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किसी राज्य में जब सत्ता परिवर्तन होता है
एस श्रीनिवासन। किसी राज्य में जब सत्ता परिवर्तन होता है, तो शुरू-शुरू में नई सरकार के कामकाज को लेकर खूब अटकलें भी लगाई जाती हैं। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन इसके अपवाद नहीं हैं। चूंकि उन्होंने हाल ही में अपने शासनकाल के 200 दिन पूरे किए हैं, इसलिए यह अच्छा मौका है कि उनके कामकाज का विश्लेषण किया जाए। वैसे, उनकी सरकार राजनीतिक व्यावहारिकता, वैचारिक दृढ़ता और लोगों के अनुकूल सार्वजनिक चेहरे का सफल संगम साबित हुई है।
स्टालिन ने अपनी राजनीतिक राह खुद तैयार की है और 2021 के विधानसभा चुनावों के बाद वह खासा प्रभावी साबित हुए हैं। न केवल अन्नाद्रमुक को बांधे रखने और भाजपा से निपटने में वह सफल रहे हैं, बल्कि संगठन और सरकार के भीतर पार्टी के अन्य लोगों के लिए असंतोष का कोई मौका नहीं छोड़ रहे और मजबूती से सरकार चला रहे हैं। चूंकि द्रमुक एक काडर आधारित पार्टी है और इसकी जिला इकाई के प्रमुखों को शक्तिशाली क्षत्रप माना जाता है, लेकिन स्टालिन ने सब कुछ अच्छी तरह से मैनेज किया है।
उनके शासनकाल के तीन अलग-अलग फैसले बिल्कुल स्पष्ट हैं। सबसे पहले, उन्होंने सभी जातियों के पुजारियों को मंदिरों में पूजा कराने की अनुमति दी। यह द्रविड़ राजनीति के लिहाज से बड़ी उपलब्धि है, क्योंकि करुणानिधि इसके बारे में बातें तो करते रहे, पर इसे लागू नहीं कर सके। वैसे, ऐसा करते हुए स्टालिन खुद सुर्खियों से बाहर रहे। उन्होंने संबंधित मंत्री को इसके लिए आगे किया और इस पर बहुत शोर नहीं मचाया। हिंदुओं के एक बड़े वर्ग को, विशेषकर उच्च जातियों को वह उत्तेजित करते नहीं दिखे, जो यह मानते हैं कि मंदिरों के पुजारी होने की योग्यता केवल ब्राह्मणों में है। लेकिन ऐसा करते हुए उन्होंने अन्य जातियों को भी यह संदेश दिया कि वे भी ऐसी भूमिकाएं निभा सकते हैं।
दूसरा फैसला, स्टालिन ने तमिल भाषा के सांस्कृतिक जुड़ाव को बनाए रखते हुए यह अनिवार्य कर दिया कि जब भी राज्य गान तमिल थाई वजथु गाया जाए, तो सभी लोग खडे़ हो जाएं और 'मातृभाषा तमिल' के प्रति सम्मान प्रकट करें। उनकी सरकार ने इसे सुनिश्चित करने के लिए एक विभागीय आदेश जारी किया है। सरकार का यह फैसला हाई कोर्ट की उस टिप्पणी के बाद आया है, जिसमें कहा गया था कि तमिल थाई धुन के बजने पर लोगों के लिए खड़े होना जरूरी नहीं है। जाहिर है, यह दक्षिणपंथी उभार को खत्म करने और तमिल भाषा के साथ अपनी पार्टी व सरकार के जुड़ाव को सुनिश्चित करने के लिए किया गया है।
तीसरा फैसला, स्टालिन ने ईवी रामास्वामी नायकर की जयंती 17 सितंबर को सामाजिक न्याय दिवस घोषित किया। राज्य सरकार के सभी कार्यालयों और उसके कर्मचारियों के लिए सामाजिक अधिकारिता दिवस अनिवार्य कर दिया है। यह फैसला भी परोक्ष रूप से द्रमुक की द्रविड़ विचारधारा को प्रोत्साहित करता है।
स्पष्ट है, नए मुख्यमंत्री सधी हुई सियासी चाल चल रहे हैं, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि मूल द्रविड़ विचारधारा में तो कायम रहे ही, यह कर्म में भी दिखे, सिर्फ प्रतीक रूप में न रहे। इसीलिए करुणानिधि जहां व्यवहार में अतिरंजित थे, वहीं उनके पुत्र बेहतर क्रियान्वयन में माहिर हैं और बिना कोई विवाद खड़ा किए चुपचाप अपना काम कर रहे हैं।
