सम्पादकीय

Sri Lanka Economic Crisis : कर्ज के भरोसे खर्च चलाने वाले देशों के लिए श्रीलंका संकट एक सबक

Gulabi Jagat
25 March 2022 2:40 PM GMT
Sri Lanka Economic Crisis : कर्ज के भरोसे खर्च चलाने वाले देशों के लिए श्रीलंका संकट एक सबक
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श्रीलंका में आए संकट का सामान्य कारण इसका बढ़ता कर्ज है और ऐसा लगता है
श्रीलंका (Sri Lanka) में आए संकट का सामान्य कारण इसका बढ़ता कर्ज है और ऐसा लगता है कि आने वाले भविष्य में इस भारी कर्ज का भुगतान करना असंभव है. साथ ही इस संकट के पीछे वे इंफ्रा परियोजनाएं हैं जिन्हें चीन (China) ने तैयार किया और जिनके लिए उसने कर्ज और प्लान भी पेश किए. वर्तमान नजरिए से देखें तो श्रीलंकाई संकट (Sri Lanka Crisis) के पीछे ये कारण सही लगते हैं, लेकिन वहां की सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक अस्थिरता की वजह से भी मौजूदा संकट ने जन्म लिया.
निश्चित तौर पर असल समस्या कर्ज की है. और श्रीलंका के ऊपर यह कर्ज इस हद तक बढ़ चुका है कि उसके पास खर्च करने के लिए पैसा भी नहीं बचा है. लेकिन हालात इस कदर खराब कैसे हुए? श्रीलंका की अर्थव्यवस्था में एक आधारभूत कमी है, वहां का समाज अपनी आमदनी की तुलना में कई गुने खर्च करता है. यह एक ऐसी अर्थव्यवस्था है जो बहुत अधिक धन पैदा नहीं करती लेकिन उस धन के उपभोग की इच्छा वहां विकसित देशों की तरह है.
आइए, इस स्थिति को अलग-अलग करके देखें
श्रीलंका एक आईलैंड देश है, जिसके पास कोई भी संसाधन पर्याप्त रूप से नहीं है, खास तौर पर खाद्य पदार्थ. अपनी स्थानीय मांग को पूरा करने के लए इसे सब कुछ आयात करना पड़ता है, इनमें चावल से लेकर दूध और तेल से लेकर दवाएं तक शामिल हैं. राजनीतिज्ञों, कारोबारियों और अंतरराष्ट्रीय लॉबी का गठजोड़ की वजह से यह देश उन चीजों को लेकर भी आत्मनिर्भर नहीं हो पाया जिन्हें वह आसानी से पैदा कर सकता था. उपजाऊ भूमि और उष्णकटिबंधीय जलवायु होने के बावजूद यह सब्जी और दूध तक का उत्पादन नहीं कर पाया. कुछ कपड़ों और हीरे जवाहरातों के अलावा, जिनका दरअसल निर्यात भी किया जाता है, इसके पास कोई बड़ा उद्योग नहीं है. इसके कृषि निर्यात में चाय निर्यात का हिस्सा करीब 60-65 फीसदी है और बाकी मसाला निर्यात किया जाता है. इसकी एक बड़ी आमदनी पर्यटन से होती है.
श्रीलंका की अर्थव्यवस्था रेमिटेंस (प्रवासी श्रीलंकाई से मिलने वाली आय) पर निर्भर है, यह जीडीपी का करीब 9 फीसदी है. यह आय लगभग पूरी तरह मध्य पूर्व से आती है, जो प्रवासी महिलाएं घरेलू नौकरानियों के रूप में वहां काम करती हैं, वे इसे भेजती हैं. इस आय में करीब 80 फीसदी योगदान इन महिलाओं का है, जबकि उनके पुरुष घर पर कुछ विशेष नहीं करते और इधर-उधर घूमते हैं. कुल मिलाकर, आर्थिक स्थिति काफी नाजुक और अस्थिर हैं. 2019 में हुए ईस्टर बम विस्फोट और कोविड महामारी की वजह से यहां का पर्यटन पूरी तरह से तबाह हो चुका है, इसके कारण देश के पास पैसा नहीं बचा है. ऊपर से सरकार की जैविक खेती से संबंधित त्रुटिपूर्ण नीति, जाहिर तौर पर इसे फर्टिलाइजर आयात खर्च को बचाने और विदेशी बाजारों में बेहतर मूल्य प्राप्त करने के लिए तैयार की गई, के कारण इसके कृषि उत्पादन में कमी आई.
जब आप अस्थिरता के हालात में इस तरह कर्ज लेते हैं तो निश्चित तौर पर आपके दिवालिया होने का जोखिम होता है और फिर पुराने कर्ज के भुगतान के लिए आपको और अधिक कर्ज लेना पड़ता है. यह कर्ज का दुष्चक्र है और श्रीलंका के साथ यही हुआ. जब राजपक्षे सत्ता में वापस आए, तो 2009 के बाद से महत्वाकांक्षी परियोजनाओं के लिए बेहिसाब उधारी ने स्थिति को और बदतर बना दिया. उन्होंने सोचा कि कि फ्रंट-लोडिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर देश की अर्थव्यवस्था को गति देगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ क्योंकि उन्होंने जो कुछ भी बनाया वह व्यावसायिक रूप से फायदेमंद साबित नहीं हुआ.
