा नीति दस्तावेज़ विश्व में उसके दर्जे पर विमर्श

Gulabi
18 Jan 2022 8:44 AM GMT
हैसियत घटी है...पाक को इसका अहसास है; पाकिस्तान का राष्ट्रीय सुरक्षा नीति दस्तावेज़ विश्व में उसके दर्जे पर विमर्श
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पाकिस्तानी सरकार के किसी गंभीर-से-गंभीर नीतिगत बयान को भी बकवास या पुरानी बोतल में पुरानी शराब कहकर खारिज कर देना कितना सुविधाजनक
शेखर गुप्ता का कॉलम:
पाकिस्तानी सरकार के किसी गंभीर-से-गंभीर नीतिगत बयान को भी बकवास या पुरानी बोतल में पुरानी शराब कहकर खारिज कर देना कितना सुविधाजनक, सुरक्षित और फायदेमंद लगता है! भारत का ये रवैया लंबे समय से जारी है। पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा विभाग ने शुक्रवार को जो ताजा राष्ट्रीय सुरक्षा नीति दस्तावेज़ जारी किया है, उस पर हम नज़र डालते हैं। यहां आपको पांच ठोस बातें मिलेंगी। ये जानने वाली बात है कि इस दस्तावेज़ में कश्मीर को लेकर केवल 113 शब्द दिए गए हैं।
इसमें जो कहा गया है उससे ज्यादा महत्वपूर्ण वह है, जो नहीं कहा गया है। सबसे पहली बात तो यह कि 5 अगस्त 2019 को भारत ने जम्मू-कश्मीर का दर्जा बदलने का जो फैसला किया था उसे वापस लेने की कोई मांग इसमें नहीं की गई है। क्या इसका मतलब यह है कि इमरान खान सामान्य स्थिति बहाल करने की जिस शर्त को बार-बार दोहराते रहे हैं उसे पाकिस्तान छोड़ रहा है? पिछली साल उन्होंने अपनी फौज के इस विचार को खारिज कर दिया था कि भारत के साथ व्यापार फिर शुरू किया जाए।
उन्होंने कहा था कि भारत पहले कश्मीर पर उनकी शर्तें कबूल करे। अब, उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मोईद यूसुफ ने जिस दस्तावेज़ पर दस्तखत किया है वह उस रुख के विपरीत है। इसके अलावा, कश्मीर के मामले में वह क्या चाहता है? यहां पर मुझे याद आ रहा है, 1991 में 'इंडिया टुडे' के लिए मैंने जो पहला इंटरव्यू लिया था नवाज़ शरीफ का। वे तब पहली बार पीएम बने थे।
उन्होंने सभी मसलों पर गर्मजोशी से जवाब दिया था। लेकिन जब मैंने कश्मीर के बारे में सवाल किया, तो उन्होंने अपने सूचना सलाहकार मुशाहिद हुसैन की ओर मुड़कर मुस्कराते हुए जवाब दिया था, 'वो, क्या कहते हैं हम, आप ही बताएं।' मुशाहिद हुसैन ने जो कहा था उसे मैं दोहरा नहीं सकता। लेकिन वह 113 शब्दों में समा सकता था। वे लगभग वे ही शब्द थे जो इस दस्तावेज में कहे गए हैं। 2019 के इमरान से 1991 के नवाज तक पीछे नजर डालना महत्वपूर्ण है।
- अर्थव्यवस्था को राष्ट्रीय सुरक्षा का जिस तरह मुख्य आधार बताया गया है, वह काबिले गौर है। हम देख सकते हैं कि आंतरिक अस्थिरता और अंतरराष्ट्रीय उदासीनता के कारण पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को चोट पहुंच रही है। यह दस्तावेज़ उन्हीं सप्ताहों के बीच आया है जब वह स्वीकृत कर्ज हासिल करने के लिए आईएमएफ से अपमानजनक वार्ता कर रहा था। 1993 के बाद से वह 11वीं बार कर्ज ले रहा था।
अब हमें पता चला है कि इमरान ने इसी सप्ताह बयान दिया है कि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था भारत की अर्थव्यवस्था से बेहतर हाल में है, लेकिन यह बात वे आईएमएफ से निश्चित ही नहीं कह रहे हैं। पाकिस्तान को उसकी 'शर्तें' बहुत भारी लग रही हैं जिनसे महंगाई बढ़ सकती है और लोगों का असंतोष भी बढ़ेगा।
उसने मांग की है कि आईएमएफ बोर्ड की बैठक इस महीने के अंत तक टाली जाए ताकि वह विचार कर सके कि इस राहत से हाथ धो बैठे या चीजों की कीमतें बढ़ाने, टैक्सों में वृद्धि करने और अपने केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता की गारंटी देने का नया कानून बनाने के बारे में फैसला कर सके। अर्थव्यवस्था, आंतरिक स्थिरता, आंतरिक अलगाववादी आंदोलनों पर ज़ोर देना इस बात को रेखांकित करता है कि आज का पाकिस्तान 30 साल पहले वाला पाकिस्तान नहीं है, वह आज अपने गिरेबां में ज्यादा झांकने लगा है।
- पाकिस्तान की मौजूदा सरकार का दुनिया को देखने का नज़रिया दिलचस्प है। जब आप अफगानिस्तान, चीन, भारत, ईरान के बारे में पढ़ेंगे तो एक क्षण के लिए लगेगा कि यह वर्णमाला के मुताबिक उन देशों की सूची है जिन्हें पाकिस्तान अहम मानता है। लेकिन ये सूची भारत पर खत्म होती है और इसके बाद 'बाकी देश' हैं। और तब अमेरिका उभरता है।
अमेरिका को बाकी देशों में शुमार किया गया है? वह भी उनकी वजह से जिन्हें वह दिग्गज सहयोगी बताता है- जॉर्ज डब्लू बुश। क्या आप इसकी कल्पना कर सकते थे? बशर्ते आप ये न सोच रहे हों कि यह 'कीमत' बाइडेन को तो चुकानी ही पड़ेगी क्योंकि उन्होंने इमरान खान को अब तक फोन नहीं किया है।
- और, अमेरिका के बारे में यह दस्तावेज़ क्या कहता है? यह कि पाकिस्तान उसके साथ रिश्ते का स्वागत करता है मगर वह 'खेमेबाजी की राजनीति' को मंजूर नहीं करता। यह इस उपमहाद्वीप के उस एकमात्र देश के लिए कुछ बड़ी ही बात है जो बहुदेशी, सैन्य-सामरिक संधियों में औपचारिक रूप से शामिल है। और ये तमाम 'सीटो', 'सेंटो' जैसी संधियां अमेरिका के साथ की गई हैं। आज भी वे संधि से बंधे सुरक्षा सहयोगी हैं। लेकिन, क्या यह सब तब बदल जाएगा, जब बाइडेन का फोन आ जाएगा?
