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सम्पादकीय
Sri Lanka Crisis: संकट से निपटने के लिए श्रीलंका के पास एकमात्र रास्ता है कर्जों के भुगतान में डिफॉल्ट करना
Gulabi Jagat
13 April 2022 4:24 PM GMT
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पिछले कुछ सप्ताह से यही चर्चा चल रही है कि श्रीलंका कैसे आर्थिक और राजनीतिक संकट के मकड़जाल में फंसता चला गया
Guest Author: जी प्रमोद कुमार: Sri Lanka Economic Crisis: पिछले कुछ सप्ताह से यही चर्चा चल रही है कि श्रीलंका कैसे आर्थिक और राजनीतिक संकट के मकड़जाल में फंसता चला गया. गौरतलब है कि श्रीलंका में प्रति व्यक्ति आय भारत की तुलना में दोगुनी है और जहां तक मानव विकास संकेतक (Human Development Indicator) की बात है तो उसकी तुलना कई औद्योगिक देशों से की जा सकती है. बहरहाल, किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि श्रीलंका आज दिवालिया हो जाएगा और भोजन, आवश्यक आपूर्ति, दवाओं और यहां तक कि बिजली के लिए भी उसे मोहताज होना पड़ेगा. कई हफ्तों के बाद भी श्रीलंका उस दौर से उबर नहीं पाया है. मौजूदा समय में भारत से भोजन, ईंधन और दवाओं और चीन से चिकित्सा जैसी आपातकालीन आपूर्ति की बदौलत संकट की इस स्थिति में वह जैसे-तैसे जीवित है.
संवैधानिक दृष्टि से देश पर शासन करने वाली सरकार के पास बहुमत नहीं है क्योंकि 42 सांसद जो कभी सत्ताधारी गठबंधन का हिस्सा हुआ करते थे वे अब बाहर निकल गए हैं और खुद के स्वतंत्र होने का घोषणा कर चुके हैं. चूंकि विपक्ष द्वारा अविश्वास प्रस्ताव के जरिए इसे मतदान में नहीं हराया जा सका है इसलिए देश में अभी भी एक सरकार है. लेकिन ये सरकार चल रही है बिना 26 मंत्रियों के. दरअसल, श्रीलंका के आकार और महत्व का कोई अन्य देश हाल के दिनों में कभी भी इस तरह के संकट से रू-ब-रू नहीं हुआ था.
श्रीलंका की सत्ता भी संकट में
हालात बदतर होते जा रहे हैं क्योंकि आर्थिक और सामाजिक-राजनीतिक संकट के साथ-साथ श्रीलंका की सत्ता भी संकट में है. जिस तरह से श्रीलंका ने अपने नए वित्त मंत्री अली साबरी को नियुक्त किया उससे तो यही लगता है कि आगे का रास्ता तलाशने के बाबत श्रीलंका बिलकुल बेखबर और प्रतिभाहीन है. पूर्व न्याय मंत्री अली साबरी ने अभी हाल ही में राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे से मुलाकात की थी और वहां उन्हें ये एहसास हुआ कि बिना उनकी जानकारी के उन्हें वित्त मंत्री नियुक्त कर दिया गया है. श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को रसातल में देख और सार्वजनिक क्रोध के डर से उन्होंने तुरंत इस्तीफा दे दिया.
लेकिन 8 अप्रैल को वे वित्त मंत्री बनने के लिए तैयार हो गए क्योंकि कोई भी यह जिम्मेदारी लेने को न तो तैयार था और न ही उनका इस्तीफा स्वीकार किया गया. अब वह उस टीम का नेतृत्व करेंगे जो आईएमएफ के साथ बेल-आउट पैकेज पर बातचीत करेगी. लेकिन सवाल यह है कि क्या वे इस काम के लिए सक्षम हैं? उनके पास पहले से कोई अनुभव नहीं है और वे अर्थशास्त्री भी नहीं हैं. अब श्रीलंका की यही सबसे बड़ी समस्या है – देश को चलाने के लिए तकनीकी जानकारी वाले लोगों की कमी. और इसी कमी की वजह से श्रीलंका की सरकार अंधाधुंध कर्ज लेती रही और इन्फ्रास्ट्रक्चर पर निरर्थक खर्च भी करती रही.
