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राजपक्षे माडल के दुष्परिणाम एकाएक दूर नहीं होंगे, पर बदल सकते हैं हालात
सोर्स- जागरण
श्रीराम चौलिया।
श्रीलंका के सत्ता प्रतिष्ठान पर पूरी तरह हावी हो गए राजपक्षे परिवार का पतन और जनता के आक्रोश एवं कोप से बचने के लिए राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे का रफूचक्कर हो जाना इस द्वीपीय देश की राजनीति में एक युग की समाप्ति का स्पष्ट संकेत है। 'अरगला भूमिया' (सिंहला भाषा में राष्ट्रीय संघर्ष) ने इस परिवार को सत्ता से खदेड़ दिया है। जबकि पिछले कुछ समय से वहां इसी कुनबे की तूती बोलती रही थी। उन्हें कुछ उपनाम भी मिल गए थे। जैसे राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे को 'टर्मिनेटर' कहा जाने लगा। पूर्व प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे को 'द चीफ' का खिताब मिला। वित्त मंत्री बासिल राजपक्षे 'मिस्टर टेन परसेंट' के रूप में कुख्यात हुए।
कृषि मंत्री चामल राजपक्षे 'द बाडीगार्ड' और खेल एवं युवा मामलों के मंत्री नमल राजपक्षे को 'शहजादा' कहा जाने लगा। यह तो मंत्रालयों पर काबिज लोगों की कहानी है। इस परिवार ने अन्य प्रमुख पदों पर भी अपने करीबियों को ही बैठा दिया था। अब जनता ने उन्हें इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया है। इसे एक प्रकार के गिरोह का सफाया ही कह सकते हैं, क्योंकि अयोग्य और भ्रष्ट परिवारवादी राजनीति ने श्रीलंका में शासन को अक्षम और गैर-जिम्मेदार बना डाला था।
इस समय श्रीलंका में त्राहिमाम की स्थिति है। महंगाई दर 80 प्रतिशत के आसमानी स्तर पर है। खाद्यान्न, ईंधन और दवाइयों जैसी तमाम आवश्यक वस्तुओं की भारी किल्लत है। विदेशी मुद्रा भंडार खाली है। इस अराजकता के लिए राजपक्षे परिवार के निरंकुश शासन और बेतुके रवैये को ही जिम्मेदार माना जा रहा है। कोविड महामारी ने श्रीलंका की अर्थव्यवस्था के आधार स्तंभ पर्यटन को ध्वस्त कर दिया। उसी दौर में राजपक्षे सरकार ने तुगलकी फरमान जारी कर रासायनिक उर्वरक पर प्रतिबंध लगा दिया और प्राकृतिक खेती पर जोर दिया। इससे न केवल कृषि उत्पादन घटा, बल्कि कृषि पर निर्भर श्रीलंका की 27 प्रतिशत आबादी भी तंगहाल हो गई।
बढ़ा रही उन्माद
इन तुगलकी नीतियों का कोई प्रतिरोध नहीं हुआ, क्योंकि कृषक वर्ग, मीडिया, नागरिक समाज और न्यायपालिका पर सरकार ने जबरदस्त अंकुश लगाया हुआ था। तमिल चरमपंथ के समय से भी ज्यादा निरंकुशता राजपक्षे परिवार ने हाल के समय में दिखाई। जब जनहितों की घोर अनदेखी होने लगी तो लोगों को पानी सिर से ऊपर जाते हुए दिखने लगा। उनके सब्र का बांध टूट गया।
जब देश पर कर्ज का बोझ खतरे की घंटी बजा रहा था, तब राजपक्षे परिवार अर्थशास्त्रियों की चेतावनियों की अनदेखी कर रहा था। खाली राजकोष से बेपरवाही दिखाते हुए विभिन्न करों में कटौती की घोषणा कर दी गई। सरकार के ऐसे लोकलुभावन कारनामों के कारण करदाताओं की संख्या में दस लाख की कटौती हो गई। श्रीलंका जैसे छोटे देश के लिए यह बहुत बड़ी कटौती थी। इसके परिणामस्वरूप अंतरराष्ट्रीय बाजार में श्रीलंका की साख गिरनी शुरू हो गई।