पाकिस्तान का कहना है कि उसे यह मौजूदा स्थिति पसंद नहीं है, जिसमें अमेरिका के साथ उसका रिश्ता केवल आतंकवाद-विरोध में सहयोग पर केंद्रित है। इसका मतलब यह है कि क्या उसे केवल दुनिया के लिए सिरदर्द ही माना जाएगा? सबसे पुराने साथी और सरपरस्त की उदासीनता से उपजी हताशा साफ झलकती है। यह तब भी सामने आती है जब दस्तावेज़ में भारत की बात की गई है और शिकायत की गई है कि उस पर परमाणु प्रसार से संबंधित पाबंदियां क्यों उठा ली गई हैं।
-अब हम पांचवीं और अंतिम वजह पर आते हैं। भारत में आज जिस विचारधारा का राज है और जो उसे चला रही है उसका कई बार जिक्र किया गया है- 'हिंदुत्ववादी राजनीति।' यह आशंका भी जाहिर की गई है कि इस विचारधारा के तहत काम करते हुए भारत एकतरफा समाधान भी लागू कर सकता है। या फिर जंग शुरू हो सकती है जो पारंपरिक किस्म की भी हो सकती है या ऐसी भी जिसमें 'सीधी टक्कर न हो।' इस दस्तावेज़ को तैयार करने वालों की मंशा क्या है, इसे विस्तार से नहीं बताया है।
यह साइबर युद्ध भी हो सकता है, या दूर से मार करने वाली मिसाइलों आदि के जरिए युद्ध भी हो सकता है जिसमें किसी-न-किसी तरह का 'संपर्क' तो होगा ही। या फिर राजनीतिक मुहिमों और दबावों का सहारा लिया जा सकता है, जैसा कि प्रमुख विदेशी राजधानियों और आईएमएफ जैसी बहुद्देशीय संस्थाओं में होता है। अभी निश्चित रूप से कुछ कहना मुश्किल है, सिवा इसके कि आशंकाओं पर गौर किया जाए।
पाकिस्तान आहत है, अपने गिरेबां में झांक रहा है, उसे सांस लेने की मोहलत चाहिए। उसे इस बात का एहसास हो रहा है कि दुनिया में उसकी हैसियत गिरी है और अमेरिका के साथ उसकी दोस्ती टूटी है, जिसका एकआयामी संदेश यह है कि तुम यह गारंटी दो कि तुम्हारी जमीन से हमें परेशान करने वाली कोई बेजा हरकत अब न हो।
और तीसरी बात यह कि भारत के साथ व्यापार फिर शुरू करने के फौज के विचार को पिछले साल तीन बार खारिज कर चुके, अमेरिका को अफगानिस्तान में कार्रवाई करने के लिए अपने हवाई मार्ग का इस्तेमाल करने की अनुमति देने से इनकार कर चुके, और नए आईएसआई प्रमुख की नियुक्ति के लिए मना कर चुके इमरान खान अब इन बातों पर कान दे रहे हैं। फिलहाल तो ऐसा ही लग रहा है, क्योंकि उनकी सियासत और लोकप्रियता कमजोर पड़ रही है।
48 पृष्ठों का दस्तावेज़
पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा नीति दस्तावेज़ को गंभीरता से लेने की तीन वजहें हैं। एक तो यह कि यह संक्षिप्त है, मोटे अक्षरों में सिर्फ 48 पेज का। इसमें और भी कुछ है, जो गोपनीय है। दूसरी वजह यह है कि इसमें ज़्यादातर घिसी-पिटी बातें हैं। और तीसरी यह कि इन सबके बावजूद इसमें ऐसे कुछ अंश भी हैं जो भारत को काम के लग सकते हैं और उन पर बहस करना उपयोगी लग सकता है। इसकी ज्यादातर बेकार बातों को खारिज कर सकते हैं, लेकिन अगर हम पाकिस्तानी सरकार के प्रति अपनी पुरानी नफरत को अपनी उत्सुकता पर हावी न होने दें तो आपको कुछ ठोस बातें मिलेंगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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