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- परिवारवाद का दाग
Written by जनसत्ता: भारत की सबसे पुरानी पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस है। इसका भारत की आजादी में सर्वाधिक योगदान है। आजादी के पहले कांग्रेस की स्थापना एक अंग्रेज नौकरशाह एओ ह्यूम ने की थी। इस कांग्रेस ने सरदार पटेल, महात्मा गांधी, भुलाभाई देसाई, जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, राजेंद्र प्रसाद, लालबहादुर शास्त्री जैसे कद्दावर नेता दिए हैं।
15 अगस्त, 1947 को भारत के आजाद होने के बाद जवाहरलाल नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री बने। इसके बाद तो जैसे कांग्रेस धीरे-धीरे ही सही, एक परिवार की पार्टी बन कर रह गई। आजादी के पहले लगभग हर साल नए अध्यक्ष का चुनाव होता था। कांग्रेस की स्थापना 1885 से 1947 तक इकसठ अध्यक्ष हुए, लेकिन आजादी के बाद से अब तक कांग्रेस के छत्तीस अध्यक्ष हुए हैं, जिनमें जवाहरलाल नेहरू चार साल, इंदिरा गांधी सात साल, राजीव गांधी सात साल, सोनिया गांधी 1998 से अब तक, जिसके बीच में राहुल गांधी दो साल तक अध्यक्ष थे।
ये सब एक ही परिवार से थे। कांग्रेस में पहले जमीनी नेता हुआ करते थे, जो उसकी अच्छाइयां और कमियां दोनों बताते थे, जबकि आज अधिकतर जी-हुजूरी वाले नेता भरे पड़े हैं। इसके नेताओं को जनता के बीच में जाना चाहिए, उनके मुद्दे उठाने चाहिए। लेकिन ये एसी कमरों में बैठ कर सिर्फ ट्वीट करते हैं, सदन में चर्चा का बहिष्कार करते नजर आते हैं।
जबकि अगर ये असल मुद्दों पर केन्द्र एवं राज्य सरकारों को घेरना चाहें तो उनकी नीतियों में बड़े-बड़े छेद रहते हैं। देश का युवा वर्ग, सरकारी कर्मचारी, किसान आदि को कांग्रेस की नीतियां काफी पसंद आती हैं, क्योंकि कांग्रेस बहुत ज्यादा सरकारी नौकरियां निकालती थी, कर्मचारियों को टीए, डीए इस सरकार से ज्यादा बढ़ा कर देती थी। कांग्रेस के पास जोशीले, जानकार, ईमानदार युवा नेता हैं, अनुभवी और काबिल राजनेता हैं। कांग्रेस में और भी नेता हैं जो लाइमलाइट में नहीं हैं। कांग्रेस को चाहिए कि वह अपना नेतृत्व युवा नेताओं के हाथों में दे, अन्य नेताओं को आगे बढ़ाए। परिवारवाद का दाग मिटाने की कोशिश करते हुए आगे बढ़े।
भारत में बुजुर्गों को हमेशा से परिवार की रीढ़ माना गया है और सम्मान के मामले में सबसे ऊपर रखा गया है। मगर बदलते माहौल के चलते बुजुर्ग आज हाशिये पर पहुंच गए हैं। आए दिन बुजुर्गों के शारीरिक या मानसिक शोषण और दुर्व्यवहार की घटनाएं सामने आती हैं। समाज में अधिकतर बुजुर्ग परिवार में रहते हुए भी अकेलेपन की समस्या से जूझ रहे हैं। कई मामलों में बेटे, बहू और बेटियों के कामकाजी होने, बाहर रहने, पोते-पोतियों के हास्टल में रहने या व्यस्त रहने, परिवार से सहारा न मिलने की परेशानियां झेल रहे हैं।
जिस तरीके से माता-पिता अपने बच्चों का लालन-पालन करते हैं, उसी तरह उनको भी आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए सरकारें सुविधाएं तो दे रही हैं, कई कानूनी पाबंदियां भी लगाई गर्इं, लेकिन कर्तव्य विमुख होने के कारण इसका लाभ नहीं मिल पा रहा। बच्चों को अपने माता-पिता जैसे अपने साथ रखते हैं ठीक उसी तरह बुजुर्गों को भी साथ ले जाना चाहिए। उनकी जरूरतें भी सीमित होती हैं।
हम उनकी छोटी-सी जरूरतों को पूरा नहीं करेंगे तो आखिर कौन करेगा? अगर युवा बाहर रहते हैं, वे काम करते हैं और घर से काफी दूर रहते हैं तो एक साल में कम से कम तीन से चार बार उनसे मिलने जरूर आएं और उनकी समस्या को समझें। कुछ दिन उनके साथ बिताएं, ताकि बुजुर्गों का मन भी लगेगा और उन्हें अकेलापन भी महसूस नहीं होगा।