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नए साल पर बुरी खबर! श्रीलंका के लोग बुधवार और गुरुवार को नया साल मना रहे हैं
आलोक जोशी, वरिष्ठ पत्रकार
नए साल पर बुरी खबर! श्रीलंका के लोग बुधवार और गुरुवार को नया साल मना रहे हैं। आज सिंहली और गुरुवार को तमिल नववर्ष मनाया जाएगा, लेकिन कल ही यह बुरी खबर आई कि देश की आर्थिक स्थिति कंगाली के कगार पर पहुंच चुकी है। बाकायदा सरकारी एलान हुआ है।
कई हफ्ते से चल रही कशमकश के बाद आखिरकार श्रीलंका सरकार ने एलान कर दिया है कि वह लगभग 51 अरब डॉलर के अपने विदेशी कर्ज का भुगतान करने या उसका ब्याज चुकाने की स्थिति में नहीं है। मतलब उसने लेनदारों को बता दिया है कि फिलहाल श्रीलंका ब्याज की किस्तों का भुगतान नहीं करेगा। श्रीलंकाई वित्त मंत्रालय ने एक बयान जारी किया है, जिसमें कहा गया है कि उनके पास आयात के लिए विदेशी मुद्रा नहीं बची है, इसलिए यह आखिरी कदम उठाना पड़ा है। सवाल है कि श्रीलंका के कर्ज न लौटाने का मतलब क्या है और इसके क्या नतीजे हो सकते हैं? बात थोड़ी विकट है, इसलिए अपने आसपास से शुरू करना बेहतर होगा।
सात दिन में लौटाने का वादा करके किसी से उधार लिया हो और सातवें दिन खाते में आने वाली वह रकम ही न आए, तो क्या हाल होता है? खुद नहीं, तो आसपास के लोगों के साथ ऐसा होते हुए हम सभी ने कभी न कभी देखा होगा। खुद न देखा हो, तो फिल्मों या टीवी धारावाहिकों के ऐसे नजारें याद करें। कभी लेनदार भला इंसान होता है, तो कभी कपड़े उतारने या सामान फेंकने तक की नौबत आ जाती है। पुरानी फिल्मों में वसूली करने वाले पठान और आजकल रिकवरी एजेंट यही काम करते हैं। कोई आम ग्राहक हो या बड़ी कंपनियां, कर्ज देते समय यह जरूर देखा जाता है कि वे इसे चुकाने की हैसियत रखती हैं या नहीं? और यह कर्ज वापस न आने का खतरा कितना बड़ा है? इससे तय होता है कि उस पर कितना ब्याज वसूला जा सकता है। ज्यादा जोखिम यानी ज्यादा ब्याज। यह गणित पूरी दुनिया में इसी तरह चलता है।
लेकिन दुनिया भर में एक बिरादरी ऐसी है, जिसे कर्ज देना बेहद सुरक्षित माना जाता है। यह बिरादरी है, अलग-अलग देशों की सरकारों की। इनसे कर्ज वापस मिलने की गारंटी मानी जाती है। इनकी संप्रभुता का ही असर है कि इन्हें दिए जाने वाले कर्ज 'सॉवरेन लोन' या इनकी गारंटी को 'सॉवरेन गारंटी' कहा जाता है। सरकारों के पास यह ताकत भी होती है कि वे नोट छापकर भुगतान कर दें। मगर अंतरराष्ट्रीय लेन-देन में एक उसूल यह भी है कि जिस मुद्रा में कर्ज लिया जाए, उसी में लौटाया भी जाए, यानी श्रीलंका को अपना कर्ज डॉलर में चुकाना है, जिसके लिए उसके पास कोई इंतजाम बचा नहीं है। यही वजह है कि श्रीलंका सरकार ने कहा है कि लेनदार चाहें, तो श्रीलंकाई रुपये में भुगतान ले सकते हैं या फिर वे ब्याज की रकम को मूलधन में जोड़कर कर्ज की रकम बढ़ा सकते हैं।
