सम्पादकीय

मुफ्त की घोषणाओं से दिवालिया हो जाएंगे राज्य

Rani Sahu
19 Sep 2022 6:58 PM GMT
मुफ्त की घोषणाओं से दिवालिया हो जाएंगे राज्य
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जैसे ही चुनावी बिगुल बजता है, सभी राजनीतिक दल अपने मतदाताओं को थोड़े समय के लिए रिझाने के लिए बहुत ही आकर्षक चुनावी वायदों की घोषणा करनी शुरू कर देते हैं। इन वायदों को साधारणत: समय की पुकार के अनुसार उद्घोषित किया जाता है तथा चुनावों के बाद जब उन्हें पूरा नहीं किया जाता है तब कहा जाता है कि धन के अभाव के कारण कुछ इंतजार करना पड़ेगा तथा यह इंतजार करते करते पांच वर्ष बीत जाते हंै तथा दोबारा चुनाव आ जाते हैं। वायदों की फेहरिस्त में आने वाले कुछ आकर्षक वायदे इस प्रकार से हैं : किसानों के ऋण माफ करना, किसानों को मुफ्त सिंचाई व मुफ्त बिजली की सुविधा प्रदान करना, बेरोजगार युवाओं को 3000 से 5000 रुपए तक मासिक भत्ता देना, महिलाओं को मुफ्त गैस सुविधा व बसों में नि:शुल्क यात्रा की सुविधा व बिना किसी आर्थिक आधार के सभी वरिष्ठ नागरिकों को पेंशन प्रदान करना, पंचायत सदस्यों व लंबरदारों के मानदेय भत्तों में बढ़ौतरी करना, दिहाड़ीदार मजदूरों को पक्का करना व मनरेगा जैसी स्कीमों में लोगों के भत्ते बढ़ाना व आंगनवाड़ी वर्करों का वेतन बढ़ाना इत्यादि। इसके अतिरिक्त सभी किसानों को जिनकी भूमि एक एकड़ (25 कनाल) से कम हो, उनके खातों में नि:शुल्क सरकारी अनुदान जमा करना। भूमिहीनों को मुफ्त की जमीन प्रदान करना, अनुसूचित जाति व जनजाति के बच्चों को एक निश्चित सीमा के ऊपर अंक लेने वाले सभी विद्यार्थियों को वजीफा, लैपटॉप व साइकिल इत्यादि उपलब्ध करवाना। उपरोक्त वर्णित कुछ ही उदाहरण हंै तथा इन वायदों की सूची असीमित होती है। वर्ष 2003 में केन्द्र सरकार को देश में बढ़ते कर्ज को ध्यान में रखते हुए पेंशन बंद करने के लिए मजबूर होना पड़ा। सरकार ने अपनी फिजूलखर्ची को नहीं रोका और न ही अपने विधायकों व संसदीय सदस्यों के खर्चों को कम किया तथा सीधे ही मुलाजमों की पेंशन बंद कर दी। अब परिस्थितियां ऐसी बन चुकी हैं कि पेंशन बहाल करना सरकारों के गले की फांस बन चुका है। कुछ विपक्षी सरकारों ने जैसा कि राजस्थान व झारखंड इत्यादि राज्यों ने पेंशन को बहाल करने का निर्णय तो जरूर लिया है, मगर यह तो समय ही बताएगा कि सीने में कितनी दर्द लग रही है। भारतीय लोकतंत्र का इतिहास रहा है कि राजनीतिक पार्टियां कुछ भी वादा करें मगर जरूरी नहीं है कि सरकार बनने पर वे इन पर खरा भी उतरें या उतारने की कोशिश करें।
सरकारें वादे तो जरूर करती हैं, मगर इस बात को नहीं बताती कि इन वादों को पूरा करने के लिए धन कहां से जुटाया जाएगा। लोग सोचते हैं कि नई सरकार अधिक नोट छाप लेगी तथा गरीबों के कल्याण के लिए उनमें बांट दिए जाएंगे। वास्तव में लोग आर्थिक व्यवस्था विशेषत: मौद्रिक प्रणाली से अनभिज्ञ होते हैं तथा राजनीतिक दलों के झांसे में आकर अपने मत का सही प्रयोग नहीं कर पाते। अर्थशास्त्रियों के अनुसार मुफ्तखोरी किसी भी तरह से अर्थव्यवस्था को आगे ले जाने में योगदान नहीं दे सकती। ये योजनाएं कागजों पर तो अच्छी दिखती हैं, लेकिन व्यवहार में यह अर्थव्यवस्था के लिए काफी खतरनाक है। वास्तव में प्रत्येक राजनीतिक दल अपना दृष्टि पत्र चुनाव से कुछ दिन पहले सार्वजनिक करता है तथा इन वादों को बिना किसी जवाबदेही के मतदाताओं को