श्रीलंका को अब तीन-तीन मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है
वास्तव में, श्रीलंका को अब तीन-तीन मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है: यह अंतरराष्ट्रीय कर्ज में डूब रहा है, इसके पास जीवित रहने के लिए आवश्यक सामान खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं और इसकी कोई वैध सरकार नहीं है. एक ऋण संकट, दूसरा भुगतान संतुलन संकट और तीसरा राजनीतिक संकट. इसकी सबसे बड़ी, या यूं कहें कि तत्काल समस्या, अंतर्राष्ट्रीय सॉवरेन बांड का पुनर्भुगतान करना है. 2000 के दशक के उत्तरार्ध से जमा हुए इसके अंतर्राष्ट्रीय सॉवरेन बांडों की कीमत लगभग 11.8 बिलियन अमेरिकी डॉलर है जो इसके कुल कर्जे का 36.4 प्रतिशत है. इस साल करीब सात अरब अमेरिकी डॉलर और इस जुलाई में एक अरब अमेरिकी डॉलर बकाया है. जब आवश्यक आयात के लिए ही उसके पास पैसे नहीं हैं तो कर्ज चुकाने के लिए कहां से आएंगे? क्या श्रीलंका डिफ़ॉल्ट करेगा?
कुछ विशेषज्ञों और अर्थशास्त्रियों का कहना है कि डिफ़ॉल्ट करना ही देश के लिए सबसे अच्छा विकल्प है. श्रीलंका की विश्वसनीयता/रेटिंग वास्तव में बुरी तरह प्रभावित हुई है जिसकी वजह से बांड पहले से ही बाजार में अपने मूल्य के 50 प्रतिशत पर कारोबार कर रहे हैं. इस समय बाजार से उधार लेना उपयुक्त कदम नहीं होगा, इसलिए डिफ़ॉल्ट करना एक बुरा विचार नहीं है. यह कम से कम देश को आवश्यक आयात और अर्थव्यवस्था को स्थिर करने के लिए विदेशी मुद्रा के इस्तेमाल करने का अवसर देगा. इसके साथ ही श्रीलंका को कुछ फिस्कलस्पेस भी मिल जाएगा ताकि वह एक टिकाऊ अस्तित्व के मोड में आ सके. अतीत में रूस, यूक्रेन और अर्जेंटीना जैसे कई देश अपने ऋणों का भुगतान नहीं कर पाए और इसलिए श्रीलंका को अधिक विवेकपूर्ण हो इस पर सोचना चाहिए.
कर्ज को डिफ़ॉल्ट करने का मतलब है कर्ज का रिस्ट्रक्चरिंग
कर्ज को डिफ़ॉल्ट करने का मतलब है कर्ज का रिस्ट्रक्चरिंग यानि पुनर्गठन. इसे तुरंत अपने लेनदारों के साथ ऋण रिस्ट्रक्चरिंग को लेकर संवाद करना चाहिए. इस बातचीत में कर्जे के भुगतान का पुनर्निर्धारण, कुछ संभावित राइट-ऑफ और कुछ अन्य रियायत शामिल होना चाहिए. देश को इस संकट काल में पहुंचने से पहले ही इस तरह की बातचीत कर लेनी चाहिए थी. लेकिन तत्कालीन सेंट्रल बैंक के गवर्नर ने देश के गौरव और साख को इसकी व्यापक आर्थिक और राजनीतिक स्थिरता से ज्यादा महत्व दिया था. वास्तव में, विश्व बैंक ने कोविड से प्रभावित देशों के लिए एक ऋण निलंबन कार्यक्रम रखा था. 40 देशों के लगभग 13 बिलियन अमेरिकी डॉलर के ऋण को रिस्ट्रकचर करने में वर्ल्ड बैंक ने मदद की थी. हैरानी की बात यह है कि श्रीलंका इस कार्यक्रम में शामिल नहीं हुआ जबकि बांग्लादेश जैसा बेहतर प्रदर्शन करने वाले देश भी इस पैकेज के हिस्सा थे.
श्रीलंका पर इसके दीर्घकालिक ऋण का भी काफी बड़ा बोझ है क्योंकि इसका विदेशी ऋण (वह पैसा जो अंतरराष्ट्रीय लेनदारों और देशों पर बकाया है और इसलिए विदेशी मुद्रा में देय है) ही अपने सकल घरेलू उत्पाद के 60 प्रतिशत से अधिक है. इसने लगभग 20 प्रतिशत ऋण चीन और जापान (लगभग समान रूप से) से लिया है और लगभग 25 प्रतिशत एडीबी और अन्य वित्तीय संस्थानों ( सिर्फ एडीबी का ही लगभग 14.3 प्रतिशत) के हैं. बाकी ज्यादातर वित्तीय बाजारों जैसे बांड से उधार लिए गए हैं. इनमें से अधिकांश बहुपक्षीय और द्विपक्षीय कर्ज उन फैंसी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के लिए लिए गए हैं जो अब सफेद हाथी बन गए हैं और उन्हें भी पुनर्गठित करने की आवश्यकता होगी. हैरानी की बात है कि उन परियोजनाओं को पुनर्गठित करने की प्रक्रिया अब तक शुरू नहीं हुई है.
