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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने हाल ही में नौकरशाहों के साथ एक बैठक की थी
संदीपन शर्मा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने हाल ही में नौकरशाहों के साथ एक बैठक की थी. बैठक के दौरान अफसरों ने चेतावनी दी कि कुछ भारतीय राज्यों द्वारा की जाने वाली लोकलुभावन घोषणाएं उन्हें वित्तीय बर्बादी के रास्ते पर धकेल सकती हैं. बीते दिनों 3 अप्रैल को ये बैठक हुई थी. और साल 2014 के बाद से प्रधानमंत्री और सभी विभागों के सचिवों के बीच इस तरह की यह नौवीं बैठक थी, जिसमें तमाम मुद्दों पर बातचीत होती है. चार घंटे तक चली इस मीटिंग के दौरान कुछ सचिवों ने राज्यों में विधानसभा चुनाव (Assembly Election) के दौरान घोषित लोकलुभावन योजनाओं पर चिंता जताते हुए कहा कि ये आर्थिक रूप से सही फैसले नहीं हैं.
अधिकारियों ने आगाह किया कि अगर ये ट्रेंड जारी रहा तो कुछ राज्यों की स्थिति नकदी की तंगी से गुजर रहे श्रीलंका (Sri Lanka) या ग्रीस जैसी हो सकती है. गौरतलब है कि श्रीलंका अपने सबसे खराब आर्थिक संकट के दौर का सामना कर रहा है और हालात ऐसे हैं कि पैसा न होने के कारण वो खाद्य आयात और ईंधन के लिए भुगतान भी नहीं कर पा रहा है. कई भारतीय राज्यों के पास पैसा नहीं है. लेकिन वे राजस्व के स्रोतों की चिंता किए बिना मुफ्त उपहारों (Freebies) और दूसरे रियायतों पर खर्च करना चाहते हैं. ठीक यही रास्ता श्रीलंका ने भी अपनी बर्बादी के लिए चुना था.
भारतीय चुनावों में मुफ्त उपहार की 'परंपरा' दशकों से चली आ रही है
मुफ्त उपहारों के मुद्दे पर एक बार फिर से चर्चा शुरू हो गई है, खास तौर से जब से पंजाब में आप सरकार ने कुछ ऐसे रियायतों का वादा किया है, जिसको पूरा करना लगभग असंभव सा है. बहरहाल, भारतीय चुनावों में मुफ्त उपहार की 'परंपरा' दशकों से चली आ रही है. कई राजनीतिक दल मुफ्त बिजली, मुफ्त राशन, मुफ्त दवाएं और कई अन्य सेवाओं का वादा कर रहे हैं जो या तो सब्सिडी वाली हैं या पूरी तरह से मुफ्त हैं. इससे राज्य के बजट पर दबाव बढ़ रहा है. साथ ही, यह स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण सामाजिक क्षेत्रों में अधिक पैसे आवंटित करने की राज्य सरकारों की क्षमता को सीमित कर रहा है.
मुफ्त उपहारों को चुनावी वादे के रूप में तामिलनाडु राज्य में पेश किया जाता रहा है. 1954 और 1963 के बीच राज्य के मुख्यमंत्री रहे स्वर्गीय के कामराज ने स्कूली छात्रों के लिए मुफ्त शिक्षा और मुफ्त भोजन की शुरूआत की थी. मुफ्त भोजन को शिक्षा का एक पूरक माना गया. वहां से यह सस्ते चावल, मुफ्त रंगीन टीवी, नकद राशि और कृषि ऋण माफी तक पहुंच गया. अब यह खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा.
एक काल्पनिक दुनिया में अगर पंजाब एक स्वतंत्र देश होता, तो इसके कुछ वित्तीय मानदंड श्रीलंका के समान ही होते. शुरू करने के लिए एक महत्वपूर्ण आंकड़ा यह है कि दोनों की आय लगभग समान है. वित्तीय वर्ष 2021-22 में पंजाब का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) लगभग 6,07,594 करोड़ रुपये (करीब 80 अरब डॉलर) था. इस अवधि के दौरान श्रीलंका का सकल घरेलू उत्पाद भी बिल्कुल वैसा ही था – 80 बिलियन डॉलर.
आज श्रीलंका गले तक आर्थिक संकट में डूबा है
वर्तमान में पंजाब का अनुमानित ऋण/जीडीपी अनुपात 53.3 प्रतिशत है, जो भारत में सबसे अधिक है. अब कल्पना कीजिए कि अगर पंजाब को उन चीजों पर खर्च करना पड़ता जो एक स्वतंत्र देश के लिए आवश्यक हैं- जैसे रक्षा, सामूहिक टीकाकरण आदि – तो उसे और अधिक उधार लेना होगा (यह मान कर कि उनके पास अतिरिक्त आय का कोई साधन नहीं है). इससे उसका ऋण/जीडीपी अनुपात और भी अधिक हो जाता, शायद 10 प्रतिशत और बढ़ जाता. नतीजतन, उसके सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 65 प्रतिशत के बराबर कर्ज होता.