सुनहरी पिंजरे में कैद कर लिया जाता है तथा जो दल ज्यादा लुभावना वायदा करेगा वो ही दल जीतने में कामयाब हो जाता है। इस संबंध में चुनाव आयोग को सभी दलों को निर्देश देने चाहिए कि चुनाव से कम से कम एक महीना पहले अपना-अपना मैनीफेस्टो जारी करे तथा अपने वादों को पूरा करने के लिए धन की व्यवस्था कहां से जुटाएंगे, इसका विवरण भी दें। यह बात भी स्पष्ट है कि केन्द्र में जिस दल की सरकार होती है वह विपक्षी दल के राज्यों को पर्याप्त धन उपलब्ध नहीं करवाती तथा इस कारण से भी विपक्षी पार्टियां अपने वायदे पूरे करने में असफल रह जाती हैं।
यह बात भी सही है कि जन प्रतिनिधित्व अधिनियम धारा 123 के अनुसार घोषणा पत्र में किए गए वादों को भ्रष्ट आचरण नहीं माना जा सकता, मगर अब वक्त आ गया है कि इस धारा में संशोधन किया जाए ताकि झूठे वादों पर लगाम लगाई जा सके। यह बात भी ठीक है कि चुनावी घोषणा पत्र संकेत करता है कि सत्ता में आने पर पार्टी किस दिशा में काम करेगी तथा किस प्रकार की नीतियां बनाएगी। लोगों द्वारा वोट देने का निर्णय चुनावी घोषणा पत्र के आधार पर ही तय होता है। मुफ्त में बांटी जाने वाली रेवडिय़ां अर्थव्यवस्था पर बहुत बड़ा बोझ डालती हैं। इससे सरकार का वित्तीय घाटा बढ़ता है तथा कीमतें बढऩे लगती हैं। सबसे बड़ा प्रभाव गरीब व मध्यम वर्ग पर पड़ता है। लोक लुभावने वादों से आर्थिक विकास कभी नहीं हो सकता। ज्ञातव्य है कि हाल ही में मुफ्त की घोषणा के बढ़ते चलन को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गई थी। मगर इसमें चुनाव आयोग इन घोषणाओं का दुरुपयोग रोकने में असमर्थ ही दिखाई देता है। इन घोषणाओं के संबंध में कुछ सुझाव इस प्रकार हैं : 1. मतदाताओं को राजनीतिक दलों की नीति व विचारधारा को समझने का पूरा समय मिलना चाहिए। 2. घोषणा में किए गए झूठे वादों को किस तरह से पूरा किया जाएगा, इसके बारे में कोई बजट इत्यादि का प्रबंधन नहीं बतलाया जाता।
चुनाव आयोग को चाहिए कि सभी दलों व उम्मीदवारों को निर्देश दिए जाएं कि जिस दल के घोषणा पत्र में वादों को पूरा करने के लिए आर्थिक संसाधनों का विवरण न दिया गया हो, उसे इसके लिए उत्तरदायी ठहराया जाएं। 3. जो दल इन घोषणाओं के आधार पर जीत कर आता है, मगर उन घोषणाओं को अमलीजामा नहीं पहनाता, उसे इसके लिए जवाबदेह बनाना चाहिए। यह भी जरूरी है कि प्रत्येक सत्तादल अपने घोषणा पत्र के क्रियान्वयन की वार्षिक रिपोर्ट सार्वजनिक करे। 4. सभी दल अपना घोषणापत्र जारी करने के लिए दूसरे दल के घोषणा पत्र का इंतजार करते रहते हैं तथा एक दल का पत्र प्रकाशित होने के बाद दूसरे-तीसरे दिन ही अपने घोषणा पत्र में दूसरे दल के वादों से भी ज्यादा वादों की घोषणा करके मतदाताओं को बेबकूफ बनाने का प्रयास करते हैं। इस परंपरा को तोडऩे के लिए चुनाव आयोग को ऐसे निर्देश जारी करने चाहिए कि सभी दल एक ही निश्चित की गई तिथि वाले दिन ही अपने अपने घोषणा पत्र प्रकाशित करें ताकि निष्पक्ष व स्वतंत्र चुनाव करवाए जा सकें। भारत का विदेशी कर्ज वित्त वर्ष 2022 के दौरान वार्षिक आधार पर 8.2 प्रतिशत बढ़ोतरी की दर पर 620.7 अरब डालर हो गया है तथा इस तरह से भारत के हर नागरिक पर 32 हजार रुपए कर्ज हो चुका है। बढ़ते विदेशी ऋण से देश की अर्थव्यवस्था मुसीबत में फंस सकती है।
राजेंद्र मोहन शर्मा
रिटायर्ड डीआईजी

By: divyahimachal

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