श्रीलंका को लगभग सब कुछ आयात करना पड़ता है
श्रीलंका में कर्ज-जीडीपी का अनुपात अभी 100+ है और बीते कई सालों से इसमें लगातार बढ़ोतरी होती रही, वैसे श्रीलंका में ये हालात हमेशा से ही इसी तरह के रहे हैं. पहले भी वहां कर्ज-जीडीपी अनुपात 100 से ऊपर जा चुका है, लेकिन तब अर्थव्यवस्था का हाल बेहतर था और इसलिए हालात अभी तरह इतने खराब नहीं हुए. अधिकतर विकसित देशों, जैसे जापान और अमेरिका, पर भी बहुत अधिक कर्ज का बोझ है, लेकिन उनकी अर्थव्यवस्था भी उतनी ही मजबूत है इसलिए इनके कर्ज संकट उत्पन्न नहीं करते. श्रीलंका के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि 60 फीसदी से भी अधिक के संसाधनों के लिए यह दूसरे देशों पर निर्भर है और इसकी भरपाई करने के लिए उसके पास पर्याप्त विदेशी मुद्रा भंडार नहीं है.
सामान्य अर्थों में कहा जाए तो श्रीलंका के मौजूदा हालात भुगतान संतुलन के संकट से संबंधित है, यह ठीक उसी तरह है जब 1991 में भारत को भी इसी तरह की समस्या से गुजरना पड़ा था. हालांकि, भारत ने इसे संभाल लिया था ,क्योंकि इसने हालात बिगड़ने के लिए अंतिम समय तक इंतजार नहीं किया (हालांकि, नरसिम्हा राव के बाद वीपी सिंह की निष्क्रियता की वजह से समस्या और बढ़ गई थी) और युद्ध स्तर पर सुधार के कदम उठाए गए थे. साथ ही उत्पादन और उपभोग की दृष्टि से देखा जाए तो भारत बहुत बड़ा बाजार है और इसलिए यह एफडीआई के लिए पसंदीदा मार्केट है. तो जैसे ही भारत ने ये सुधारात्मक उपाय किए और आईएमएफ से लोन लिया, वह संकट से उबर गया, इसकी अर्थव्यवस्था दुरुस्त हो गई और जल्द ही इसमें तेजी आ गई.
लेकिन श्रीलंका की समस्या यह है कि इसे लगभग सब कुछ आयात करना पड़ता है, इसमें खाद्य पदार्थ से लेकर तेल तक शामिल है, और जब इसके पास पर्याप्त विदेशी मुद्रा नहीं होगी तब इसे सभी आवश्यक वस्तुओं की कमी का सामना करना पड़ेगा. इसके अलावा, यह एक छोटा बाजार भी है. विनिवेश के लिए यहां सार्वजनिक क्षेत्र की बहुत कम कंपनियां और संपत्तियां हैं, इसकी वजह से यहां एफडीआई की संभावनाएं भी सीमित हैं. सबसे बड़ा संकट सभी चीजों के लिए पूरी तरह से इसका आयात पर निर्भर होना है, जो कि इसके वजूद के लिए सचमुच एक बड़ी चुनौती है.
1.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर की लागत से तैयार हंबनटोटा पोर्ट
मटाला एयरपोर्ट जैसी परियोजनाएं, जिसमें करीब 250 मिलियन अमेरिकी डॉलर लगने के बावजूद कुछ कमाई नहीं होती, 1.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर की लागत से तैयार हंबनटोटा पोर्ट और कई अन्य इंफ्रा परियोजनाओं के कारण रेगुलर कर्ज के अलावा बड़े पैमाने पर बाहरी कर्ज का ढेर खड़ा कर दिया है. जब सालाना देनदारी अरबों से ऊपर होती है, तो कमाई न करने वाली इंफ्रा परियोजनाएं एक बड़ा बोझ बन जाती हैं.
इस देश के पास मदद के लिए आईएमएफ के पास जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. आईएमएफ विशेष शर्तों के साथ कर्ज के जाल में फंसे देशों की मदद करता है. जब तक श्रीलंका अपनी अर्थव्यवस्था में मूलभूत बदलाव नहीं करेगा, तब तक आईएमएफ द्वारा निर्धारित शर्त किसी काम की नहीं होगी. श्रीलंका को यह मानना होगा कि बिना कमाई के खर्च, बिना उत्पादन के उपभोग करना, एक ऐसा लापरवाह तरीका है जो बहुत दिनों काम नहीं आ सकता, चाहे बात घर चलाने की हो या देश.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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