आज श्रीलंका गले तक आर्थिक संकट में डूबा है. इसका कर्ज/जीडीपी अनुपात करीब 120 फीसदी है. श्रीलंका के लिए अपने कर्ज को चुकाना, आयात का भुगतान करना और देश को चलाना लगभग मुश्किल हो रहा है. ठीक एक दशक पहले, पंजाब अपने 70 प्रतिशत कर्ज अनुपात के साथ वहीं था, जहां आज है. यही विचार करने की बात है, पंजाब की तरह कई भारतीय राज्य श्रीलंका बनने की राह पर हैं.
दरअसल उनमें से कुछ तो पहले से ही श्रीलंका बने हुए हैं, लेकिन रक्षा और टीकाकरण अभियान पर हो रहे खर्च जैसे मुद्दों पर केंद्र सरकार के वित्तीय पैकेजों की वजह से वे बचे हैं. ये राज्य केवल इसलिए "बास्केट केस" नहीं बने हैं, क्योंकि वे एक ऐसे देश का हिस्सा हैं जो उनकी कुछ जरूरतों का ख्याल रखता है और समय-समय पर उनकी आर्थिक मदद करता है. तुलनात्मक अध्ययन के लिए हमने आठ राज्यों को चुना जिनकी जीडीपी 130-50 अरब डॉलर के दायरे में है. उन सभी का ऋण/जीडीपी अनुपात 25 से अधिक है, जिसे आर्थिक दृष्टि से अस्वस्थ माना जाता है.
राज्य और देश
वित्तीय वर्ष 2021 GDP ($बिलियन में)
FY21-FY22GDPके प्रतिशत के रूप में बकाया देनदारियां FY22 जीडीपी के प्रतिशत के रूप में बकाया देनदारियां
श्रीलंका 81 118.9 119
आंध्र प्रदेश 130 36.5 37.6
केरल 118 37.1 38.3
मध्य प्रदेश 120 29.1 29
हरियाणा 100 30.7 35.3
बिहार 99 36.2 34
पंजाब 71 49.1 53.3
ओडिशा 67 28.8 26.7
असम 54 27.1 31.9
भारत 1779 50.87 50.8
2017 में, भारत सरकार द्वारा स्थापित एक Fiscal Responsibility and Budget Management (FRBM) पैनल ने वित्त वर्ष 2023 तक सकल घरेलू उत्पाद के 60 फीसदी के सामान्य सरकारी ऋण (केंद्र और राज्यों दोनों) की एक सीमा का सुझाव दिया था. और इस समग्र सीमा के मद्देनज़र केंद्र ने 40 फीसदी और राज्यों ने 20 फीसदी की सीमा को अपनाया था.
नेताओं की फिजूलखर्ची ने देश को बर्बाद कर दिया
अन्य राज्य भी अच्छा नहीं कर रहे हैं. चौबीस राज्यों (और केंद्र शासित प्रदेशों) पर उनके सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात के रूप में 30 प्रतिशत से अधिक का कर्ज है. केवल गुजरात (21.4 प्रतिशत) और महाराष्ट्र (20.4) के एफआरबीएम लक्ष्य 20 प्रतिशत के करीब होने की संभावना है. कुल मिलाकर राज्यों का ऋण अनुपात लगभग 32 प्रतिशत है. (राज्य सकल घरेलू उत्पाद बनाम सभी राज्यों का ऋण अनुपात यहां उपलब्ध है). (https://www.rbi.org.in/Scripts/PublicationsView.aspx?id=20870)
इसका मतलब यह नहीं समझा जाए कि केंद्र का कर्ज नियंत्रण में है. नवीनतम अनुमानों के अनुसार, साल 2021-22 में भारत का ऋण/जीडीपी अनुपात लगभग 59 प्रतिशत रहने की संभावना है. फिर भी, अधिकांश राज्य रियायतें और मुफ्त उपहार देने के लिए श्रीलंका की तरह खर्च कर रहे हैं. श्रीलंका की अर्थव्यवस्था गड़बड़ा गई है क्योंकि सरकार ने मतदाताओं को खुश करने के लिए कर की दरों में कमी की, पेंशन योजनाओं की रिपैकेजिंग की और युवाओं को ब्याज मुक्त ऋण दिया जबकि सरकार एक भी अतिरिक्त पैसा कमा नहीं सकी. महामारी के कारण जब इसकी आय में और गिरावट आई तो श्रीलंका बिल्कुल ही टूट गया. नेताओं की फिजूलखर्ची ने देश को बर्बाद कर दिया.
भारतीय राज्य जिन पर इसी तरह कर्जे का भार है, वे भी ऐसा ही कर रहे हैं. वे हैं तो कंगाल लेकिन एक दयालु राजा की तरह काम करते हैं. पंजाब में भगवंत मान ने चुनाव से पहले नए सिरे से मुफ्त उपहार देने का वादा किया था. अब वादा पूरा करने और खर्च करने के लिए पैसे नहीं होने के कारण वह केंद्र से 1 लाख करोड़ रुपये के राहत पैकेज की मांग कर रहे हैं.