स्टालिन जब विपक्ष को निशाने पर लेते हैं, तब वह द्रमुक और अन्नाद्रमुक के बीच की राजनीति को द्वि-ध्रुवीय रखने की कोशिश करते हैं। वह इसलिए ऐसा करते हैं, ताकि भाजपा को कोई मौका न मिले। बेशक भाजपा के नेतागण उन पर और उनकी पार्टी पर हमला करते रहते हैं, लेकिन वह किसी को सीधा जवाब देना उचित नहीं समझते। इसके बजाय वह अपने मंत्रियों और पार्टी प्रवक्ताओं को आगे कर देते हैं।
हालांकि, केंद्र की भाजपा सरकार से नाराजगी मोल लेने से उन्होंने परहेज किया है। केंद्र से उन्होंने शासकीय संबंध बनाए रखा है, ताकि टकराव पैदा न हो और राज्य के विकास से जुड़े फंड न रुकें। उन्होंने बगैर ना-नुकुर के केंद्र की पसंद के नौकरशाहों को स्वीकार किया है। राज्य में उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अनुसरण करते हुए अपने मंत्रियों और उनके समर्थकों पर कड़ी पकड़ बना रखी है। स्टालिन का भी प्रशासनिक तंत्र काफी हद तक नौकरशाहों के कंधों पर है। अपनी सार्वजनिक छवि को बेहतर बनाने के लिए वह मीडिया को खुश रखते हैं और सुबह की सैर या सप्ताहांत में साइकिल चलाने के दौरान लोगों से मिलना पसंद करते हैं। अपने समर्थकों के सुख-दुख में भी वह हरसंभव शरीक होते रहते हैं।
जब तक उनके पिता एम के करुणानिधि जीवित थे, स्टालिन को एक कमजोर राजनेता माना जाता था। द्रविड़ विचारधारा के लगभग हर एक हिस्से पर करुणानिधि हावी थे। वह जब भी सत्ता में आए, शासन पूरी तरह अपने कब्जे में रखा। किसी दूसरे के लिए उन्होंने नाममात्र की भी जगह नहीं छोड़ी। स्टालिन, जिन्होंने बहुत नीचे से सियासत की शुरुआत की है, अपने पिता के प्रति वफादार बने रहे। वह कई वर्षों तक पार्टी की युवा इकाई के प्रमुख रहे और शायद ही कभी चर्चा में आने का प्रयास किया। सियासी गलियारों में तो यह चुटकुला चल निकला था कि स्टालिन द्रमुक की युवा इकाई के मुखिया के तौर पर ही सेवानिवृत्त होंगे, क्योंकि उनके पिता 2018 में मृत्यु से कुछ वर्ष पहले तक खासा सक्रिय थे। हालांकि, स्टालिन चेन्नई नगर निगम के मेयर भी चुने गए और करुणानिधि शासन के दौरान दो बार उप-मुख्यमंत्री भी बने, लेकिन वह हमेशा अपने पिता की छाया में ही संतुष्ट दिखे।
एम के करुणानिधि के निधन के बाद भी जब उन्होंने आंतरिक सत्ता-संघर्ष से पस्त अन्नाद्रमुक से सत्ता हथियाने का कोई प्रयास नहीं किया, तब स्टालिन को एक कमजोर नेता माना गया। 2016 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने गठबंधन सहयोगियों के साथ 100 से अधिक सीटों पर जीत दर्ज की, लेकिन मामूली अंतर से सत्ता में नहीं आ सके। इसके लिए कांग्रेस को दोषी ठहराया गया, लेकिन स्टालिन ने खुद किसी का नाम नहीं लिया। साफ है, अब तक का उनका समय बहुत अच्छा रहा है, लेकिन उनकी क्षमता की असली परीक्षा तो तब होगी, जब वह अपने शासनकाल के आखिरी पड़ाव पर पहुंचेंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

Rani Sahu
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