कम से कम 5 बिलियन अमेरिकी डॉलर की जरूरत
सूत्रों के अनुसार, श्रीलंका को अपने संकट से बाहर निकलने के लिए तुरंत कम से कम 5 बिलियन अमेरिकी डॉलर की जरूरत है. इसके लिए उसने शुरू में भारत और चीन जैसे देशों से द्विपक्षीय ऋणों का इंतजाम करने का प्रयास किया. लेकिन अब यह कमोबेश तय है कि वह आईएमएफ से बेल-आउट पैकेज मांगेगा. इसका मतलब साफ है कि अब आईएमएफ की निगरानी में श्रीलंका को सख्त संरचनात्मक सुधारों से गुजरना होगा. लेकिन आईएमएफ से इस तरह के ऋण पर बातचीत करने के लिए भी तकनीकी रूप से सक्षम विशेषज्ञों की आवश्यकता होती है. सबसे पहले क्या श्रीलंका के पास यह काबिलियत है? यहां यह याद दिला देना चाहिए कि कई देश इस तरह की बातचीत के साथ-साथ देश को आगे बढ़ाने के लिए सर्वश्रेष्ठ अर्थशास्त्रियों की मदद लेते रहे हैं. उदाहरण के लिए 1991 में जब भारत ने भुगतान संतुलन संकट का सामना किया था तो हमारे पास मनमोहन सिंह और दूसरे अत्यधिक सक्षम अर्थशास्त्रियों की एक पूरी टीम थी. ऐसी स्थितियां वास्तव में तकनीकी हैं और इसलिए तकनीकी विशेषज्ञों द्वारा ही इसका समाधान तलाशा जाना चाहिए.
चीन के कर्ज में डूबा श्रीलंका
संभवत: श्रीलंका को रघुराम राजन जैसे अंतरराष्ट्रीय स्तर के कुछ शीर्ष अर्थशास्त्री को काम पर रखने के बारे में सोचना चाहिए जिनका श्रीलंका की राजनीति से कुछ लेनादेना भी नहीं है. या फिर इसे विदेशों में तैनात अपनी कुछ मूल प्रतिभाओं से अनुरोध करना होगा. श्रीलंका के उच्च गुणवत्ता वाले टैलेंट का एक बड़ा हिस्सा लंबे समय से देश छोड़ चुका है. जियो-पालिटिकल मोर्चे पर श्रीलंका को यह महसूस करना चाहिए कि चीन एक नया साम्राज्यवादी देश है जो दूसरे देशों को उसके निरर्थक इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं के लिए कर्ज देकर उसे और कर्ज में डूबाना चाहता है. अफ्रीकी ऋण का लगभग 17 प्रतिशत चीन का है और ऐसे कई देश हैं जो अपने सकल घरेलू उत्पाद का 40 प्रतिशत कर्ज चीन से ले चुके हैं. इसकी बेल्ट एंड रोड पहल एक ऐसी तलवार है जिससे वह सिर्फ अपना हित साधेगा और "लाभार्थियों" को कर्ज में डूबाते हुए उनकी जमीन औऱ संप्रभुता पर कब्जा कर लेगा.
यदि श्रीलंका एकजुट रहने के लिए राजनीतिक सहमति प्राप्त करने में सक्षम होता है तो निश्चित तौर पर आने वाले दिनों में श्रीलंका का भविष्य तय हो पाएगा. दीर्घकालिक योजनाओं के लिए उसे पूरी तरह से अपनी नीतियों में बदलाव करना होगा: अपने पास जितने संसाधन हैं उसी के मुताबिक जिंदगी चलानी चाहिए और जितना हम उपभोग करते हैं उससे अधिक उत्पादन करना चाहिए. कम से कम इतना अनाज तो जरूर पैदा करना चाहिए कि आयात पर खर्च होने वाले अरबों डॉलर को बचाया जा सके.
चुनाव जीतने के लिए उन सभी लोकलुभावन नारों और टैक्सकटौती जैसे वादों को हटा देना चाहिए. और पुरानी व्यवस्था की प्रोग्रेसिव टैक्सेशन को लागू करना चाहिए ताकि अमीरों पर सबसे ज्यादा और गरीबों पर सबसे कम टैक्स लगे. वैसे भी, देश की सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था में निश्चित रूप से पूरी तरह से बदलाव की जरूरत है ताकि यह फिर से इस तरह के हालात में न फंस जाए.
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