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- आर्थिक संकट से जूझता...
ब्रह्मदीप अलूने: पिछले कुछ वर्षों में चीन तीसरी दुनिया के कई देशों के लिए ऐसा कर्जदाता बन गया है जो अपनी शर्तों पर किसी राष्ट्र की संप्रभुता को प्रभावित कर सकता है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में नव उपनिवेशवाद एक जटिल संकल्पना है, जहां गरीब देश महाशक्तियों के आर्थिक शिंकजे में फंस जाते हैं और इसका प्रभाव उनकी राजनीतिक संप्रभुता पर भी पड़ने लगता है। भारत का पड़ोसी देश श्रीलंका इस समय चीन के कर्ज के जाल में बुरी तरह से फंस गया है। इससे देश का समूचा आर्थिक तंत्र चरमरा गया है।
महंगाई दर में अभूतपूर्व वृद्धि हो गई है। रोजमर्रा की चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं। श्रीलंका में बदहाली इतनी बढ़ गई है कि देश दिवालिया होने की कगार पर है। ऐसे में सरकार को राजस्व मिलना बंद हो सकता है। लोग कर देना बंद कर सकते हैं। सरकार लोगों से अपील कर रही है कि उनके पास विदेशी मुद्रा हो तो वे श्रीलंकाई मुद्रा के बदले उसे जमा करें। आशंका यह भी बढ़ गई है कि कहीं लोग देश की मुद्रा स्वीकार करना ही बंद न कर दें।
श्रीलंका की मुद्रा का मूल्य अपने निम्नतम स्तर पर पहुंच चुका है। अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजंसी फिच ने भी श्रीलंका का दर्जा बहुत नीचे कर दिया है। राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे देश में आर्थिक आपातकाल की घोषणा कर चुके हैं। श्रीलंका की बिगड़ती स्थिति का प्रमुख कारण चीन की ऊंची ब्याज दर है जिसकी किश्तों का समय पर भुगतान न कर पाने के लिए श्रीलंका को और ज्यादा कर्ज लेना पड़ रहा है। ऐसे में देश में लोक कल्याणकारी योजनाएं बंद हो गई हैं। आम जनता को मिलने वाली सबसिडी रोक दी गई है और विदेशी मुद्रा भंडार को बचाए रखने की कोशिश की जा रही है।
दरअसल चीन वैश्विक शक्ति बनने के लिए आर्थिक और सैन्य गतिविधियां तेजी से बढ़ा रहा है। उसकी तीन खरब अमेरिकी डालर से ज्यादा की लागत वाली वन बेल्ट वन रोड परियोजना को 'प्रोजेक्ट आफ सेंचुरी' कहा जाता है। इस परियोजना के तहत दुनिया के कई देशों में बुनियादी ढांचा विकसित किया जाना है। इसके जरिए चीन मध्य एशिया, दक्षिणी-पूर्वी एशिया और मध्य-पूर्व में अपना दबदबा बढ़ाना चाहता है। इस परियोजना के साथ कई देश जुड़े हैं, लेकिन ज्यादातर पैसे चीन समर्थित विकास बैंकों और वहां के सरकारी बैंकों से आ रहे हैं।
चीन की नीति है कि छोटे देशों को अपने साथ जोड़ो और उन्हें कर्ज जाल में फंसा लो। पिछले दो दशकों में चीन ने एक सौ पैंसठ देशों में करीब साढ़े तेरह हजार परियोजनाओं के लिए करीब साढ़े आठ सौ अरब डालर की धनराशि या तो निवेश के रूप में लगाई है या फिर कर्ज दिया है। इस धनराशि का एक बड़ा हिस्सा चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की महत्त्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड परियोजना से संबंधित है। इस परियोजना के तहत चीन नए वैश्विक व्यापार मार्गों का निर्माण कर रहा है। चीन के कर्ज जाल में फंसे देशों में जिबुती, किर्गिस्तान, लाओस, मालदीव, मंगोलिया, मोंटेनेग्रो, पाकिस्तान और तजाकिस्तान जैसे देश शामिल हैं।
वन बेल्ट वन रोड परियोजना से श्रीलंका के कायाकल्प होने की धुन में श्रीलंकाई नेतृत्व ने दुबई और सिंगापुर की तर्ज पर अंतरराष्ट्रीय व्यापार का केंद्र श्रीलंका को बनाने की चीनी पेशकश को आंख मूंद कर स्वीकार कर लिया था। पिछले साल श्रीलंका की संसद ने पोर्ट सिटी इकोनोमिक कमीशन बिल पारित किया था। यह बिल चीन की वित्तीय मदद से बनने वाले इलाकों को विशेष छूट देता है। विशेष आर्थिक जोन विकसित करने और विदेशी निवेश को आकर्षित करने के नाम पर बनाए गए इन कानूनों को लेकर न तो विपक्षी दलों से बात की गई और न ही देश में आम राय कायम करने की कोशिश की गई।
