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- राज्य की हिंसा बनाम...
बहुत पुरानी कहावत है, बोया बीज बबूल का, आम कहां से होए! संभवतः हर संस्कृति में ऐसी कहावत होती है क्योंकि कहावतें मानव विकास के अनुभव से गढ़ी जाती हैं। जिस कहावत को हम इतना सुनते-जानते हैं, तब ऐसा क्या है कि हम उसे गुन नहीं पाते? एक वजह तो है, हमारी शिक्षा, स्कूल हो कि घर कि समाज, आज सभी बाजार को देखकर चल रहे हैं। बाजार की सफलता के लिए यह जरूरी है कि लोग इस बात को कभी न समझें कि कैसे आपके जीवन की हर कड़ी दूसरी से जुड़ी हुई है, एक का दूसरे पर असर होता है। यदि बबूल का पेड़ लगाएंगे तो फल-फूल-पत्ते-जड़ें सभी बबूल की ही होंगी, आम की नहीं। मसलन, यदि लोगों को समझ में आ जाए कि अंधाधुंध बनते-चलते-खुलते बड़े उद्योगों का हमारे पर्यावरण पर, हमारे जल, जंगल और जमीन पर, अपने व हमारे बच्चों के स्वास्थ्य पर कैसा दुष्परिणाम होता है और कैसे हम हमारी धरती मां को दिन-ब-दिन नष्ट करते जा रहे हैं तो विकास का यह चमकीला भांडा ही फूट जाएगा! गलत खानपान का हम पर क्या असर होता है, हम यदि यह समझ जाएं तो फिर विज्ञापनों, दवाओं और इलाज के लिए बने अस्पतालों का भट्ठा ही बैठ जाएगा। या फिर हमारी लगातार भागती-दौड़ती आधुनिक जीवन-शैली का हमारे मन व शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है, यह समझ में आने लगे तो बहुराष्ट्रीय बाजारों और पर्यटन व्यापार की लूट का क्या होगा? तब यह समझिए कि बड़े पैमाने पर हम लोग इस कहावत का इस्तेमाल तो करते हैं, पर वह हमारे सामने कैसे फलीभूत हो रही है, इसका आकलन नहीं कर पाते। यह कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे मैं अपनी मां से पूछती हूं कि जब तुम मानती हो कि देश के लोगों को मिलजुल कर, शांति से रहना चाहिए, तब कैसे एक ऐसी पार्टी और उसके नेता को वोट देती हो जो नफरत और केवल नफरत ही खाता-बोलता-फैलाता है? हमारा मीडिया नफरती और बदले से भरी नीतियों का बखान करता है, लेकिन यह चालाकी भी बरतता है कि उसी अखबार के किसी कोने में प्रेम, अहिंसा और सौहार्द के लेख भी छाप देता है, ताकि उसकी जहरीली चालाकी पर पर्दा पड़ा रहे। लेकिन समझने वाले समझते हैं कि बीज कौन-सा बोया जा रहा है और खाद-पानी किस बीज को मिल रहा है
सोर्स- divyahimachal