कर्ज संकट की चरमसीमा पार हो रही थी, फिर भी महीनों तक ब्याज का भुगतान जारी रखा गया। जब नैया डूब रही हो, तब यदि शासक स्वयं को सबसे बुद्धिमान और काबिल नाविक समझकर मनमर्जी से चप्पू चलाए तो नतीजा प्रलय ही हो सकता है। यही श्रीलंका के साथ हुआ। राजपक्षे परिवार ने न केवल घरेलू नीतियों मे भारी गलतियां कीं, बल्कि विदेश नीति में भी चीन को भरोसेमंद समझकर अपने लिए एक बड़ी खाई खोद डाली।
एक समय दक्षिण एशिया में श्रीलंका की अर्थव्यवस्था सबसे बेहतर स्थिति में थी, लेकिन सत्ता में आने के बाद राजपक्षे परिवार ने बिना सोचे-समझे चीन से भारी-भरकम कर्ज लेकर बुनियादी ढांचे पर पानी की तरह पैसा बहाया। इसके पीछे चीन से बड़े अनुबंधों की आड़ में रिश्वत लेने और भारत जैसी लोकतांत्रिक शक्ति के कथित दबाव से मुक्त होने की चाल भी थी। वास्तव में चीनी सहयोग श्रीलंका को गर्त मे धकेल रहा था और उसकी संप्रभुता का खात्मा करने पर भी तुला था, फिर भी राजपक्षे इस साल अप्रैल तक यही आस लगाए बैठे रहे कि इस मुश्किल घड़ी में चीन ही उनकी नैया पार लगाएगा।
जून में जब समूचा देश विरोध-प्रदर्शन करने के लिए मजबूर हो उठा तो चीन ने कर्ज माफी या वित्तीय सहायता देने से इन्कार कर दिया। तब गोटाबया राजपक्षे ने यह बेतुका दावा किया कि 'चीन ने अपना रणनीतिक ध्यान दक्षिण पूर्व एशिया में स्थानांतरित कर दिया है। फिलीपींस, वियतनाम और कंबोडिया के अलावा अफ्रीका में उसकी दिलचस्पी बढ़ गई है। यहां तक कि पाकिस्तान पर भी ध्यान कम हो गया है।' असल में यह बयान मूल मुद्दे से ध्यान हटाने की मंशा से दिया गया।
दरअसल राजपक्षे परिवार चीन के उपनिवेशवादी कर्ज जाल की अनदेखी अंत तक करता रहा। अगर श्रीलंका में स्वतंत्र संस्थान, लोकतांत्रिक नियंत्रण और संतुलन के साथ नीतियों पर बहस की संस्कृति बनी रहती तो उसका जो हश्र हुआ, वह नहीं होता। वेनेजुएला, लेबनान, सूडान और जिंबाब्वे जैसे 'विफल' देशों की सूची में श्रीलंका शामिल नही होता, अगर वहां 'निरंकुशता' और सांप्रदायिक असहिष्णुता के नासूर ने सब कुछ खोखला न किया होता।
राजपक्षे परिवार ने सिंहला बौद्ध कट्टरवाद और 'दबंग शासक' की छवि के माध्यम से ही श्रीलंका पर अपना राजनीतिक वर्चस्व स्थापित किया था। उन्होंने स्वयं को सिंहला बहुसंख्यक समुदाय के एकमात्र रक्षक के रूप में प्रस्तुत किया। यह काम नहीं आया। आज श्रीलंका के सभी नस्लीय और धार्मिक समुदाय एकजुट होकर सड़कों पर उतर आए हैं और जवाबदेह सरकार की मांग कर रहे हैं।
1948 में स्वतंत्र होने के बाद सबसे भयावह आर्थिक संकट ने लोगों की आंखें खोल दी हैं। उन्हें समझ आ गया कि पहचान की राजनीति और नस्लीय प्राथमिकता के नाम पर उन्हें बरगलाया गया। 'अरगला भूमिया' आंदोलन में समाज के प्रत्येक वर्ग और जातीय समूह की हिस्सेदारी है। यह आंदोलन श्रीलंका को सुशासन की नए दिशा की ओर उन्मुख करने पर जोर दे रहा है।
श्रीलंका आज ऐसे मुकाम पर है, जब वहां के आभिजात्य वर्ग की पोल खुल गई है। वहां पुरानी व्यवस्था के खंडहर पर नई रचना का निर्माण होना शेष है। एक कहावत है कि 'चीजें बेहतर होने से पहले खराब होनी चाहिए।' राजपक्षे माडल के दुष्परिणामों का असर आनन-फानन में कम नहीं किया जा सकता, परंतु सामाजिक जागरूकता, राजनीतिक नेतृत्व की परिपक्वता और भारत जैसे हितचिंतकों के परामर्श एवं सहयोग से श्रीलंका को नया सूर्योदय देखने को मिल सकता है।
Rani Sahu
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