पोर्ट सिटी कोलंबो के नाम पर एक सौ सोलह हेक्टेयर की जमीन चीनी कंपनी को निन्यानवे साल के लिए लीज पर दी गई है। इसके पहले श्रीलंका हंबनटोटा बंदरगाह को कर्ज न चुका पाने के कारण चीन को सौंप चुका है। यहीं नहीं, श्रीलंका की सरकार अपने देश के आर्थिक माडल को बदल देना चाहती है। वह छोटे किसानों के हितों की अनदेखी करके जैविक खेती के चीन के व्यापारिक माडल में उलझ गई है। राजपक्षे सरकार ने अचानक ही रासायनिक खाद और कीटनाशकों पर प्रतिबंध लगा दिया। इससे कृषि समुदाय पर व्यापक रूप से असर पड़ा है और कृषि अर्थव्यवस्था चौपट हो गई है।
अब श्रीलंका चीन के कर्ज के जाल से निकलना चाहता है। इसके लिए उसने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) से आर्थिक सहायता हासिल करने की कोशिशें भी की हैं। लेकिन आइएमएफ ने उसकी मांग को अनसुना कर दिया क्योंकि देश की मौजूदा सरकार एजेंसी के हिसाब से आर्थिक सुधार के एजंडे पर अमल करने का इरादा नहीं रखती थी।
इस वर्ष सरकार और श्रीलंका के निजी क्षेत्र को करीब सात अरब डालर के कर्ज का भुगतान करना है। जबकि श्रीलंका के केंद्रीय बैंक के अनुसार देश के पास विदेशी मुद्रा खत्म होने की कगार पर पहुंच गया है। इसमें श्रीलंका पर चीन का पांच अरब डालर से अधिक कर्ज है। कुछ साल पहले ही श्रीलंका गृहयुद्ध से उबरा है और अब यदि वह कर्ज से कुचक्र से नहीं निकला तो तबाह हो सकता है। बैंक बंद हो जाएंगे, लोगों की नाराजगी बढ़ती गई तो भयावह हिंसा हो सकती है।
इन सबके बीच यह देखने में आ रहा है कि चीन के उभार के बाद दिवालिया होने की स्थिति में कोई भी देश आइएमएफ और विश्व बैंक पर निर्भर नहीं हैं। लेकिन चीन आर्थिक सहायता के नाम पर रणनीतिक फायदा उठाने की नीति पर काम करता है। चीन कई गरीब और मध्यम आय वाले देशों को खुले हाथ से कर्ज बांटता रहा है। यही उसकी रणनीति का हिस्सा है।
चीन अपनी अंतरराष्ट्रीय विकास परियोजनाओं के लिए अमेरिका और दुनिया के दूसरे कई प्रमुख देशों की तुलना में लगभग दोगुना पैसा खर्च करता है। विकास के नाम पर दी जाने वाली इस राशि को लेकर शुरुआत में यह अनुमान लगाना मुश्किल होता है कि कर्ज से उनकी प्रगति किस हद तक प्रभावित होगी। इसके नियम इतने कठिन होते है कि कर्ज नहीं चुकाने की स्थिति में ही कर्ज लेने वाले देशों को पूरी परियोजना उस देश के हवाले करनी पड़ती है। कई मामलों में अनुबंध पूरी तरह से अपारदर्शी होते हैं।
दक्षिण-पूर्वी एशिया में लाओस गरीब मुल्कों में से एक है। लाओस में चीन वन बेल्ट वन रोड के तहत रेलवे परियोजना पर काम कर रहा है। इसकी लागत साढ़े छह अरब डालर के करीब है जो कि लाओस की जीडीपी का आधा है। लाओस इस कर्ज को चुका पाने की स्थिति में नहीं है और वह चीन की मांगों को मानने को मजबूर हो गया है।
तीसरी दुनिया के देश नई अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को इस उम्मीद से देख रहे थे कि इससे विकसित देशों द्वारा अविकसित देशों का औपनिवेशिक शोषण रुक जाएगा और विश्व की आय तथा साधनों का न्यायपूर्ण व समान बंटवारा होगा। चीन ने नई अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को 'ब्रेड और बटर की नीति' के जरिए चुनौती दी है। चीन के सरकारी बैंक अपने देश में लोगों को कर्ज देने के बजाय दूसरे मुल्कों ज्यादा कर्ज दे रहे हैं।
चीन के इस आर्थिक सहायता के जंजाल में श्रीलंका के बाद मालद्वीप, म्यांमा, भूटान और नेपाल जैसे भारत के अन्य पड़ोसी देशों के फंसने का खतरा बढ़ता जा रहा है। इन देशों में चीनी कर्ज का दबाव अंतत: लोकतांत्रिक संकट को बढ़ा सकता है। जाहिर है चीन की कर्ज रणनीति भारत के लिए सामरिक समस्याओं को बढ़ाने वाली है।