रियायतों की घोषणा भारत को वित्तीय बर्बादी की राह पर ला सकती है
राजस्थान में अशोक गहलोत ने पुरानी पेंशन योजना को फिर से शुरू किया है, जिससे सरकारी खजाने पर अधिक भार आएगा. उन्होंने 2023 के चुनावों से पहले मतदाताओं को खुश करने के लिए मुफ्त बिजली और कुछ अन्य रियायतों का बी ऐलान किया है. उत्तर प्रदेश में, सरकार ने एक अलग वोट बैंक के रूप में अब लाभार्थियों की पहचान की है, जिन्हें मुफ्त राशन और डायरेक्ट-टू-अकाउंट कैश ट्रांसफर की सुविधा दी जा रही है. अन्य राज्यों ने भी रियायतों और सब्सिडी को चुनावी रणनीति में बदल दिया है. नतीजतन, हमारे वित्त पर और दवाब बढ़ता जा रहा है.
केंद्र भी कोई बहुत समझदार नहीं है. यूं तो कागज पर भारत ने ईंधन के लिए प्रशासित मूल्य तंत्र को बहुत पहले ही समाप्त कर दिया था. लेकिन सियासी गणना को ध्यान में रखकर अभी भी ईंधन की कीमतें केन्द्र सरकार ही तय करती है. यह एक ऐसे परिदृश्य की ओर ले जाता है जहां तेल कंपनियां कीमतो को नहीं बढ़ाती है चाहे अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें बढ़ रहीं हों. मिसाल के तौर पर हमने देखा कि यूक्रेन युद्ध के दौरान लड़े गए हाल के चुनावों के दरम्यान तेल की कीमतें नहीं बढ़ाई गई. कृत्रिम रूप से कीमतों को नियंत्रित करने से तेल कंपनियों की बैलेंस शीट प्रभावित होती हैं और अंततः केंद्र के राजस्व को ही नुकसान पहुंचाती हैं.
रियायतों की घोषणा करने की होड़ आखिरकार भारत को वित्तीय बर्बादी की राह पर ला खड़ा कर सकती है. कुछ राज्य पहले से ही इस हालत में हैं लेकिन वे केंद्र की छतरी के नीचे छिपे हैं. श्रीलंका की त्रासदी से हमें पता चलता है कि एक महामारी की तरह एक भी व्यवधान उन देशों को नष्ट कर सकता है जो बिना दिमाग लगाए या विवेक के खर्च करते हैं.
समस्या उस विचार से है जो चुनाव जीतने के लिए राजकोष का इस्तेमाल करते हैं
भारत जैसे विकासशील देश को कल्याणकारी योजनाओं पर हमेशा खर्च करने की आवश्यकता होगी. शौचालयों के निर्माण, घरों में रसोई गैस पहुंचाने और स्वास्थ्य, स्वच्छता और शिक्षा के लिए बुनियादी ढांचे के विकास परियोजनाओं के लिए धन मुहैया कराना होगा. महामारी जैसी आपदाओं के दौरान, राज्य को मुफ्त राशन और डायरेक्ट कैश ट्रांसफर जैसी सुविधाओं के साथ हस्तक्षेप करना होगा. ये एक कल्याणकारी राज्य की भूमिकाएं हैं जो स्वागत योग्य हैं और इसे कतई भी नकारा नहीं जा सकता है. इसे भविष्य के निवेश के रूप में भी माना जाता है क्योंकि गरीबी से बाहर निकलने वाले लोग मुख्यधारा में शामिल होंगे और देश के सकल घरेलू उत्पाद में योगदान देंगे
लेकिन समस्या राजनीतिक लोकलुभावन नारों से है. समस्या उस विचार से है जो चुनाव जीतने के लिए राजकोष का इस्तेमाल करते हैं. मतदाताओं के एक वर्ग को मुफ्त पानी, बिजली, लैपटॉप, बाइक, मोबाइल, बस और ट्रेन की सवारी और नकदी देने का वादा कभी भी उत्पादकता नहीं ला सकती है. एक तो इससे राजकोष से घन-राशि की निकासी होती है. दूसरा, यह संपत्ति बनाने के साथ पुरस्कारों की संस्कृति बनाता है. मनरेगा का प्रारंभिक अवतार भी केवल स्थायी संपत्ति बनाने के साथ श्रम प्रदान करने की एक योजना थी. शुक्र है कि अब मॉडल को बदल दिया गया है. इसलिए भारतीय राज्यों का भी हाल श्रीलंका जैसा न हो इसके लिए कल्याणवाद और लोकलुभावनवाद के बीच की लाल रेखा का सम्मान किया जाना चाहिए.
TagsSri Lanka Crisis
Rani Sahu
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