जब किसी देश के 'डिफॉल्ट' की खबर आती है, तो यूं लगता है, मानो देश बैठ गया। अब वहां ताला लग जाएगा। हालात होते तो गंभीर ही हैं। लेकिन आपको मालूम होना चाहिए कि 1960 से अब तक 147 सरकारें अलग-अलग वक्त पर अपने कर्ज या उनके ब्याज की किस्त भरने में नाकाम रही हैं। आम तौर पर दुनिया में जब कोई बड़ा आर्थिक संकट आता है, तब ऐसे मामले बढ़ते हैं। साल 2008 के आर्थिक संकट के दौरान निकारागुआ और इक्वाडोर जैसे देशों के 'डिफॉल्ट' की नौबत आई, बल्कि उसी संकट का असर था कि 2015 में ग्रीस के सामने भी ऐसी ही नौबत आ खड़ी हुई। इसे बड़ा संकट माना गया, क्योंकि यह किसी विकसित देश का 'डिफॉल्ट' था और इसका दबाव पूरे यूरोपीय संघ पर पड़ता देखा गया।
आज भी श्रीलंका अकेला नहीं है। हालांकि, दोनों का आपस में कोई रिश्ता नहीं, लेकिन इस वक्त रूस भी इसी चुनौती से जूझ रहा है कि वह अंतरराष्ट्रीय कर्ज के बाजार में 'डिफॉल्टर' होने से कैसे बचे? रेटिंग एजेंसी 'एसऐंडपी' ने तो कह दिया है कि रूस 'डिफॉल्टर' हो चुका है, क्योंकि उसने 4 अप्रैल को जो ब्याज की किस्तें भरी हैं, वे डॉलर के बजाय रूबल में भरी गई हैं। रूस का संकट यह है कि यूक्रेन पर हमले के बाद से अमेरिका और पश्चिमी देशों ने उसे अंतरराष्ट्रीय भुगतान नेटवर्क से काट दिया है। उसके सामने भी यह खतरा खड़ा हो गया है कि वह अपने लेनदारों की किस्त चुकाने की हालत में नहीं है। कह सकते हैं कि रूस ने यह मुसीबत खुद मोल ली है। मगर श्रीलंका की परिस्थिति अलग है। कुछ ही साल पहले भारत में उदाहरण दिए जाते थे कि श्रीलंका व बांग्लादेश किस तेजी से तरक्की कर रहे हैं। खासकर वस्त्र निर्यात के मामले में। श्रीलंका का पर्यटन कारोबार भी खूब फल-फूल रहा था, लेकिन कोरोना ने इस सब पर पानी फेर दिया और उसके बाद सरकार व कारोबार की बाकी कमजोरियां भी सामने आने लगीं।
हालात इतनी तेजी से बिगडे़, जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। पिछले साल अगस्त में श्रीलंका ने अचानक 'फूड इमर्जेंसी' की घोषणा कर दी। यह एक तरह से आर्थिक आपातकाल का एलान ही था। खाने-पीने की चीजों के दाम आसमान छूने लगे थे और पेट्रोल-डीजल के लिए लंबी लाइनें लग चुकी थीं। विदेशी निवेशकों ने बाजार से पैसे निकाले, तो हालात और गंभीर होते गए। श्रीलंका अपनी जरूरत की करीब-करीब सभी चीजें आयात करता है, यह उसके लिए बहुत बड़ी मुश्किल है।
इस बीच बांग्लादेश, भारत, दक्षिण कोरिया और चीन उसकी मदद की कोशिश कर चुके हैं। लेकिन अब जहां वह पहुंच गया है, वहां हल्की-फुल्की मदद से काम चलने वाला नहीं है। जानकारों का कहना है, सबसे जरूरी है कि श्रीलंका का राजनीतिक नेतृत्व बदले और ऐसे लोग सत्ता में आएं, जिन पर वहां की जनता को भी भरोसा हो और अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को भी। तब शायद वे कुछ कड़े कदम उठाने का फैसला कर सकें, और उस बिना पर दूसरे देशों से मदद भी जुटा पाएं। श्रीलंका के ही नहीं, पूरे इलाके के बेहतर भविष्य के लिए ऐसा होना जरूरी है।

Rani Sahu
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